Skip to content
वीथिका
Menu
  • Home
  • आपकी गलियां
    • साहित्य वीथी
    • गैलिलियो की दुनिया
    • इतिहास का झरोखा
    • नटराज मंच
    • अंगनईया
    • घुमक्कड़
    • विधि विधान
    • हास्य वीथिका
    • नई तकनीकी
    • मानविकी
    • सोंधी मिटटी
    • कथा क्रमशः
    • रसोईघर
  • अपनी बात
  • e-पत्रिका डाउनलोड
  • संपादकीय समिति
  • संपर्क
  • “वीथिका ई पत्रिका : पर्यावरण विशेषांक”जून, 2024”
Menu

शिवोहम! शिवोहम !

Posted on April 19, 2024

रश्मि धारिणी धरित्री

प्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं साहित्यकार, लखनऊ

सुधि जनों को धारित्री धारिणी का सस्नेह वंदन

होली बीती फाल्गुन के रंगों में झूम कर बसंत की मदमाती सुगंध हवा में बिखेर कर। बौर से लदे आम के वृक्ष ही नहीं, झाड़-झंकाड वाले खरपतवार भी झूम-झूम कर रँग-बिरंगे फूलोँ से खेतों के किनारे, जंगलों में, तालाबों, नदियों के किनारे पल्लवित हो रहे हैं। मैदानों में जहाँ सेमल, टेसू, गुलमोहर, अमलतास रँग बिखेर रहे हैं, हिमालय पर बुरांश, आड़ू, सेब, नारंगी, प्लम के फूलों से नई चित्रकारी कर रहे हैं। ग्रीष्म ऋतु चैत के आगमन के साथ अपना प्रभाव दिखा रही है। गेँहू की फसल पक चुकी है और स्त्री-पुरुष मेहनत से कटाई में पसीना बहाते काम कर रहे हैं। चैत का शिव पार्वती संवाद प्रस्तुत है :

      दूर ढाक् के जंगल में ताल किनारे हमारे शिव जी ध्यान मग्न हैं, व्यग्रता से स्वेद बिंदु स्पष्ट हैं। पार्वती चिंतित हो कर अपना आँचल जल से भिगो कर उनको शीतलता देने का असफल प्रयास कर रही हैं।  बहुत कहने पर भी कैलाश प्रस्थान नहीं हुआ, मायके की याद आती है और वहाँ भी जाने नही दे रहे।

“सुने नाथ !”           

ध्यान से बाहर आ के शिव जी बोले “हाँ प्रिये !”

“बहुत से प्रश्न हैं उनका समाधान करें स्वामी”

“एकाएक इस बढ़ती तपन का क्या कारण है। अभी नंदी बता गए हैं हिमालय पर बहुत अफरा-तफ़री मची है। गुल्दारों का आतंक मचा है, लोग भयभीत हो कर घरों में बंद हो रहे हैं। और घर भी सुरक्षित नहीं है, कहीं-कहीं दरारें आ रही है तो कहीं पूरा गाँव धसक् कर नीचे आ रहा है। मेरा जहाँ सिद्ध पीठ है वो पहाड़ी नीचे धसकती जा रही है। ऋतुओं का चक्र बिगड़ गया है।”

शिव जी बिना मुस्कुराये चिंतित स्वर मे बोले, “शृणु देवी प्रव्यक्ष्यामि, ये आपके ही संतानों  के पाप कर्म हैं जो लोभ में मेरी तपस्थली को भी नही छोड़ रहे। इनको भक्ति नहीं तीर्थ स्थल में पर्यटन चाहिए। जहाँ ये बड़ी मोटरों में आसानी से जा सकें। अंधाधुंध तरीके से अनियोजित सुरंगों का निर्माण किया जा रहा है। हिमालय कच्चे पहाड़ हैं। नीति-निर्माता पश्चिम की अंधी नकल करके रेल को हमारे-तुम्हारे पवित्र स्थलों तक ले जा रहे हैं। जहाँ-जहाँ से सुरंगे गुज़र रही हैं वहाँ भूस्लखन बढ़ गया है, उसकी आवृत्ति बढ़ती जा रही है। इन सबसे उत्पन्न शोर  हलचल, वनों की कटान, मलबे को अनियोजित तरीके से नदियों में डालना। वन्य जीवों की शान्त जीवन में खलल कर देना। ये घबरा कर इधर उधर भाग रहे हैं। इनके प्राकृतिक मार्ग बदल गए हैं, भोजन नही है तो आबादी की तरफ बढ़ रहे हैं। ये घटनाएं अनायास बढ़ी गर्मी को नियंत्रित नही कर पा रही हैं, परिणाम स्वरूप देर से हिमपात, वर्षा और फलों के पकने में देर होना। हरियाली का नष्ट होना। ऋतु चक्रों का बिगड़ना। इन्ही सब घटनाओं का प्रभाव है।

       मैं ही साक्षात् हिमालय हूँ। मैं पीड़ा का अनुभव कर रहा हूँ। मुझे तरह तरह के छिद्रों से भर दिया है। मेरा ध्यान भंग करने में लगे लोग ये नहीं जानते कि मेरा तीसरा नेत्र खुल गया तो तबाही निश्चित है। मैं पीड़ा में हूँ, इसीलिए बसंत का, नई अनाजों की फसल का आनंद नहीं ले पा रहा।

       हे पार्वती सुनों! मैं और तुम केवल मनुष्यों मे वास नहीं करते अपितु इस पूरे पारिस्थितिकी तंत्र के हर जीव-जंतु, वनस्पति सभी तत्वों में वास करते हैं। प्राचीन कथाओं से इन्होंने कुछ नहीं सीखा। जो धर्म के नाम पर अधर्म करेंगे। स्वार्थ लोभवश निरीह प्राणियों वनस्पति को सतायेंगे तो मैं इनका निश्चित रूप से विनाश करूँगा। तारकासुर के पुत्रों ने मेरी भक्ति पूजा करके त्रिपुर बसाये थे जो ब्रह्मांड के नियमों के विरुद्ध जा कर तकनीकी और विज्ञान की श्रेष्ठतम ज्ञान से ग्रहों की स्थिति बदल कर मनमाने तरीके से स्थापित किये थे। लेकिन एक भूल कर बैठे। निरीह लोगों पर अत्याचार। उनकी भक्ति पूजापाठ तपस्या कुछ काम ना आया। पृथ्वी मेरा ओजस्वी रथ बनी तो सूर्य चंद्र उसके पहिये। साक्षात हिमालय मेरे धनुष अग्नि वायु बाण। और इस तरह तीनो त्रिपुरों का एकसाथ नाश किया।

           हे अपर्णा! अगर मनुष्य जान जाए कि आसुरी राक्षसी हों या दैवीय प्रवृत्ति सब हमारे अंदर ही है, तो उसको नियंत्रण किया जा सकता है। ये चेतना तो मनुष्य को स्वयं लानी होगी। जो चैतन्य हैं और साक्षात विनाश का भविष्य देख रहे हैं वो दुखी हैं बाकी सब मदमस्त हैं अपने मूलाधार चक्र में फंसे हुए। इनकी चेतना ही सृष्टि बचा सकती है और संसार को बचाने का एकमात्र उपाय है करुणा जो चेतना से ही जन्म लेता है। करुणा जब पिघलती है तो धरती पर राम बन कर अवतरित होती है।

इति शिव पार्वती संवाद

शुभ राम नवमी

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Recent Posts

  • वीथिका ई पत्रिका का मार्च-अप्रैल, 2025 संयुक्तांक प्रेम विशेषांक ” मन लेहु पै देहु छटांक नहीं
  • लोक की चिति ही राष्ट्र की आत्मा है : प्रो. शर्वेश पाण्डेय
  • Vithika Feb 2025 Patrika
  • वीथिका ई पत्रिका सितम्बर 2024 ”
  • वीथिका ई पत्रिका अगस्त 2024 ” मनभावन स्वतंत्र सावन”
©2025 वीथिका | Design: Newspaperly WordPress Theme