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कविता – प्रेम

Posted on July 16, 2024

डॉ अन्नपूर्णा श्रीवास्तव

पटना बिहार

प्रेम! प्रेम! प्रेम!

आखिर क्या है… प्रेम…?

क्या इसकी व्याख्या हो सकती…?

शायद नहीं…!

यह, देह- सीमा, देश- काल, शब्द – भाव-

सबसे परे है…!

एक अद्वितीय अनुभूति…

शायद “गूँगे का गुड़” – सा

संगीत के सुर- सा…

ईश्वर के निर्गुण रूप की परिणति-

यह प्रेम ही तो है…!

“विनु पद चलहिं सुनहिं बिनु काना

कर बिनु करम करहिं विधि नाना”

सम्पूर्ण सृष्टि के कार्य- व्यापार का आधार –

यह, प्रेम ही तो है…!

युग – युग से सृष्टि – चक्र चलता आ रहा –

एक आकर्षण – बीज –

सर्वत्र प्रस्फुटित होता –

मचलता… संभलता आ रहा…

कैसे…? क्यूँ…?

कहना है मुश्किल…!

पर है, अवश्य…कुछ…

‘वह’ जो है अवर्णनीय…अद्वितीय… अकथनीय…!

समझ पाना है मुश्किल…!

इसे ढूँढना है….

‘खुद में ढूँढो’…!

मिल गया अगर,

तो तुमने पा लिया- दुर्लभ…!

क्योंकि, उसका परावर्तित रूप ही-

सृष्टि के कण- कण में…

असीम अबाध –

 आनंद – रूप में है सुलभ!!!

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