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अज्ञेय का काव्यभाषा सम्बन्धी चिन्तन

Posted on March 20, 2024

डॉ. नितिन सेठी, बरेली

अज्ञेय भावुक कवि होने के साथ-साथ एक गहन चिंतक और विचारक के रूप में भी हमारे समक्ष आते हैं। अज्ञेय ने समय-समय पर सामान्य भाषा और काव्यभाषा; इन दोनों पक्षों से सम्बंधित अपना तलस्पर्शी चिंतन अपने विभिन्न निबंधों, व्याख्यानों, भूमिकाओं के साथ-साथ अपनी कुछ कविताओं में अभिव्यक्त किया है। सामान्य भाषा और काव्यभाषा के सम्बंध में उनके जो विचार हैं, वे भाषा के बारे में सोचने-समझने का नवीन मार्ग प्रशस्त करते हैं और अज्ञेय के भाषा चिंतन को हमारे समक्ष लाते हैं।

हम जानते हैं कि भाषा मानवीय आविष्कार है। जितना अर्थ भरने का हम प्रयत्न करते हैं, उतना ही वह अर्थ होता है। एक समय में जो अर्थ मान लिया गया, प्रतिष्ठित हो गया। दूसरा मान लेते, दूसरा अर्थ हो जाता। इसलिए शब्द में अर्थ ग्रहण की प्रक्रिया बराबर चलती रहती है। इसी बात को ध्यान में रखकर अज्ञेय आधुनिक समय में भाषा की समस्या को देखते हैं,“आधुनिक जीवन में कवि एक बहुत बड़ी समस्या का सामना कर रहा है। भाषा की क्रमशः संकुचित होती हुई सार्थकता की केंचुल फाड़कर उसमें नया व्यापक अर्थ भरना चाहते हैं और अहंकार के कारण नहीं, इसमें युग की गहरी व भीतरी मांग स्पन्दित है।” ये पंक्तियाँ यह बात प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त लगती हैं कि अज्ञेय ने न केवल ‘भाषा में’ लिखा है अपितु ‘भाषा पर’ भी लिखा है। अज्ञेय के अनेक निबंध संग्रहों, लेखों और यहाँ तक कि काव्यकृतियों की भूमिकाओं में भी भाषा विषयक अनेक विचार दिखाई देते हैं। ये विचार अज्ञेय का न केवल भाषा विषयक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं अपितु विभिन्न समस्याओं का निराकरण करते हुए भी दिखाई देते हैं। ‘आत्मनेपद’, ‘भवन्ती’, ‘अंतरा’, ‘जोग लिखी’, ‘लिखी कागद कोरे’ आदि निबन्ध संग्रहों में अनेक स्थानों पर अज्ञेय भाषा सम्बंधी दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए दिखाई देते हैं। भाषा की समस्या को अज्ञेय कवि कर्म की मुख्य समस्या मानते हैं। अज्ञेय ने जब अपना काव्य सृजन आरंभ किया था, छायावादी काव्य अपने अंतिम चरण में था। उनकी दृष्टि में छायावादी काल की काव्यभाषा अपने कलेवर में पुरानी पड़ चुकी थी और आधुनिक जीवन से सामंजस्य नहीं बिठा पा रही थी। “अगर वह यह कहते हैं कि उसमें युग की गहरी मांग स्पंदित है तो यह सोचना पड़ता है कि उस युग की भाषा अर्थात् छायावादी भाषा आधुनिक जीवन की जटिलता को व्यक्त नहीं कर पा रही थी जिसके कारण वे भाषा में नया अर्थ भरना चाहते थे और इस बात में अत्यधिक सफल भी हुए लगते हैं।”अज्ञेय ने भाषा के सम्बंध में ऐतिहासिक दृष्टि से भी विचार किया है। द्विवेदी युग और छायावादी युग की काव्यभाषा पर उनका चिंतन महत्त्वपूर्ण है।वे कहते हैं,“द्विवेदी युग में भाषा के बारे में जो सजगता व  आग्रहशीलता थी, वह आज नहीं है। यह ठीक है कि उस युग में जो आग्रह था वह आज की स्थिति में पर्याप्त न होता, क्योंकि उस समय व्याकरण शुद्धि और भाषा के प्रतिमानीकरण पर ही अधिक बल दिया जाता था और भाषा अथवा शब्द का संस्कार व्याकरण शुद्धि से अधिक बड़ी व गहरी बात है।”छायावादी युग का चिंतन करते हुए अज्ञेय लिखते हैं,“छायावादी युग के कुछ कवियों को छोड़कर, भाषा के सम्बंध में जितनी चेतना कवि या साहित्यकार में होनी चाहिए, उतनी कम लेखकों में रही। मैं समझता हूँ कि हिन्दी की यह बहुत बड़ी कमी या समस्या रही।”

अज्ञेय को नवीन भाषा प्रयोगों की आवश्यकता इसलिए महसूस होती है क्योंकि उनका कवि महसूस करता है कि भाषा का व्यापकत्व अब उसमें नहीं है। आधुनिक युग में संवेदना का विकास हो रहा है, उसका परिवेश लगातार विस्तृत होता जा रहा है। अज्ञेय ने कवि कर्म की इस समस्या पर विचार करते हुए लिखा है,“यह आज के कवि की सबसे बड़ी समस्या है।यों समस्याएँ अनेक हैं– काव्य विषय की, सामाजिक उत्तरदायित्व की, संवेदना के पुन: संस्कार की; किंतु इन सबका स्थान पीछे है क्योंकि यह कवि कर्म की ही मौलिक समस्या है,साधारणीकरण व सम्प्रेषण की समस्या है और कवि को प्रयोगशीलता की ओर प्रेरित करने वाली सबसे बड़ी शक्ति यही है। कवि अनुभव करता है कि भाषा का पुराना व्यापकत्व अब उसमें नहीं है। शब्दों के साधारण अर्थ से बड़ा अर्थ हम उनमें भरना चाहते हैं पर उस बड़े अर्थ को पाठक के मन में उतार देने के साधन अपर्याप्त हैं। वह या तो अर्थ कम पाता है या कुछ भिन्न पाता है।”

अज्ञेय की दृष्टि में भाषा केवल छपने वाले साहित्य से ही सम्बंधित नहीं होती अपितु भाषा एक सांस्कृतिक चेतना होती है और इसी क्रम में वह सांस्कृतिक चेतना का जागरण भी करती है। इसके लिए सर्जनात्मकता पहली शर्त है। अज्ञेय ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है,“भाषा को सिर्फ आज छप रहे या चलते साहित्य से जोड़कर देखने से कुछ लाभ नहीं होगा। भाषा का सार्थक विचार करने के लिए समूची संस्कृति के साथ उसके समग्र व्यक्तित्व व सम्बंध का विचार करना होगा। यदि सभ्यता भौतिकवादी, उपयोगितावादी, उपभोगवादी, शोषणमूलक है तो भाषा भी वैसी ही होगी। भाषा में जान डालने के लिए संस्कृति में जान होनी चाहिए। सर्जनात्मक भाषा मुर्दा या मरणशील समाज की नहीं होगी। सर्जनात्मक समाज से ही सर्जनात्मक भाषा मिलेगी। भाषा केवल समाज का, जीवन का, उसकी मूल्यदृष्टि का मुकुर और प्रतिबिम्ब होती है, उसका कारण नहीं।” अज्ञेय ने लिखा भी है–

    बड़े काम की चीज़ है भाषा:

   उसके सहारे एक से दूसरे तक   

   जानकारी पहुँचाई जा सकती है 

   वह सामाजिक उपकरण है

अपने निबंध ‘भाषा और अस्मिता’ में अज्ञेय ने भाषाविषयक अनेक तथ्यों पर नवीन दृष्टि से लेखन किया है। वे लिखते हैं,“हम जो भाषा बोलते हैं उसके द्वारा हम वह संसार चुन लेते हैं जिसमें हम रहते हैं। या इसी बात को उलटकर कहें तो हम जो भाषा बोलते हैं उसी के निमित्त से हम उस जीवन व्यवस्था (ऋत्) के द्वारा चुने जाते हैं जिसके हम अंग हैं। एक निर्दिष्ट स्थान और धर्म पा लेते हैं, उसे निबाहने से स्वतंत्र हो जाते हैं।”‌

इसी आधार पर जब हम अज्ञेय की कविता को जाँचते-परखते हैं तो हम पाते हैं कि अज्ञेय की कविताओं में भाषा के अनेक सृजनात्मक प्रयोग मिलते हैं और क्योंकि अज्ञेय की दृष्टि में भाषा एक सामाजिक समस्या है, अतः भाषा के विभिन्न सृजनात्मक प्रयोगों के द्वारा अज्ञेय अपने सामाजिक दायित्व को भी निभाते हैं।अज्ञेय आगे भी लिखते हैं,“भाषा का उपयोग जितना ही व्यापक और गहरा होता है, उतनी ही भाषा समृद्धतर होती है और अपने व्यवहर्त्ता को समृद्धतर बनाती है और भाषा का ऐसा प्रयोग काम-चलाऊ, आनुषांगिक, आपद्धर्मी नहीं है, वैसा प्रयोग नहीं है जो शासक के या लोक-संपर्क कर्मचारियों के या व्यवसायियों के या पंडितों के द्वारा भी किया जा सकता है। ऐसी ही भाषा, ऐसी ही प्रयुक्त भाषा-अनुभव की भाषा-संस्कृति का और अस्मिता का उपकरण होती है।”

अज्ञेय के भाषाविषयक चिंतन को डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी जैसे साहित्यकारों ने भी सराहा है। वे लिखते हैं,“छायावाद का प्रभावक्षेत्र भी कविता था। छायावादी काव्यभाषा को तोड़ा जाना इस दृष्टि से सबसे अधिक आवश्यक था किसी भी नये भाव-संचरण के लिए। अज्ञेय ने इस स्थिति को समझा और भाषा को नया संस्कार दिया। ऐसा संस्कार जो बोलचाल की भाषा का था पर इस मौलिक भाषा को जन-जन की भाषा कहकर ही वे संतुष्ट नहीं रहे वरन् उसके माध्यम से उन्होंने समूची काव्यसंवेदना का परिष्कार किया।”अज्ञेय भाषा के निर्माण में शब्दों की भूमिका व सार्थकता को नकारते नहीं परन्तु फिर भी वे कुछ बातों को शब्दों से भी परे मानते हैं–

 शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ है 

 पर इसीलिए कि

 शब्दातीत कुछ अर्थ हैं

अज्ञेय आगे भी कहते हैं,“लेखक के नाते हमारा ध्यान भाषा के रचनात्मक अथवा साहित्यिक उपयोग और अस्मिता पर उसके प्रभाव की ओर अधिक होगा। भाषा की मुद्रा पर आज कई दिशाओं से दबाव पड़ रहा है। मुद्रास्फीति का संकट हर भाषा पर है।”अज्ञेय की कवि दृष्टि में भाषा कवि की परम्पराओं को तोड़ने की शक्ति भी प्रदान किया करती है। कवि रूढ़ियों से आबद्ध होकर भाषा की शक्ति को नहीं पहचान पाएगा। उसे रूढ़ियों को मिटाना ही होगा–

       आ, तू, आ,

       हाँ आ,

       मेरे पैरों की छाप-पर

       रखता पैर,

       मिटाता उसे

अज्ञेय भाषा की वर्तमान स्थिति पर चिंतित होते हुए कहते हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में कोई भी लेखक अपने को ‘खुदाई फौज़दार’ की भूमिका में देखने का प्रयत्न नहीं करेगा। लेखक भाषा का उद्धारक है या हो, यह कल्पना भी उसे अप्रीतिकर लगेगी। लेकिन इस सत्य से कोई निस्तार नहीं है कि आज के संसार में मानव-मन का घर्षण भाषा के घर्षण से आरम्भ होता है और आज भाषा मात्र सारे संसार में अवज्ञा का शिकार हो रही है।अज्ञेय की दृष्टि में भाषा हमेशा से साधारण प्रयोजनों और कर्म-व्यापारों का माध्यम बनी रही है।

अपने ग्रंथ ‘त्रिशंकु’ में अज्ञेय ने भाषा सम्बंधी परम्पराओं, मान्यताओं, विचारों का युगीन विश्लेषण किया है।‘तार सप्तक’ की भूमिकाओं में अज्ञेय आन्दोलन के प्रवर्तक के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं। इनकी भूमिकाओं में अज्ञेय ने अपने समय की काव्य विशेषताओं का सुंदर वर्णन किया है। आज के साहित्य में उन्होंने जो स्थापनाएँ की हैं, वे परम्परागत धारणाओं से इतनी अधिक भिन्न और वैयक्तिक हैं कि हिंदी जगत में उसका सर्वत्र विरोध हुआ है। अज्ञेय के कई विचारों से कुछ विद्वानों का मतभेद व विरोध छिपा नहीं है। अज्ञेय अपने प्रसिद्ध निबन्ध संग्रह ‘आत्मपरक’ में समकालीन कविता के विषय में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखते हैं,“सन् साठ के बाद की कविताओं में मुझे वह बहुत कम मिलता है जिसकी मैं काव्य से अपेक्षा रखता हूँ। भाषा के नये गुण मिल जाएंगे, कुछ नये बिम्ब मिल जाएंगे, लेकिन इतना काफी नहीं होता। अच्छे काव्य में सच्चाई की नयी पहचान होती है। इस अर्थ में अच्छा काव्य संसार को बदलता है,भले ही थोड़ा-थोड़ा करके और इस गुण का मैं समकालीन कविता में अभाव पाता हूँ।”प्रतिबद्ध कविता के संदर्भ में वह कविता की ईमानदारी पर जोर देते हैं। वे कहते हैं,“मैं तो यह देखूँगा कि रचना की दृष्टि कितनी सच्ची है और दूसरे शब्दों में यह देखूँगा कि उस प्रतिबद्धता की खूँटी कहाँ है।”

अज्ञेय ने हिन्दी भाषा की विशेषताओं पर भी समग्र विचार किया है। अज्ञेय ने हिन्दी को ‘भारत के हृदय की कुंजी’ और एक ‘समग्र भारतीय अस्मिता की वाणी’ कहा है। वे स्वयं लिखते हैं,“हिन्दी संगमों की भाषा है, विद्रोहों की भाषा है, इसी भाषा ने सारे देश में भारतीय संस्कृति को बनाए रखा, भारतीयता के बोध को जीवित रखा। वह विकासमान संस्कारों और पनपते विद्रोह की भाषा रही है। हिंदी का यह परम्परागत दायित्व है कि वह जिस अर्थ में आधुनिक थी, उसी अर्थ में आधुनिक बनी रहे। क्या सर्जक व क्या चिंतक, दोनों ही रूपों में अज्ञेय का यह विशिष्ट योगदान है कि उन्होंने हिन्दी भाव-बोध के भीतर से ही आधुनिकता की चुनौती को स्वीकारने और निभाने की राह निकाली‌।”अपने निबंध ‘भाषा और अस्मिता’ में अज्ञेय भाषा की शक्ति विशेषतया हिन्दी भाषा की शक्ति व समृद्धि की बात करते हुए हैं,“पचास-साठ वर्ष पहले जब अनेक भारतीय लेखकों ने भारतीय भाषाओं की अपर्याप्तता को लेकर अकुलाहट महसूस करना आरम्भ किया, तब उनके अधैर्य का कारण किसी हद तक वास्तविक अपूर्णता भी थी।इन भाषाओं में अनेक शब्द और अर्थ संदर्भ इसलिए भी नहीं थे कि इन भाषाओं से कभी उनकी मांग ही नहीं की गई थी। वैज्ञानिक और वैश्विक प्रगति से नयी विचार-वीथियाँ खुल गई थीं जिनके लिए नयी शब्दावली की जरूरत थी। जहाँ और जिस हद तक इन जरूरतों को पूरा करने के लिए भारतीय भाषाओं से काम लिया गया,यह यथेष्ट भी सिद्ध हुआ। आखिर उपयोग से ही भाषा बनती है। इस शती के तीसरे दशक तक कवि भाषा की सीमाएँ पहचान रहे थे और उनका विस्तार भी करते जा रहे थे। उदाहरण के लिए सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ दोनों को ही शिकायत थी कि उन्हें विरासत में मिली भाषा अपर्याप्त है, दोनों ने ही इस शिकायत का निराकरण करते हुए भाषा को ऐसी समृद्धि प्रदान की कि उनकी शिकायतें अतिरंजित जान पड़ने लगें। उन्हें जो कहना था, उसके लिए उन्होंने भाषा पा ली, रच ली।”

अज्ञेय का स्पष्ट रूप से मानना रहा कि कोई भी समाज परायी भाषा में नहीं जी सकता। विशेषकर वह समाज जो स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहा हो, उसे तो अनिवार्य रूप से अपनी ही भाषा की आवश्यकता होती है।वह भाषा जो उस समाज की अस्मिता को एक स्पष्ट स्वरूप प्रदान कर सके। अज्ञेय इसीलिए भाषा को आत्म साक्षात्कार के माध्यम के साथ-साथ आत्म सृष्टि के माध्यम के रूप में भी देखना चाहते हैं क्योंकि उनकी दृष्टि में अस्मिता का आविष्कार यहीं से होता है। इसीलिए वह मानवीय संस्कृति की सबसे मूल्यवान उपलब्धि भाषा को मानते हैं और बार-बार कहते हैं कि मानवीय अस्मिता का आविष्कार और सृष्टि, दोनों ही भाषा के आविष्कार में अंतर्निहित होते हैं। वास्तव में अज्ञेय ने काव्यभाषा के सम्बंध में जितने विचार व्यक्त किए हैं, उससे कहीं अधिक इन विचारों को अपनी काव्यरचनाओं में प्रस्तुत भी किया है। प्रयोग के साथ इन विचारों को अपनाने के कारण अज्ञेय के ये विचार आज भी पूर्ण रूप से प्रासंगिक हैं।

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