अर्चना उपाध्याय, प्रधान संपादक
भारत मूलतः गाँवों का देश है, जिसकी अस्सी से नब्बे प्रतिशत तक की जनता गाँवों में रहती थी लेकिन बाद के समय में जैसे-जैसे आधुनिकता बढ़ी गाँवों से शहरों की तरफ पलायन हुआ। इस पलायन में लोक-संस्कृति, रीति-रिवाज़, परम्पराओं, मान्यताओं आदि का भी स्थानांतरण हुआ जो बाद में आस्थाओं की परम्परागत शैली से हट कर आधुनिकता में परिवर्तित हो गया ।
कृषि कार्य की अधिकता के कारण जब पुरुष घर से बाहर दिन-रात रहता था तो उसकी मनःस्थिति चईता व चैती के माध्यम से व्यक्त हुई । खुशी एवं उल्लास फगुआ के माध्यम से बाहर निकला, राम का रावण पर विजय दशहरा व दीपावली के माध्यम से व्यक्त हुआ । इन सब के पीछे आस्था के साथ-साथ उसके घर में आये धन की खुशी भी थी । एकादशी के दिन गन्ना आदि नए अन्न के प्रयोग की परम्परा बनी । ख़ुशी के अवसरों पर गाँव के डीह बाबा, ब्रह्मबाबा के साथ-साथ कुल देवता एवं देवी पूजने की परम्परा थी जो आज भी गाँवों में उसी रूप में विद्यमान है लेकिन शहरों में उसे प्रतीकात्मक रूप से निभाया जा रहा है । शादी-विवाह के अवसर पर जनवासे एवं बड़हार आदि की परम्परा थी इसका मूल उद्देश्य था नये सम्बन्धियों का पुराने सम्बन्धियों से परिचय जो आज पूर्णतः समाप्त हो गया है । इस प्रकार बहुत से रीति-रिवाज़ थे जो हमारी सामाजिकता के लिए आवश्यक थे जिनका लोप इस आधुनिकता के दौर में हो गया है ।
कहने का आशय यह है कि हम आधुनिक बनें लेकिन साथ ही साथ अपने आधार से भी जुड़े रहें । हम वायुयान से अवश्य चलें लेकिन बैलगाड़ी के महत्व को भी याद रखें । आपकी वीथिका का यह अंक गाँवों की उन्हीं बतकहियों, स्मृतियों, गीतों, कथाओं के साथ आपके समक्ष है ।
ग्रामीण संस्कृति को दर्शाता वीथिका का यह अंक पठनीय व विचारणीय है।
Thanks Anoop Ji
Good