प्रियंवदा पाण्डेय
देवरिया उत्तर प्रदेश
युग प्रवर्तक अज्ञेय को भला कौन नहीं जानता है। अपनी लेखनी से उन्होंने नवीन प्रतिमान तो स्थापित किए ही साथ ही एक नई शैली और नई विचारधारा को भी जन्म दिया जिसे साहित्यजगत में प्रयोगवाद के नाम से जाना जाता है। अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने जो कीर्तिमान स्थापित किया उससे सभी परिचित हैं। इसलिये मैं सिर्फ उनके भाषा वैशिष्ट्य पर बात करूँगी।
अज्ञेय को लोग गद्य का प्रेत भी कहते हैं । मेरा मानना है कि सरल शब्दों में चमत्कार उत्पन्न किया जा सकता है सरल शब्दों में गंभीर बातें नहीं कहीं जा सकती हैं। यह एक लेखक ही जान सकता है कि उसे अपने बातों को किस भाषा में बरतना है दूसरी बात लेखक के लिए उसके भाषा की समृद्धि मील का पत्थर साबित होती है । जिसका शब्द भंडार जितना ही समृद्ध और परिष्कृत होगा वह अपने विचारों की अभिव्यक्ति उतना ही सशक्त रूप में कर सकेगा। भाषा का व्यवहार कैसे करना है कि संप्रेषण शत प्रतिशत हो अज्ञेय इससे भलीभाँति परिचित थे। वह यथासंभव यथास्थान भाषा को सरल और कठिन रूप में प्रयोग कर लेते थे। असाध्य वीणा का एक अंश :-
“कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप
भरोसा है अब मुझको
साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी।”
कितना सहज प्रवाह है यहाँ पर भाषा का तो वहीं इसी कविता में जब आप लिखते हैं-
सब उदग्र पर्युत्सुक
जन-मात्र प्रतीक्षमाण!
भाषा का यह विलक्षण सौष्ठव अपूर्व है। क्योंकि किसी राजपुरुष की भाषा आमजन की भाषा से क्लिष्ट यों कहें संस्कृतनिष्ठ होनी ही चाहिए। कविता जैसे कवि को चुनती है वैसे ही वह शैली, प्रवाह और शब्द का भी वरण करती है, मैं मानती हूँ कि उसने अज्ञेय को उनकी भाषिक समृद्धि के कारण स्वयं चुना था। एक अन्य कविता में जब आप लिखते हैं-
और नयन शायद अधमीचे
और उषा की धुँधली-सी अरूणाली थी
सारा जग सींचे।
यह अज्ञेय ही लिख सकते हैं और कोई नहीं, कठिनतर शब्दों की तुक आसान कहाँ ? भाषा के नवीनतम प्रयोग ने अज्ञेय की लेखनी को जो कसाव दिया है उसको नकारा नहीं जा सकता। यदि वह भाषायी प्रयोग में इतनी सतर्क न होते तो उनका काव्य अथवा गद्य अपनी अलग और अपूर्व पहचान बनाने में सफल नहीं होता। अज्ञेय के पूर्ववर्ती रचनाकारों ने जहाँ काव्य भाषा में लाक्षणिकता और प्रतीक विधान पर बल दिया था वहीं अज्ञेय ने भाषा को यथार्थ से जोड़ने का सार्थक प्रयास किया ।
मेरा मानना है कि भाषा की विशिष्टता लेखन को एक विशिष्ट आयाम तो देती ही है लेखक को विशिष्ट स्थान पर स्थापित स्थापित भी करती है। कहने में अत्युक्ति नहीं है कि अज्ञेय का जो स्थान आज तक है उसमें उनकी भाषा का अहम योगदान है वह जहाँ क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग करते हैं वहीं पर आवश्यकतानुसार प्रांजल और ठेठ शब्दों के प्रयोग में भी चूकते नहीं हैं। एक कविता का छोटा सा अंश देखिये। कि–
यह जो मिट्टी फोड़ता है
मड़िया में रहता है और महलों को बनाता है।
मैं उसकी आस्था हूँ।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अज्ञेय के शब्द प्रयोग के लिए लालायित रहते थे भाषा की जो जादूगरी उनके काव्य अथवा गद्य में दिखती है वह अन्यत्र दुर्लभ है।