प्रो. सरस्वती पी सती
सुप्रसिद्ध भू-पर्यावरणविद्
प्रोफेसर, वीर चंद्र सिंह गढ़वाली उत्तराखंड औद्यानिकी
और वानिकी विश्वविद्यालय, उत्तराखंड
प्रसिद्ध भू-पर्यावरणविद् डॉ एस पी सती जी हिमालय के पर्यावरणीय मुद्दों पर एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक आवाज हैं..आपके पास 30 वर्षों से अधिक का शोध और शिक्षण अनुभव है, आपके अनुसंधान के मुख्य क्षेत्र विभिन्न पृथ्वी की सतह प्रक्रियाएं और हिमालयी क्षेत्रों में उनके परिणाम, विकासात्मक परियोजनाएं और उनके परिणाम, भूकंपीय प्रक्रियाएं आदि हैं। डॉ. सती के 70 से अधिक शोध पत्र अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय ख्याति के विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। डॉ. सती ने 3 पुस्तकों का भी संपादन किया है.. आपने विभिन्न पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में 500 से अधिक लोकप्रिय लेख प्रकाशित किए हैं.. डॉ. सती विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समाचार चैनलों में लिखते रहे हैं, अपनी शैक्षणिक व अकादमिक कार्यों के अलावा, डॉ.सती ने 1994 से 2000 तक उत्तराखंड के अलग राज्य आंदोलन का नेतृत्व किया। आंदोलन के दौरान उन्हें 24 दिनों की कुल अवधि के साथ तीन बार जेल जाना पड़ा। इन व्यस्तताओं के बीच भी आप अपनी बेहद उत्कृष्ट साहित्यिक रचना यात्रा भी निरंतर जारी रखे हुए हैं ।
ग्लोबल वार्मिंग या भूमंडलीय उष्णन एक यथार्थ है, रियलिटी है। दो-तीन दशक पहले अधिकांश लोग, यहां तक कि बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी यह मानते थे की ग्लोबल वार्मिंग जैसी कोई चीज है नहीं, और यह एक बौद्धिक जुगाली का साधन है। परंतु अब यह बात साफ-साफ परिलक्षित हो चुकी है कि विश्व का तापमान लगातार बढ़ रहा है । ‘आईपीसीसी’ संस्था जो विश्व की जलवायु परिवर्तन पर विश्व भर में हो रहे शोधों का विश्लेषण कर बड़े निष्कर्ष प्रकाशित करती है, के अनुसार सन 2023 का वर्ष पिछले लगभग एक लाख साल में सबसे गर्म वर्ष रहा। यहां तक कि जून 2023से पिछले मार्च 2024तक लगातार 8 महीने में तापमान रिकॉर्ड स्तर पर बढ़ना जारी रहा। विश्व का औसत तापमान इस दौरान सामान्य से सामान्य से 0.2 डिग्री सेंटीग्रेड अधिक था जो की बहुत ही असामान्य था ।
ग्लोबल वार्मिंग क्या है?
आइए इस तथ्य को एक उदाहरण से समझते हैं। किसी ठंडे स्थान पर एक कार जाड़ों में धूप में खड़ी हो। हम इस गाड़ी के अंदर बैठें तो बाहर की अपेक्षा गाड़ी के अंदर हमें अधिक महसूस होता है। ऐसा क्यों? धूप तो बाहर भी पड़ रही है और अंदर भी। तो फिरगाड़ी के अंदर अधिक गर्मी महसूस क्यों होती है? इसका कारण यह है की सूरज से आने वाली लघु तरंगदैर्घ्य का विकिरण यानि कि ( short wave radiation) के रूप में ऊष्मा कांच से गाड़ी के अंदर प्रवेश कर जाती है और गाड़ी के अंदर के माहौल को गरम कर देती है। इस दौरान यह विकिरण गर्मी के रूप में दीर्घ तरंगदैर्घ्य याने कि (long wave radiation) में परिवर्तित हो जाती है। ये परिवर्तित दीर्घ तरंगदैर्घ्य विकिरण गाड़ी के कांच से वापस बाहर नहीं आ सकता और अंदर ही फंस जाता है । इस तरह लगातार धूप में खड़ी रहने से काँचों के रास्ते गाड़ी के अंदर प्रवेश कर रही ऊष्मा अंदर ही फंस कर रह जाती है और गाड़ी को गरम करती रहती हैं । ठीक इसी तरह सूर्य से आने वाला लघु तरंगदैर्घ्य वाला विकिरण धरती पर टकराकर दीर्घ तरंगदैर्घ्य के रूप में परिवर्तित हो जाता है । कायदे से इस विकिरण को उतनी ही मात्रा में अंतरिक्ष को परावर्तित हो जाना चाहिए।जिससे पृथ्वी का औसत तापमान लगातार एक जैसा बना रहता। अगर पृथ्वी के वायुमंडल में दीर्घ काल से गैसों का बना संतुलन पहले जैसा बना रहता तो ऐसा होता भी रहा है। हम जानते हैं कि पृथ्वी पर समस्त क्रियाकलापों का कर्ता-धर्ता सूर्य है । सूर्य से ही आने वाली ऊष्मा अथवा ऊर्जा के कारण वायुमंडल की गतिविधियां चलती हैं, जैव मंडल का अस्तित्व है, समुद्र है, तो वर्षा है; यानी की पृथ्वी की सतह और सतह के ऊपर वायुमंडल में होने वाली समस्त जैविक अजैविक गतिविधियों का कर्ता सूर्य है। यह सभी गतिविधियां सूर्य की प्रकाश के कारण ही संभव हैं। लेकिन यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है की इन समस्त क्रियाकलापों में सूर्य की प्राप्त ऊर्जा का एक से दूसरे रूप में परिवर्तित होना-क्रियाकलाप निपटाना और फिर उस ऊर्जा का उतनी ही मात्रा में वापस अंतरिक्ष चले जाना अनिवार्य होता है। लेकिन पिछले डेढ़ सौ वर्षों से पृथ्वी वायुमंडल में कुछ गैसों की मात्रा लगाता बढ़ने लगी है। ये गैसें जिनमें कि कार्बन डाइऑक्साइड याने कि co2 सबसे प्रमुख है, कार के कांच की तरह व्यवहार करती हैं। co2 का वायुमंडल में सामान्य स्तर 0.03% होता है। अगर उसकी मात्रा में वृद्धि होती है co2 की परत दीर्घ तरंगदैर्घ्य वाले विकिरण को वायुमंडल से बाहर अंतरिक्ष में नहीं जाने देती । इस तरह से सूर्य से लगातार या रही ऊष्मा का अधिकांश भाग पृथ्वी के वातावरण में ही फंस कर रह जाती है। इस तरह पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ने लगा है। कार्बन डाइऑक्साइड की अधिक उत्सर्जन से इसका स्तर वायुमंडल में बढ़ रहा है । यही ग्लोबल वार्मिंग है
क्यों बढ़ता है विश्व का तापमान बढ़ाने वाली गैसों का स्तर??
सवाल यह उठता है कि क्या कारण है ऐसी गैसों का स्टार बढ़ाने का जिनकी वजह से विश्व का तापमान बढ़ रहा है ?
जैसे की पहले ही बताया जा चुका है इन गैसों में सबसे बड़ा योगदान कार्बन डाइऑक्साइड, का है, उसके बाद क्लोरो फ्लोरो कार्बन और मीथेन का प्रमुख योगदान है, पर लगभग दो तिहाई योगदान तो कार्बन डाइऑक्साइड का हो है।
प्रश्न यह उठता है कि कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन अब अधिक मात्रा में क्यों होने लगा? सांस तो सभी जीव जंतु पहले भी लेते थे जिसमें CO2 का उत्सर्जन होता ही था। लकड़ियाँ भी पहले से ही जलाई जाती थी ईंधन के लिए। जंगल भी जलते थे। असल में जितनी भी co2 उत्सर्जित होती थी, वो पेड़ पौधों द्वारा भोजन बनाने में उपयोग में लाई जाती थी और पौधे भोजन बनाने की प्रक्रिया में co2 का उपयोग करते हैं और इस गतिविधि में आक्सीजन गैस छोड़ते हैं। इस तरह अधिक मात्रा में उत्सर्जित co2 पौधों द्वारा उपयोग में लाई जाती थी लिहाजा इसकी मात्रा वायुमंडल में स्थिर बनी रहती थी।
इस साम्य में परिवर्तन आया औद्योगिक क्रांति के बाद। उद्योगों के लिए ऊर्जा की जरूरत को पूरा करने के लिए जीवाश्म ईंधन याने कि कोयला और पेट्रोलियम का जारण किया जाने लगा। साथ ही जंगलों का अंधाधुंध काटान किया जाने लगा। यानी कि अब कार्बन डाइऑक्साइड अधिक मात्रा में उत्सर्जित हो रहा है। इससे वातावरण में co2 की मात्रा बढ़ने लागि जोकि लगातार जारी है। । यही कारण है कि वर्तमान ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य कारण औद्योगिक क्रांति को माना ही जाता है। co2 के अतिरिक्त मेथैन और क्लोरो फ़्लोरो कार्बन गैसें भी ग्लोबल वार्मिंग की जिम्मेदार हैं। परंतु अपेक्षाकृत इनका योगदान कम है और ये भी मुख्यतः औद्योगिक क्रांति के ही उत्पाद हैं।
ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभाव
ग्लोबल वार्मिंग के भयानक दुष्प्रभाव सामने आ रहे हैं। ध्रुवों में विद्यमान बर्फ अधिक मात्रा में पिघल रही है तो हिमालय जिसे अधिक बर्फ की मौजूदगी के कारण तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है, में विद्यमान बर्फ बहुत तेजी से पिघल रही है, इस अतिरिक्त पिघलती बर्फ के कारण समुद्र का जलस्तर घातक स्तर तक बढ़ रहा है । वैज्ञानिकों का अनुमान है की ऐसी दशा में महासागरों के बीच कई द्वीपों का अस्तित्व मिट जाएगा और कई तटीय शहर जिनमें कि हमारे चेन्नई और मुंबई जैसे कई शहर हैं, का अस्तित्व भी संकट में आ रहा है। हिमालय की अधिकांश नदियों का अस्तित्व निकट भविष्य में मीट सकता है। ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव केवल यही तक सीमित नहीं है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके कारण मौसमों में उथल-पुथल देखी जा रही है। पूरे विश्व स्तर पर क्षेत्रीय सामयिक विस्तार में बर्फ और बारिशों में असामान्य परिवर्तन दृष्टिगत होंगे। मसलन गर्मियों के महीने में जून के तृतीय सप्ताह जुलाई अगस्त और सितंबर के प्रथम सप्ताह तक में उत्तर भारत में जो मानसूनी बारिश होती है उनका मिजाज बदलते हुए दिख रहा है। अब या तो सितंबर आखरी सप्ताह और अक्टूबर के तृतीय सप्ताह तक भी मानसून की बारिश जारी रह रही है और या फिर जून के प्रथम सप्ताह और मई से ही मॉनसून की बारिशें होती देखि जा रही हैं। । इसके अतिरिक्त जहां बारिश नहीं होती थी मसलन पश्चिम क्षेत्र में गुजरात और राजस्थान के मरुस्थलों में जहां मॉनसून की बारिश कम होती थी या फिर लेह लद्दाख और उच्च हिमालय क्षेत्र में जहां मॉनसून की बारिश न के बराबर होती थी, वहां भी भयानक अतिवृष्ट की घटनाएं घटित हो रही हैं। सन 2010 में लेह की अति वृष्टि हो या फिर 2013 की केदारनाथ क्षेत्र की अतिवृष्टि 2021 और 2022 में उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में अक्टूबर के तृतीय सप्ताह में होने वाली अतिवृष्टि जनित आपदा की घटनाएं इस तरह के कुछ उदाहरण भर हैं।
उत्तर भारत में वर्षा मुख्यतः दो सिस्टमों के कारण होती है एक जो गर्मियों दक्षिण पश्चिम मानसून की सक्रियता के कारण और जाड़ों में पश्चिमी विक्षोभ की सक्रियता के कारण। कुल मिलाकर दो मॉइश्चर सिस्टम काम करते हैं। परंपरागत रूप से पश्चिमी विक्षोभ की अधिकांश बारिशें जाड़ों में ही होती थी और गर्मियों में मानसून के कारण। गर्मियों में पश्चिमी विक्षोभ की सक्रियता नगण्य होती थी। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग से जनित दुष्प्रभावों के कारण पिछले 20 सालों में गर्मियों में पश्चिमी विक्षोभ की तादाद बढ़कर दुगनी हो गई। यह देखा जा रहा है कि मौसम जनित बड़ी आपदा का खासकर हिमालय में मुख्य कारण पश्चिमी विक्षोभ और दक्षिण पश्चिम मानसून का एक साथ सक्रिय होना है। चाहे वह 2013 की केदारनाथ आपदा हो 2022 और 2023 की कुमाऊं क्षेत्र की आपदा हो या फिर 2024 की हिमाचल की अतिवृष्टि जनित आपदा हो, इन सभी आपदाओं में मानसून के साथ-साथ पश्चिमी विक्षोभ की सक्रियता का योगदान रहा है ।
वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है की ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य प्रभाव तटीय क्षेत्र और हिमालय जैसे उच्च पर्वत श्रृंखलाओं में अन्य क्षेत्रों से अधिक परिलक्षित होता है।हिमालय में ग्लोबल वार्मिंग की रफ्तार विश्व के किसी भी अन्य क्षेत्र से दुगनी पाई गई है। मसलन सन 2022 में प्रतिष्ठित शोध पत्रिका साइंस में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार वैश्विक तापमान वृद्धि जहां 0.16 डिग्री प्रति दशक है वहीं हिमालय में यह वृद्धि दर 0.32 डिग्री है याने कि दुगुनी। यह भी पाया गया है कि साल में जहां अब काम दिनों में बारिश होती है वहीं अतिवृष्टि की घटनाओं में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। इसके कारण सम्पूर्ण हिमालय में आपदाओं कि संख्या में काफी वृद्धि हुई है।
नेचर जिओसाइंस नामक प्रतिष्ठित शोध पत्रिका में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, बारिशों के मिजाज में इस परिवर्तन के कारण और ग्लेसियारों के तेजी से पिघलने के कारण सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र के बांधों की सुरक्षा को भयानक खतरा उत्पन्न हो गया है। जिसके कारण निचले क्षेत्रों की बस्तियों पर भी संकट उत्पन्न हो गया है।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारत सहित सम्पूर्ण विश्व में हीट वेव्स की घटनाओं में आसातीत वृद्धि हुई है। सन 2022 में पाकिस्तान में आई भयानक बाढ़ का कारण हीट वेव्स को ही माना जा रहा है। हीट वेव्स के कारण हिमालायी क्षेत्रों में बर्फ तेजी से पिघली जिससे पाकिस्तान को जाने वाली सिंधु नदी में अभूतपूर्व बाढ़ आई।
भारत में ग्लोबल वार्मिंग का असर की अन्य रूपों में देखने को मिल रहा है। खेती की उत्पादकता काम हो रही है, नई नई बीमारियाँ पैर पसार रही हैं। बाढ़ों और चक्रवातों की संख्या और विराटता बढ़ रहे हैं जिससे प्रतिवर्ष बड़े पैमाने पर जन धन हानी हो रही है।
ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने के वैश्विक स्तर पर अभी तक किए जा रहे प्रयास लगभग बेअसर साबित हो रहे हैं। विश्व के देशों में इसके लिए उठाए जाने वाले संभावित कदमों को लेकर गहरे मतभेद हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि मानवता के अस्तित्व के संकट को देखते हुए सभी देश मिल कर जल्दी ही कुछ ठोस कदम उठायेंगे।
जहां तक हमारे देश का सवाल है तो राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर इस मामले को लेकर बहुत कारगर कदम तो अभी तक नहीं उठाए गए हैं। हालांकि पर्यावरण एव वन मंत्रालय का नाम बदल कर इसे पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय कर दिया गया है। परंतु वाहनों की संख्या में अनियंत्रित वृद्धि, हिमालायी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर छेड़-छाड़, अंधाधुंध सड़कों का निर्माण, ऊर्जा के रूप में फासल फ्यूल का विकल्प तलाशने पर गंभीरता से काम न करना सरकारों की नियत पर सवाल खड़े कर्ता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मुद्दे कि संवेदनशीलता को देखते हुए सरकारें जल्दी ही ठोस कदम उठायेंगी।