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नेतरहाट : एक अंतहीन सफ़र

Posted on April 19, 2024

डॉ धनञ्जय शर्मा

असिस्टेंट प्रोफेसर, सर्वोदय पी.जी.कॉलेज

घोसी, मऊ

मैग्नोलिया का पिता प्रकृति को मानता था पर प्रकृति की नहीं मानता था

रामगढ़ शिक्षक काउंसलिंग के समय से नेतरहाट का नाम बार-बार सुनने को मिल रहा था सहयोगी शिक्षकों से पता चला नेतरहाट झारखण्ड का सबसे खुबसूरत स्थल है । इसे झारखंड का कश्मीर, पहाड़ों की मल्लिका, छोटानागपुर के पहाड़ियों की रानी भी कहा जाता है। आवसीय विद्यालय, उगता हुआ सूरज एवं डूबता सूरज के लिए जाना जाता है। प्राकृतिक सौन्दर्य एवं चारों तरफ घने जंगलों के बीचों बीच नेतरहाट हिल स्टेशन, लम्बे – लम्बे साल के पेड़, पाइन के जंगल और ठण्डा स्थल इसके आकर्षण का प्रमुख केंद्र है। नेतरहाट की तरफ  ध्यानाकर्षण का प्रमुख कारण नेतरहाट आवासीय विद्यालय है जिसकी चर्चा झारखण्ड में शिक्षक नियुक्त होने के दिन से होने लगी थी। यह चर्चा इतनी बलवती हुई कि हम भी नेतरहाट के प्राकृतिक सुषमा का हिस्सा बनने की कोशिश करने लगे।

और एक दिन 22 जून की सुबह लगभग 10 बजे, हम चार साथी नेतरहाट के लिए निकल पड़े। मन में नयी उमंग, ऊर्जा और उत्साह के साथ हम लोग रामगढ़ से राँची-रामगढ़ हाईवे पकड़‌कर झारखंड के पठारी मार्ग से होकर जाने लगे।रामगढ़ से नेतरहाट की दूरी लगभग दो सौ किलो मीटर है। सबसे पहले रामगढ़ से रांची फिर बीजूपारा, पुरू होते हुए लोहरदगा पहुंचे।  झारखंड प्राकृतिक और खनिज दोनों रूपों में सम्पन्न राज्य है, रामगढ़ रांची जहां कोयले के अयस्क के लिए जाना जाता है, वहीं लोहरदगा लोहे के लिए जाना जाता है। रांची रामगढ़ की धरती काली है, हवा और पानी में भी कोयले के कण घुले रहते हैं, जबकी लोहरदगा की मि‌ट्टी लाल मि‌ट्टी में आयरन के आक्साइड की अधिकता के कारण ऐसा हुआ है । कच्चे रोड़ पर चलने के कारण गाड़ियों के टायर भी लाल रंग के हो गए थे, इस प्रकार पठारी और पहाड़ी मार्ग से होते हुए हम अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहे थे ।  रास्ते में कहीं घना जंगल, कहीं घाटी एवं कहीं छोटी-छोटी पहाड़ियों मिलती रहीं। रास्ते में बहुत सारे आदिम बस्तियां मिलती जो कच्चे मकानों एवं झुग्गी-झोपड़ियों से बनी थी। कुछ स्थलों पर हम गाड़ी रोक कर उतरने पर विवश हो जाते।

लोहरद‌गा जिला मुख्यालय पार करते दिन के एक बज गए थे मगर सूर्यनारायण का कहीं पता न था शायद बादलों के आगोश में खो गए थे। उत्तर भारत में जून का महीना अपनी तपिश के लिए जाना जाता है पर झारखंड के मौसम की अपनी अलग विशेषता है । झारखण्ड में सबसे गर्म दिन अप्रैल माह में होते हैं। जून आते-आते वर्षा चालू हो जाती है। मई जून में जिस दिन तपिश बढ़ी तो वर्षा होना तय है। जब हम निकले तो मौसम साफ था, नीले आसमान में कहीं-कहीं सफेद बादल नज़र आ रहे थे। दोपह‌र के बाद अचानक मौसम ने करवट लिया ।  लोहरदगा मुख्यालय क्षेत्र पार करते हमें भारी बारिश का सामना करना पड़ा। बारिश झारखण्ड की प्राकृतिक सुन्दरता को कई गुना बढ़ा देती है। लोहरदगा पार कर जैसे ही हम लातेहार की सीमा में प्रवेश किए, छोटी-छोटी पहाड़ियों के बीच से गुजरता हुआ मार्ग मनमोहक लग रहा था। एक तरफ घाटी, दूसरी तरफ पहाड़ी, वर्षा के नीले काले बादल पहाड़ों से टकराते हुए प्रतीत हो रहे थे। बहुत सारे जंगल और पहाडी के बीच काले-सफेद बादल अपनी आवारगी का परिचय दे रहे थे, जो आसमान को छोड़‌कर हाथी शावक की भांति अपनी मंडली से बिछड़कर जंगल में भटक गए थे। ऐसे दृश्य को हम कैमरे में कैद करने का असफल प्रयास करने लगे थे, बादल इतने नीचे उतर आए थे मानो पहाड़ी, जंगल और बादलों के मध्य संवाद चल रहा हो। बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी।

रांची से लगभग 100 किलो मीटर दूर घाघरा नामक स्थान जहां से नेतरहाट अभी 56 किलो मीटर दूर था । हम घाघरा को पार कर लातेहार जिला में नार्थ कोयल नदी पार करने के बाद, नेतरहाट घाघरा मोड़ से नेतरहाट के लिए घूम गए।

तेज बारिश, बादलों का गर्जन, रह रह कर कौंधती बिजली मन में एक आशंका उत्पन्न कर रही थी। घाघरा नेतरहाट मार्ग पर लगभग 30 किलो मीटर चलने के बाद विशुनपुर नामक स्थान पर हमने नाश्ता किया, ड्राईवर के अनुसार विशुनपुर के बाद घना जंगल और घाटी मार्ग आरम्भ होगा। विशुनपुर में दिन के ढलान और काले बादलों के कारण जल्दी शाम ढलने लगी थी। कुछ दूर आगे बढ़ने पर घाटी मार्ग आरम्भ हुआ। लम्बे-लम्बे साल के पेड़ और झाड़ियों के मध्य से गुजरता हुआ शर्पिलाकार मार्ग, एक तरफ पहाड़ी, दूसरी तरफ खाई । क्रमशः मोड़दार चढ़ान पर चढ़‌ते हुए हम झारखण्ड के सबसे खतरनाक घाटी मार्ग से गुजर रहे थे। रात्रि के अंधेरे में यह हमारे जीवन का पहला अनुभव था। रास्ते में बीच-बीच में बादलों का गुबार आ जाता । एक दो मिनट तक गाड़ी उसी में गुम रहती । आगे-पीछे, दाएं-बाएं सिर्फ धुंए के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं देता। एक अज्ञात आशंका मन में बैठ गयी थी, रास्ते में एक दो गाड़ियों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिला सभी साथी सहमें हुए इस प्राकृतिक नजारे को देख रहे थे । सबका ध्यान ड्राइवर की कुशलता पर केंद्रित था। रह-रह कर बिजली की चमक, पहाड़ी, खाई और जंगल के दृश्य आंखों में भर जाते थे ।

इसी जद्‌दोजहद, भय और आशंका में तमाम मोड़, चढ़ान और ढलानों को पार करते हुए लगभग रात्रि के आठ बजे एक गेट दिखाई दिया जिस पर लिखा था- “धरती का स्वर्ग नेतर‌हाट” । अब हम लोग पहाड़ों की मल्लिका नेतरहाट में प्रवेश कर चुके थे। बारिश की अधिकता के कारण दुकानें और होटल जल्दी बंद हो चुके थे, सड़कों पर सन्नाटा था। थोड़े प्रयास के बाद घुमते हुए हमें होटल सनराइज मिला जहां ठहरने और भोजन की व्यवस्था मिल सकती थी। समुद्रतल से 3622 फिट की ऊंचाई पर स्थित होने के कारण रात्रि में ठण्ड अधिक थी । जून के महीने में भी हमें कम्बल की जरूरत पड़ी। रात्रि के 12 बजे तक हम लोग सो गए कि सुबह जल्दी उठना है।

          नींद खुली तो सुबह के सात बज रहे थे, जल्दी-जल्दी होटल के कमरे से बाहर निकला गया कि सूर्योदय देखा जाय, लेकिन बारिश तो बंद हो चुकी थी पर आसमान में बादल छाए थे। सुबह का वातावरण देखकर लग रहा था कि प्रकृति अपने स्वभाविक रूप में कितनी खूबसूरत होती है । यहां मानवीय हस्तक्षेप न के बराबर था, चारों और लम्बे-लम्बे चीड़ और साल के वृक्ष देखकर मुझे उत्तराखण्ड के गंगोत्री की याद आने लगी । नेतरहाट के खूबसूरत और मनमोहक दृश्य में मन प्रकृति की वादियों में रम गया। कुछ अव्यक्त यादें सासों में समाने लगीं, चारो ओर नीरवता थी, यदि कुछ शब्द थे तो पक्षियों के कलरव के । जीवन की आपाधापी से दूर एक अलग दुनिया, जहां प्रत्येक क्षण प्रकृति बदलती हुई नजर था रही थी। हवाओं में अलग-अलग खुशबू समझ में नहीं आ रहा था किधर जाएं। इसे कोई प्रकृति प्रेमी ही समझ सकता था। तब तक मित्र राकेश मिश्र जी मुझे अपने होने का एहसास कराते हुए बोले, “मित्र हमलोग घूमने आए हैं, ध्यान लगाने नहीं।”

लगभग नौ बजे सुबह हम लोग होटल छोड़‌कर नेतरहाट भ्रमण पर निकल गए। होटल में वेटर के बताने के अनुसार सबसे पहले नेतरहाट आवासीय विद्यालय में गए । गुरुकुल परम्परा में चलने वाले इस विद्यालय की स्थापना सन 1954 में हुई थी। उसका संचालन झारखंड  माध्यमिक बोर्ड द्वारा किया जाता है। इसमें प्रवेश परीक्षा द्वारा आठ से दस आयुवर्ग के बच्चों का प्रवेश उच्चतर माध्यामिक परीक्षाओं के लिए किया जाता है। यहां से पढ़े बच्चे भारत के विभिन्न प्रशासनिक अधिकारी, वैज्ञानिक तथा चिकित्सक बनते हैं। गुरुकुल परम्परा पर आज भी यह अनोखा विद्यालय है जो अपने प्राकृ‌तिक फलक और भव्यता के लिए पूरे भारत में जाना जाता है। आगे बढ़‌ने पर हमें नेतरहाट पाइन फारेस्ट (चीड़ का जंगल) मिला। चीड़ का जंगल नेतरहाट के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र है। चीड़ जो मध्य हिमालयी जलवायु का वृक्ष है, घने जंगल के बीच सूर्य की रोशनी बड़ी मुश्किल से नीचे आती थी। चीड़ के लम्बे-लम्बे पेड़ शांत भाव में किसी तपस्वी की भांति ध्यान मग्न थे। जंगल ऐसा जिसमें जंगलीपन नहीं था, मिलावट भी नहीं, एकरूपता थी। नीचे चीड़ की सुईनुमा पत्तियों से पटा सरपट मैदान था। आगे बढ़‌ने पर हमें नाशपाती का बगान मिला, सीढ़ीनुमा खेतों में पत्थरों के बाड़े से घिरे  कुछ व्यक्तिगत एवं कुछ सरकारी बगान लगे थे जिन पर गुच्छेनुमा नाशपाती लगे थे। थोड़े से प्रयास में हमें ज्यादा नाशपाती मिल गये, इससे दोपहर के भोजन का काम बराबर हो गया। धीरे- धीरे सूर्य सिर पर आ गया, अभी बहुत स्थलों पर जाना था। वहीं बगल से एक रास्ता  था जहाँ लिखा था नेतरहाट लेक, जो प्रकृति निर्मित एक बड़ा सा जलाशय था। विपरीत मौसम के कारण पानी तलहटी में पहुँच गया था। स्थानीय लोगों से पता चला नेतरहाट में पेयजल की आपूर्ति इसी झील से होती है। वहां से दो-तीन किमी आगे बढ़ने पर लोअर घाघरी फॉल और अपर घाघरी फॉल गए। जून का महीना होने के कारण झरना मन्द प्रवाह में कल-कल  करता हुआ सिसक रहा था।

घूमते-घूमते हम लोग नेतरहाट यात्रा के अंतिम पड़ाव मैग्नोलिया सनसेट प्वाइंट पहुंचे। मैग्नोलिया सनसेट प्वाइंट नेतरहाट पहाड़ी टापू के पश्चिमी किनारे पर स्थित था जहां एक घोड़े की प्रतिमा पर एक लड़की बैठी हुई थी। जहां एक साइनबोर्ड पर लिखा था “मैगनोलिया सनसेट प्वाइंट प्रेम और विरह की अनोखी दास्तान बयां करता है।……कहते हैं, इसी जगह कुंवारी मैगनोलिया ने स्थानीय चरवाहे के विरह में अपने घोड़े सहित घाटी की असीम गहराईयों में छलांग लगाकर अपनी जान दे दी।…..इस स्थल से अस्तगामी सूर्य नयनाभिराम प्रस्तुत करता है।” यहां से नीचे लगभग पांच – छः सौ फिट गहरी खाई और जंगल था। सूर्यास्त के समय ढलता हुआ सूरज गोल गेंद के समान पहाड़ों में छिपता हुआ नज़र आता है। घूमते हुए हमें प्यास लगी, बोतल का पानी भी समाप्त हो चुका था, कुछ स्थानीय बच्चों की मदद से पता चला कि सनसेट प्वाइंट के नीचे खाई में एक झरना है, जहां लोग पानी पीते हैं। हम लोग भी पानी की तलाश में नीचे उतरने लगे, हाथ और पैर के सहारे खड़े ढलान पर बहुत मुश्किल से आठ सौ मीटर के आस-पास नीचे उतरे जहां बहुत मंद गति का एक झरना था। झरने पर पहले से तीन आदिवासी युवतियां बैठी थीं जो अपने घर का जूठा बरतन और गंदा कपड़ा धुलने आयी थीं । पूछने पर पता चला वे असुर जनजाति से थीं। उनके जीवन में जल की आपूर्ति इसी झरने से होती है, उनकी बस्ती उसी ढलान में दो किलोमीटर नीचे की तरफ थी। कुछ अन्य बातें करने के बाद एक युवती से मैंने पूछा मैग्नोलिया कौन थी ? ……अचानक ऐसे सवाल से वह सहम सी गयी फिर लाज और संकोच भरे शब्दों में कहने लगी मैग्नोलिया एक अंग्रेजन लड़‌की थी जो आदिवासी चरवाहे से प्रेम करती थी ।….. कहते-कहते उसका सांवला चेहरा लाल होने लगा और अपने दोनों हथेलियों से सिर नीचे करके अपना चेहरा ढंक ली आगे कुछ न बोल सकी ।………

         नेतरहाट की खोज एवं विकास अंग्रेज अधिकारियों द्वारा किया गया था । बहुत से अंग्रेज अधिकारी प्रकृति प्रेमी हुआ करते थे, उन्हें अपने देश की तरह ठंडे जलवायु प्रदेश की खोज रहती थी। इसी सिलसिले में जब एक अंग्रेज लेफ्टिनेंट गवर्नर नेतरहाट की धरती पर पहुँचा तो उसे लगा प्रकृति की देवी यहां बैठी है। फिर बहुत सारे अंग्रेज अधिकारी छुट्टियां बिताने इंग्लैण्ड जाने के बजाए नेतरहाट में आने लगे। इन्ही अंग्रेज अधिकारियों में एक अंग्रेज थे सर एडवर्ड गेट, जो रिटायर होने के बाद अपने देश जाने के बजाय नेतरहाट में बस जाना पसंद किए। मैग्नोलिया, सर एडवर्ड गेट की पुत्री थी जो अंग्रेज होते हुए भी भारतीय लोगों को पसंद करती थी। नेतरहाट में मैग्नोलिया आदिवासी बच्चों के बीच अपना वक्त  बिताती। एक दिन मैग्नोलिया घोड़े से घूम रही थी कि उसके कानों में बांसुरी की सुरीली आवाज आने लगी। मैग्नोलिया आवाल का पीछा करते हुए पहाड़ों में गयी तो देखा एक आदिवाली लड़‌का ऊंचे पत्थर पर बैठ कर बांसुरी बजा रहा है और जानवरों को चरा रहा है। बांसुरी की आवाज मैग्नोलिया को भीतर तक बींध गयी । मैग्नोलिया हर शाम उस चरवाहे की बांसुरी सुनने जाने लगी । धीरे-धीरे मैग्नोलिया और चरवाहे के बीच मधुर मिलन होने लगा। चरवाहा जब बांसुरी बजाता तब मैग्नोलिया मौन साधना किया करती, उसे चुपचाप निहारती । एक दिन सूर्यास्त के बाद मैग्नोलिया चरवाहे की बांसुरी पर मौन साधना कर रही थी तभी उन्हें अंग्रेज सिपाहियों ने मैगनोलिया और चरवाहे को एक साथ देख लिया और मैग्नोलिया के पिता को जाकर बता दिया। मैग्नोलिया का पिता बेशक प्रकृति प्रेमी था पर प्रकृति के नियमों में विश्वास नहीं करता था। पिता का कहना था तुम्हारा रूप-रंग नस्ल जाति सब अलग है, एक आदिवासी लड़‌के में क्या रखा है। मैग्नोलिया प्रकृति के नियम में विश्वास करती थी। पिता से स्पष्ट कह देती है कि  मैं उस आदीवासी लड़‌के से प्रेम करती हूँ ………। पिता के बहुत समझाने पर मैग्नोलिया जब नहीं मानी तब एक दिन अंग्रेज अधिकारी ने चरवाहे को उसी सनसेट प्वाइंट से नीचे खाई में फेंकवा दिया। मैग्नोलिया को जब उसकी कोई खबर नहीं मिलती है तो वह पागलों की तरह भटकने लगी,… उसे एक महिला द्वारा पता चला कि वह जिस चरवाहे से बांसुरी सुना करती थी, उसे कुछ अंग्रेज सिपाहीयों ने खाई से नीचे फेंक दिया जहां उसकी मृत्यु हो गयी।

मैगनोलिया चरवाहे से वास्तविक प्रेम करती थी। अगले दिन मैग्नोलिया घोड़े पर सवार होकर आयी और तेज़ रफ्तार में उसी सनसेट प्वाइंट से जहां प्रत्येक दिन सूर्य का अवसान होता है, घोड़े सहित खाई में छलांग लगा ली। वे जीते जी तो साथ नहीं मिल सके, पर मर कर अमर हो गये। उनका प्रेम आज भी जिंदा है।

कहानी सुनने के बाद हम गहरे अवसाद से भर गए। प्रकृति निरीक्षण से जो प्रकृति रस मन में भरा था अब वह वियोग रस में बदल गया। अब संध्या का वक्त हो चला था, सूर्यदेव अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर थे, उनका तेज अब मंद हो रहा था, लाल गेंद के समान पश्चिम के आकाश में लटका हुआ सूर्य धीरे-धीरे नीचे उतर रहा था।

पश्चिम का आकाश खून के रंग में ढला जा रहा था फिर एकाएक वह लालिमा नीलिमा में बदल गयी मानो हर रोज मैग्नोलिया अपनी यादों के साथ जीवित हो उठती है और सूर्यास्त के बाद मर जाती है। एक गहरे विसाद के साथ हम लोग नेतरहाट की वादियों से विदा हो लिए, यह सोचते हुए कि नेतरहाट की प्रकृति में एक अद्‌भुत मादकता है जो बार-बार मिलने के लिए आकर्षित करती रहेगी।

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