डॉ नमिता राकेश
वरिष्ठ साहित्यकार एवं राजपत्रित अधिकारी,
भारत सरकार
नव वर्ष विक्रम संवत का इतिहास अति प्राचीन होने के साथ-साथ सनातन संस्कृति के लिए बहुत महत्वपूर्ण है । इसमें तिथि और नक्षत्र का सटीक और सही स्पष्टीकरण है, गणित की दृष्टि से देखा जाए तो यह सबसे स्पष्ट और शास्त्रीय विधि के अनुसार है । विक्रम संवत की शुरुआत सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने की थी । विक्रम संवत में महीना के नाम और तिथि की गणना सूर्य और चंद्रमा की गति पर आधारित है साथ ही विक्रम संवत पूर्णतया वैज्ञानिक है । विक्रम संवत का इतिहास और विक्रम संवत दोनों आज के समय में बहुत महत्वपूर्ण है जहां इसका इतिहास हमारे लिए गौरव की बात है वहीं दूसरी तरफ विक्रम संवत आज के ज्योतिषियों के लिए रामबाण है, इसी के आधार पर ज्योतिषी सभी निर्णय लेते हैं । हिंदू धर्म में सभी कार्यों की शुरुआत और उनका मुहूर्त विक्रम संवत पर आधारित होता है । विक्रम संवत एक कैलेंडर है जो उज्जैन के महाराजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य द्वारा आज से लगभग 1279 वर्ष पूर्व विक्रम संवत के रूप में प्रारंभ किया गया था । विक्रम संवत के अनुसार ही चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा से नव वर्ष मनाया जाता है । हिंदू नव वर्ष के रूप में यह दिन संपूर्ण भारत में आज भी मनाया जाता है देश के अलग-अलग कोने में इस दिन को अलग-अलग नाम से जाना जाता है जैसे कि गुड़ी-पड़वा आदि ।
सृष्टि का जब आरंभ हुआ उसे दिन चैत्र का दिन था जो हिंदू नव वर्ष तथा अंग्रेजी महीने के मार्च-अप्रैल में पड़ता है जैसा कि हमारे धर्मग्रंथो में वर्णित है, यानी चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि अर्थात प्रतिपदा को सृष्टि का आरंभ माना गया है । हमारा नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को शुरू होता है, इस दिन ग्रह और नक्षत्र में परिवर्तन होता है । हिंदी महीने की शुरुआत इसी दिन से होती है, इसी को आधार मानकर भारत में शास्त्रीय वित्त वर्ष भी अप्रैल यानी चैत्र मास से आरंभ होता है । यह दिन सृष्टि या यूँ कहे युग का प्रारंभिक दिन है, इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था । भगवान विष्णु जी का प्रथम अवतार भी इसी दिन हुआ था । नवरात्रि की शुरुआत इसी दिन से होती है जिसमें हम लोग उपवास करते हैं । यह नया साल विक्रम संवत का संबंध हमारे कालचक्र से ही नहीं बल्कि हमारे साहित्य और जीवन जीने की विविधता से भी है। चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तिथि के नवें दिन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम का जन्म हुआ था। इसी माह में श्री राम मानव का रूप धारण कर धरती पर आए थे । पेड़-पौधों पर पुष्प मंजरी एवं कलियां इसी समय आना शुरू होते हैं। वातावरण में एक नई गन्ध तथा उल्लास छा जाता है जो मन को आह्लादित करता है। मानव जीवन में धर्म के प्रति आस्था बढ़ जाती है ।
चैत्र मास का वैदिक नाम मधुमास भी है अर्थात बसंत का महीना । ऐसे तो बसंत फागुन में आता है पर पूरी तरह से चैत्र में पूरे वातावरण पर छा जाता है। सभी वनस्पतियां और सृष्टि इसी के आसपास प्रस्फुटित होते हैं। पक्के एवं मीठे अन्न के दानों के रूप में आम की मंजरी की लुभाती खुशबू के रूप में यह महीना प्रकृति में सुकून बिखेरता है । यह महीना कन्याओं और सुहागानों के हाथ की चूड़ियों तथा बसंत में कोयल की कूक गूंजती है। यह वही समय है जब नई फसल घर में आती है । इसी समय प्रकृति में गर्मी बढ़ने लगती है । पेड़ पौधों व जीव जंतुओं में नवजीवन का संचार होता है । लोग मदमस्त होकर आनंद में मंगल गीत गुनगुनाने लगते हैं । प्रकृति में चारों ओर पकी हुई तैयार फसल का दर्शन उत्साह को जन्म देता है । खेतों में किसानों की हलचल, फसलों की कटाई, हंसिया का खर-खर करता मंगलमय स्वर और खेतों में हंसी की ठिठोली एवं मजाक करती आवाजें भारत की आभामंडल के चारों ओर छा जाती हैं ।
यह हिंदू नव वर्ष एक उत्सव की तरह पूरे विश्व में अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग तिथियों तथा विधियों से मनाया जाता है । विभिन्न संप्रदायों के नव वर्ष समारोह भिन्न-भिन्न होते हैं। उसके महत्व की भी विभिन्न संस्कृतियों में परस्पर विभिन्नता है ।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का ऐतिहासिक महत्व यह है कि इसी दिन जगत पिता ब्रह्मा ने सूर्योदय से सृष्टि की रचना आरंभ की। सम्राट विक्रमादित्य ने इसी दिन अपना राज्य स्थापित किया। इन्हीं के नाम पर विक्रमी संवत का पहला दिन प्रारंभ होता है। सिखों के द्वितीय गुरु श्री अंगद देव जी का जन्म इसी दिन हुआ था। शक्ति और भक्ति के 9 दिन अर्थात नवरात्र का पहला दिन भी यही है । सिंध प्रांत की प्रसिद्ध सामाजिक रक्षा वरुण अवतार भगवान झूलेलाल इसी दिन प्रकट हुए थे । राजा विक्रमादित्य की भांति शैली वाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करते हुए यही दिन चुना तथा विक्रम संवत की स्थापना की । युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था । राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉक्टर केशव राव बलिराम हेडगेवार का जन्म इसी दिन हुआ था। महर्षि गौतम जयंती भी इसी दिन होती है । आर्य समाज की स्थापना भी इसी दिन हुई थी।
अब हम अगर पश्चिमी नव वर्ष की बात करें तो रोम के तानाशाह जूलियस सीजर ने ईसा पूर्व 45 में वर्ष में जब जूलियन कैलेंडर की स्थापना की उस समय विश्व में पहली बार 1 जनवरी को नए वर्ष का उत्सव मनाया गया ।
भारतीय नव वर्ष पूरे भारत के विभिन्न हिस्सों में नव वर्ष अलग-अलग तिथियां को मनाया जाता है । वह तिथि मार्च और अप्रैल के महीने में पड़ती है । पंजाब में नया साल बैसाखी नाम से 13 अप्रैल को मनाया जाता है, बंगाली तथा तमिल नव वर्ष भी इसी तिथि के आसपास आता है । तेलुगु का नया साल मार्च अप्रैल के बीच में आता है। आंध्र प्रदेश में इसे उगादि जो युग आदि का अपभ्रंश है के रूप में मनाते हैं। यह चैत्र महीने का पहला दिन होता है । तमिलनाडु में पोंगल 15 जनवरी को नए साल के रूप में आधिकारिक तौर पर भी मनाया जाता है। कश्मीरी कैलेंडर नव रहे 19 मार्च को होता है, महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के रूप में मार्च अप्रैल के महीने में मनाया जाता है । कन्नड़ नया वर्ष उगादि, कर्नाटक के लोग चैत्र माह के पहले दिन को मानते हैं। सिंधी उत्सव चेती चंद, उगादि और गुड़ी पड़वा एक ही दिन मनाया जाता है। मदुरई में चैत्र महीने में चित्रयी तिरुविजा नए साल के रूप में मनाया जाता है । मारवाड़ी नया साल दीपावली के दिन होता है । गुजराती का नया साल दीपावली के दूसरे दिन होता है । इसी दिन जैन धर्म का नववर्ष भी होता है । बंगाली नया साल पोहेला बैसाखी 14 या 15 अप्रैल को आता है। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में इसी दिन नया साल होता है ।
अब अगर बात करें भारतीय नव वर्ष के प्राकृतिक महत्व की तो यह बताना उल्लेखनीय होगा कि चैत्र प्रतिपदा से ही वसंत ऋतु का आरंभ होता है जो उल्लास उमंग खुशी और चारों तरफ पुष्पों की सुगंध से भरी होती है फसल पकने का प्रारंभ महीना होता है यानी किसानों की मेहनत का फल मिलने का यही समय होता है। नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात किसी भी कार्य को का प्रारंभ करने के लिए शुभ मुहूर्त होता है ।
अब सवाल यह उठता है कि भारतीय नव वर्ष मनाए कैसे—?
हम भारतीय नव वर्ष एक दूसरे को नववर्ष की शुभकामनाएं दे सकते हैं। पत्रक बांटे, झंडा, बैनर आदि लगाए । यज्ञ करें । मंत्र उच्चारण के साथ अपना नया वर्ष आरंभ करें । अपने परिचितों मित्रों को नववर्ष शुभ संदेश भेजें । इस मांगलिक अवसर पर अपने-अपने घरों को साफ सुथरा रखें । अपने घरों के द्वार पर फूलों तथा आम के पत्तों की बन्दनवार से सजाएं। घरों एवं धार्मिक स्थलों की सफाई कर रंगोली तथा फूलों से सजाएं। इस अवसर पर धार्मिक तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन करें। तथा इसमें भाग ले । प्रतिष्ठित संस्थाओं की साज सज्जा एवं इससे संबंधित प्रतियोगिताओं का आयोजन करें । इस दिन महत्वपूर्ण देवताओं महापुरुषों से संबंधित प्रश्न मंच का आयोजन करें । वाहन रैली कलश यात्रा, विशाल शोभा यात्रा, कवि सम्मेलन, भजन संध्या, मां आरती आदि का आयोजन करें । भागवत कथा का भी हम लोग आयोजन कर सकते हैं । चिकित्सालय गौशाला में वृद्ध आश्रम में अनाथालय में दान और रक्तदान जैसे कार्यक्रम आयोजित करें।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार भगवान द्वारा सृष्टि को बनाने में 7 दिन लगे थे इस 7 दिन के संगम के बाद यह नया वर्ष आता है ।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विक्रम संवत का इतिहास अति प्राचीन होने के साथ-साथ सनातन संस्कृति के लिए बहुत महत्वपूर्ण है । इसमें तिथियों और नक्षत्र का सही और सटीक स्पष्टीकरण है, गणित की दृष्टि से देखा जाए तो यह सबसे स्पष्ट है किसी नए संवत को चलाने की एक साथ से विधि होती है जिसके अनुसार अन्य कार्य प्रभावित होते हैं । अब यह जाने की विक्रम संवत की शुरुआत कैसे हुई थी जिसके बारे में एक कहानी अत्यधिक प्रचलित है। भारतीय इतिहास में उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है, विक्रम संवत की शुरुआत की संपूर्ण कहानी महाराजा विक्रमादित्य से जुड़ी हुई है। एक न्याय प्रिय राजा होने के साथ-साथ महाराजा विक्रमादित्य प्रजा प्रेमी थे उनके समान भारत के विशाल भूभाग पर विदेशी शकों का शासन था । शक शासकों के बारे में कहा जाता है कि वे बहुत ही निर्दयी और क्रूर थे यह अपने दुश्मनों के साथ-साथ आम जनता तथा प्रजा पर भी बहुत अत्याचार करते थे। जब महाराजा विक्रमादित्य यह देखते थे तो उन्हें बहुत कष्ट होता था । विक्रमादित्य ने कैसे भी करके शकों को भारत से खदेड़ने की योजना बनाई । नेक इरादे से किए गए काम में निश्चित रूप से सफलता मिलती है।
महाराजा विक्रमादित्य ने शकों को परास्त कर दिया । इस जीत के साथ उज्जैन के राजा विक्रमादित्य प्रजा के चहेते बन गए। यह जीत कई मायनों में बहुत महत्वपूर्ण थी। इससे आम जनता को भय मुक्त मिली । इस जीत को यादगार बनाने के लिए महाराजा विक्रमादित्य ने आज से लगभग 2079 वर्ष पहले अर्थात 57 ईसवी पूर्व विक्रम संवत की शुरुआत की। फागुन माह के समाप्त होते ही नव वर्ष आरंभ हो जाता है लेकिन कृष्ण पक्ष के पश्चात चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिबद्ध के प्रतिपदा के दिन यह नव संवत मनाया जाता है ।