प्रसिद्ध भाषाविद, चिंतक, वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय प्रो . शर्वेश पाण्डेय जी, प्राचार्य, डी.सी.एस.के. महाविद्यालय,मऊ से आगामी 27-28 फरवरी, 2025 को डी.सी.एस.के. महाविद्यालय,मऊ के प्रांगण में लोक कलाओं व भोजपुरी पर अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य संगम के भव्य आयोजन के संदर्भ में हमारे भाषा व संस्कृति सम्पादक श्री बृजेश गिरि जी की बातचीत :
बृजेश जी- सर भारतीय ज्ञान परम्परा के बारे में हमें कुछ बताईये ?

प्रो. शर्वेश पाण्डेय जी – देखिये जब आप भारतीय ज्ञान परम्परा के बारे में बात करते हैं तो उसके कुछ आधार हैं, किसी भी परम्परा को प्रवाह मिले तो उसकी एक संरचना होती है जिसके आधार पर वह चलती है, अगर वह संरचना दिख रही है उसमें तो उसे उस परम्परा का हिस्सा माना जाता है, अगर वह उस संरचना के बाहर है तो वह परंपरा नहीं रहती है । जब हम भारतीय ज्ञान परम्परा की बात करते हैं तो भारतीय चिन्तन जिसे दीनदयाल जी चिति के नाम से कहते हैं, जो चेतना है उसे ही हम आधार भूमि कहते हैं, उसी से यह निश्चय होता है कि भारतीय ज्ञान परम्परा का मतलब क्या होता है ?
मैं भारतीय ज्ञान परम्परा के कुछ संरचनात्मक अवयवों के बारे में बात करूँगा जिसे कह सकते हैं कि ये उसकी मुलभुत ईकाई है, जैसे उसके चिन्तन का जो सबसे महत्वपूर्ण पहलु होता है कि वो भाव को महत्व देता है, स्थूल को नहीं । भाव सूक्ष्म को महत्व देता है, उसके लिए स्थूल भौतिकता के मायने नहीं हैं । उस स्थूल भौतिकता की संरचना को खड़ा करने वाली जो उसकी संरचना है, जो उसके अंदर के भाव हैं वह उसके लिए महत्वपूर्ण है । दूसरी एक बहुत महत्वपूर्ण बात है कि अगर मुझसे यह पूछा जाये कि भारतीय ज्ञान परम्परा का मूल तत्व क्या है, मूल संरचना क्या है,किस आधार पर हम तय करेंगे कि भारतीय ज्ञान परम्परा क्या है तो मैं यही कहूँगा कि वह उसका सूक्ष्म रूप है जिसे भाव रूप पर हम समझते रहे हैं । उसका थोड़ा सा भी विस्तार यदि हम करते हैं तो गुण रूप में आता है । जैसे हमारे यहाँ जो स्थूल भौतिकता है उससे भारतीय ज्ञान परम्परा को या ज्ञान परम्परा को या ज्ञान को समझने की कोशिश नहीं करते हैं, हमारे यहाँ जो गुण है उसको महत्व देते हैं तो इसका जो अगला स्तर है वह जो सूक्ष्म रूप है, गुण है । उदाहरण के लिए पश्चिम स्थूल को महत्व देता है, वो भौतिकता को महत्व देता है, इसलिए वो मानता है कि भौतिक संरचनाएं खड़ी करना ही विकास है । हम सूक्ष्म को महत्व देते हैं इसलिए हम भौतिक संरचनाओं में विकास नहीं देखते, गुण में विकास देखते हैं ।
बृजेश जी – इसीलिए पश्चिम के लोग तकनीकी पर अधिक विश्वास रखते हैं जो विनाशकारी है …
प्रो. शर्वेश पाण्डेय जी – जी, दूसरा हमारे यहाँ एक और शब्दावली प्रयोग की जाती है कि हम ज्ञान परम्परा में आध्यात्मिकता को महत्व देते हैं. मैंने जो भावरूप जो सूक्ष्मरूप कहा उसको आध्यात्मिकता के रूप में ही व्याख्यायित किया जाता है । ज्ञान तब तक भारतीय ज्ञान परम्परा में नहीं होगा जब तक उसमें आध्यात्मिकता का पुट नहीं होगा । आध्यात्मिकता की जो पहचान होती है वह आध्यात्मिकता की शुरुआत ही स्थूल होती है अंत से है, जहाँ भौतिकताविहीनता होती है वहीँ से आध्यात्मिकता की शुरुआत होती है । ये भौतिकता का आधार क्या है, कार्य-कारण श्रृंखला । कार्य-कारण से भौतिकता को समझने की शुरुआत करते हैं । इस कार्य-कारण से हम आध्यामित्कता को नहीं समझ सकते तो भारतीय ज्ञान परम्परा के मूल में स्थूल के स्थान पर सूक्ष्म का महत्व है, भौतिकता व भोग के स्थान पर भाव का महत्व है । हमारे यहाँ त्याग का महत्व है, हमारे यहाँ कहा जाता है कि जिसमें जितना त्याग होता है समाज उसे उतनी ऊँचाई देता है । आप देखें हमारे यहाँ संतों की त्याग की परम्परा है और इसीलिए भारतीय समाज ने संतों को सबसे अधिक महत्व दिया है । पूरे भारतीय समाज में स्थूल भौतिकता को याद करने की परम्परा ही नहीं है । कितने राजा हुए, कितने शक्तिशाली लोग हुए उन्हें कोई नहीं याद रखता लेकिन आर्यभट, वशिष्ठ, विश्वामित्र, परशुराम को सभी याद करते हैं, पूरी की पूरी गुरु परम्परा चलती है हमारे यहाँ । हमारे यहाँ राज परम्परा नहीं है इसीलिए हमारी गुरु परम्परा जो है वह बहुत बड़ा प्रमाण है कि हम स्थूल की जगह सूक्ष्म को,भोग के स्थान पर भाव को महत्व देते हैं, हम भौतिकता के स्थान पर आध्यात्मिकता को महत्व देते हैं । तो भारतीय ज्ञान परम्परा की जब हम बात करते हैं तो यदि इस मूल ढांचे पर चलने वाली जो परम्परा है उस पर यदि हम चलते हैं तो यह भारतीय ज्ञान परम्परा कहलाएगी ।
बृजेश जी – भारतीय ज्ञान परम्परा को संरक्षित करने में लोक साहित्य की क्या भूमिका है ?
प्रो. शर्वेश पाण्डेय जी – देखिये जब लोक परम्परा की बात करते हैं, लोक व शास्त्र का एक अलग विषय है, लोक में विस्तार है, लोक में विविधता भी है । उस विस्तार से तत्वों को लेकर शास्त्र बनते हैं, एक प्रक्रिया है कि बहुत सारे विकल्पों में से एक का चयन कर उसकी स्वीकृति के आधार पर शास्त्र बनता है । लोक व शास्त्र का जो रिश्ता है इसी को परिभाषित करने के लिए परम्परा खड़ी होती है । शास्त्र में जो चीजें लोक के देश व काल के अनुरूप नहीं होतीं वो चीजें छुट जाती हैं और लोक के देश व काल की वो चीजें जो शास्त्र में नहीं हैं उनका प्रवेश होता है । यही छूटना व प्रवेश होना यही तो परम्परा है । लोक व शास्त्र का सम्बन्ध परम्परा के माध्यम से चलता है । लोक हमेशा शास्त्र को समृद्ध करता है ।लोक का मतलब क्या है, लोक का मतलब देश व काल के सापेक्ष चीजें रहती हैं । देश व काल में जैसे परिवर्तन होता है वैसे चीजें बदल जाती हैं । इसे बहुत सतही स्तर पर हम समझने की कोशिश करें तो आप भौगोलिक परिवर्तन से देखेंगे कि जैसा वातावरण रहता है वैसा उपज, वस्त्र, भोजन आदि बदल जाता है । इसीलिए लोक का आयाम विस्तृत है । तो लोक शास्त्र का संरक्षक होता है। लोक व शास्त्र में एक ही भेद कह सकते हैं कि शास्त्र लोक को जोड़ता है लेकिन लोक में शास्त्र का विस्तार होता है, लोक में स्थानीयता का विस्तार होता है । वैसे भी हमारी परम्परा समग्रतावादी दृष्टि रही है । हम खंड-खंड में देखने के अभ्यासी नहीं रहे हैं,हम समग्र रूप से चीजों को देखते हैं । इसीलिए ऋतुओं, देश व काल के परिवर्तन से शरीर भी तमाम तरह के परिवर्तन को ग्रहण करता है व कुछ को छोड़ता है । मैं कहता हूँ ये प्राकृतिक है, प्रकृति ही इस पूरे विज्ञान को स्वीकारती है जो समय, देश, काल के अनुरूप है उसे ग्रहण करना जो देश काल के अनुरूप नहीं है उसे कुछ समय के लिए छोड़ना । आप भारतीय ज्ञान परम्परा को यदि देखें तो पाणिनि पर एक विद्वान हैं ग्रूमफिल्ड, उन्होंने जब भाषा पर काम किया तो कहा कि पाणिनि मेधा के सर्वोच्च शिखर पर हैं, इनका व्याकरण बहुत सूक्ष्म पर्यवेक्षण पर आधारित है और उसमें जो नियम बनाये गये हैं वो व्यवहार के धरातल पर परीक्षणोपरांत बने हैं, यानि जो हम व्यवहार कर रहे हैं उससे पर्यवेक्षण करने के बाद वो चीजें आयी हैं । यानि पाणिनि के अष्टाध्यायी को बनाने में लोक की बड़ी भूमिका है । तो जो हमारा शास्त्र निर्माण होता है उसमें लोक बड़ी भूमिका अदा करता है ।
बृजेश जी – आप लोक में संस्कृति की चर्चा कर रहे थे, लोक में संस्कृति के विविध रूपों पर हमें कुछ बताईये ?
प्रो. शर्वेश पाण्डेय जी – दरअसल क्या हुआ कि जब अंग्रेज़ आये तो उन्हें लगा कि भारत में शासन कैसे करें, तो उन्होंने दीर्घ काल तक शासन करने के लिए वहां के संसद में बहस हुई, उन्होंने कहा कि अगर हम यहाँ की शिक्षा व्यवस्था को बदल दें, इसके वैचारिक अधिष्ठान जब तक नहीं बदलेंगे तब तक यहाँ शासन नहीं कर पाएंगे । इसी का परिणाम हुआ कि उन्होंने अध्ययन किये, उनका डॉक्यूमेंटेशन किया, ये कैसे हुआ जैसे हमारे यहाँ चार्वाक का एक सिद्धांत है, जिसने जैसा देखा वैसा ही उसको मान लिया, जबकि वैसा कोई भेद नहीं था । हमारे यहाँ गिलहरी प्रयास था, यह गिलहरी प्रयास भारत की परम्परा का शब्द है । हम लोगों के यहाँ लोक व शास्त्र का द्वंद्व नहीं रहा है ।
बृजेश जी – हमारे क्षेत्र में बहुत सारी लोक परम्पराएं हैं, लोक कलाएं हैं, इस विषय में आपसे कुछ जानना चाहता हूँ ?
प्रो. शर्वेश पाण्डेय जी – मैंने जैसा बताया कि ये जो एक बड़ी महत्वपूर्ण बात है जो हमारी चेतना का हिस्सा है कि हम लोग समाज को सावयव ईकाई मानते हैं, जीवमान ईकाई मानते हैं । समाज कोई निर्जीव ईकाई नहीं है, उसमें जीवन होता है इसीलिए कमज़ोर लोगों का समूह भी जब खड़ा होता है वो भी ताकतवर होता है । सावयव ईकाई जब हम कहते हैं तो समाज का भी एक मस्तिष्क होता है, समझ होती है और उससे वो समाज संरचनाओं को गढ़ता है । ये जो लोक परम्पराएं हैं, लोक गीत हैं वो भी देश व काल के अनुसार वहां को जो समाज है वह अपने जीवन के अंश के रूप में इन लोक कलाओं का विकास करता है, अतः आप देखेंगे कि जैसा देश, काल होता है वैसा ही लोक गीत, लोक कलाएं, लोक नाटक होते हैं । अगर आप विदेशिया की बात करें तो भिखारी ठाकुर का जो समाज है, देश तो वही है, देश में क्या परिवर्तन हुआ कि विदेशी शासन आ गया, काल कैसे बदला जो क्षेत्र दुनिया में एक सन्देश देने वाला था, वह पाटलिपुत्र था, उसकी आर्थिक स्थिति अंग्रेजों के शासन काल में प्रभावित हुई तब वहां से पलायन शुरू होता है । तब वो जो परिवर्तन है उस लोक के काल का, उस देश का उसके कारण बिदेशिया नाटक उत्पन्न होता है । वो समाज अपने देश काल में हुए परिवर्तन के अनुसार लोक कलाओं का विकास करता है तो इस तरह से लोक कलाएं अलग-अलग आती हैं । लेकिन फिर मैं एक बात कहूँगा कि हम विविधता में एकता की बात करते हैं,वह है क्या कि एक चिति जो मूल चेतना है, उस समाज के सोचने का जो नजरिया है जैसा मैंने बताया आप कोई भी लोक कला उठा कर देखिये सबमें आपको आध्यात्मिकता का पुट मिलेगा । लोक कला का एक ही सन्देश है जो मौलिकता है वह नश्वर है, जो भाव है, जो आध्यात्मिकता है, इसलिए हमारे यहाँ सबसे अधिक मोक्ष को महत्व दिया गया । मोक्ष तो भौतिकता में है ही नहीं, यह तो त्याग का विषय है । इसे ही कहा जाता है कि लोक कलाएं, लोक गीत ये संरचना है, ये समाज द्वारा विकसित हुई, इसके पहले विचार है, इसके पहले चेतना होती है । चिति होती है, चिति ये तय करती है कि किन चीजों को स्वीकार करना है, किन चीजों को अस्वीकार करना है । हमारे यहाँ चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष हैं, उसमें हमारे यहाँ मूल आधार धर्म है व चरम मोक्ष है । धर्म व मोक्ष से अनुशासित अर्थ व काम को महत्व दिया गया है । जब धर्म का अनुशासन अर्थ व काम से हटता है तो मोक्ष के मार्ग में स्खलन होता है, मोक्ष में बाधा उत्पन्न होती है । ये भारतीय ज्ञान परम्परा की मूल संरचना है । ये आपको सभी लोक कलाओं में देखने को मिलेंगी ।
बृजेश जी – सर राष्ट्रचेतना में लोकसाहित्य का क्या महत्व है?
प्रो. शर्वेश पाण्डेय जी – जब राष्ट्रियता की बात हम लोग करते हैं तो राष्ट्र में कई चीजें आती हैं।जैसे जो भारत की राष्ट्रीयता सांस्कृतिक चेतना का विषय है और उसमें जो भारतीय परंपरा का कहें जो हमारी चिति है उसको राष्ट्र की आत्मा के रुप में स्वीकार किया गया है । लेकिन पश्चिम का जो राष्ट्रवाद आया उसके कारण हमारे राष्ट्र को भी देखने की गलत परंपरा आ गयी । हम राष्ट्र को तात्कालिक राजसत्ता द्वारा शासित भौगोलिक क्षेत्र के रुप में देखने लगे, ऐसा है नहीं इसके कारण से भ्रम पैदा होता है। तो जब-जब भौगोलिक सीमाएं राष्ट्र को बांधने की कोशिश करती हैं तब-तब जो उसकी चिति है उसका प्रकटन साहित्य में होता है। कह सकते हैं जो मुख्य धारा का साहित्य है, राजसत्ता से टकराने की स्थिति में होता है, जिस पर राजसत्ता से सीधे संवाद होता है, उस साहित्य में उसका प्रकटन कई बार नहीं हो पाता है। मैं इसका उदाहरण दूंगा कि आप लोगों को अवसर मिले तो 1857 के मई के अखबार को देखिए। मैंने भारत मित्र अखबार पढ़ा है, जब दिल्ली गया था और त्रिमूर्ति भवन में लाईब्रेरी में जाकर देखा,मैं खोज रहा था कि 1857 की क्रान्ति का कहीं जिक्र मिल जाय,9-10-11 मई के पूरे अखबार में कहीं 1-2 पंक्ति तक की सूचना भी नहीं थी इतनी बड़ी क्रान्ति के बारे में। ऐसा क्यों हुआ क्योंकि जो अखबार निकल रहे थे उनका सीधा सत्ता से संवाद था । सत्ता का कई बार कह सकते हैं अंकुश था, तो अंकुश होने के कारण जो मुख्य धारा का साहित्य था उसमें उस चिति का प्रकटन नहीं होता है, लेकिन जो लोक है उस पर कोई नियन्त्रण नहीं है। इसलिए जो लोक साहित्य है उसमें उस चिति का बहुत ही सुन्दर प्रकटन होता है और ये प्रकटन 1857 के आसपास जितने भी लोकगीत हैं, आज भी बहुत सारे जगहों पर पुराने लोकगीत जो मिल जाएंगे उसमें बड़ी बेबाकी, गौरव के साथ उसका प्रकटन हुआ है। इसलीए मैं कहता हूं कि लोक ही राष्ट्र को खड़ा करता है,जो लोक की चिति है वही राष्ट्र की आत्मा है।
बृजेश जी – इस महीने के आखिरी में अखिल भारतीय लोक साहित्य का जो लोकरंग कार्यक्रम होना है उसके विषय में विस्तार से प्रकाश डालें ?
प्रो. शर्वेश पाण्डेय जी –देखिये हमारे बौद्धिक कार्य-कलाप सिमट कर रह गए थे । जैसे हम लोग साहित्यिक आनन्द तो लेते थे किन्तु जब हम मीडिया के माध्यम से इसे समाज में लेकर जाते हैं तब समाज में इसका संचार होता है और एक व्यापक प्रभाव खड़ा होता है । बहुत दिनों से मेरे मन में था कि जब लोगों के पास पैसा नहीं था तब भी बड़े-बड़े कार्यक्रम होते थे तो आज जब सबके पास पैसा है तो हम मऊ में एक बढ़िया सांस्कृतिक कार्यक्रम क्यों नहीं कर सकते। इसी को लेकर हम साहित्यकार मित्रों ने मिलकर तय किया कि एक बड़ा आयोजन किया जाए तथा पूरे आधुनिक माध्यमों का उपयोग करते हुए इसे लोगों तक पहुँचाया जाये । तो दो दिवसीय कार्यक्रम जिसे हमने अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य संगम नाम दिया है 27-28 फरवरी को होगा। पहला दिन अखिल भारतीय भोजपूरी कवि सम्मेलन तथा दूसरे दिन लोक रंगोत्सव कार्यक्रम होंगे ।