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गीत- नहीं तुम वृक्ष काटना

Posted on June 17, 2024

कवियित्री- प्रीति चौधरी”मनोरमा”

मनुज नहीं तुम वृक्ष काटना,

 ये ही देते हैं छाया।

 हरी भरी है इनसे धरती,

ये जीवों का सरमाया ।।

नीड़ बनाते इन पर पक्षी,

 ये ही तो उनका घर हैं।

 आश्रय पाते इनमें ये खग,

 वृक्ष बने ये सहचर हैं।

 लालच में अंधे हो करके,

 हाथ कुल्हाड़ी ले ली क्यों?

भौतिकवादी इस कलयुग में ,

सबको प्यारी है माया।

 मनुज नहीं तुम वृक्ष काटना,

 ये ही देते हैं छाया।

 हे निष्ठुर! हे क्रूर मनुज! तुम,

 क्यों पीड़ा के हो दाता।

 क्यों आखिर तरुओं को काटो,

किंचित तरस नहीं आता।

 जीवन कई लील लेते हो,

 तुमको कब पीड़ा होती?

 बढ़ते हाथों का रुक जाना,

 तुमको कभी नहीं भाया।

 मनुज नहीं तुम वृक्ष काटना, 

ये ही देते हैं छाया।।

तुम्हें चाहिए रोज़ी रोटी,

तुम्हें दर्द का क्या अनुभव?

चाहे उजड़े बया घोंसला,

करुण करे कोई कलरव।

लाभ-हानि में जीने वाले,

क्या जानें परहित क्या ?

भूख मिटाना ध्येय रहा है,

भटक रही यूँ ही काया।

मनुज नहीं तुम वृक्ष काटना,

ये ही देते हैं छाया।

तुम कब समझो पीर विटप की,

कहाँ देखते खग क्रंदन।

पाषाणों में रहने वाले,

हृदय करे कब स्पंदन।।

प्रस्तर में तुम खोजो ईश्वर,

नहीं उसे पहचान सके।

सदियों से तुम भू के शासक,

जीव जंतु हर घबराया।

मनुज नहीं तुम वृक्ष काटना,

ये ही देते हैं छाया।

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