डॉ नमिता राकेश
वरिष्ठ साहित्यकार एवं उपनिदेशक, गृह मंत्रालय
“पहाड़ नहीं कांपता,
न पेड़, न तराई,
कांपती है ढाल पर के घर से
नीचे झील पर झरी
दिए की लौ की
नन्हीं परछाईं”
इन पंक्तियों के रचयिता अपने समय के प्रसिद्ध प्रयोगवादी एवं नई कविता के जनक आदरणीय सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी और प्रखर कवि होने के साथ-साथ एक उम्दा फ़ोटोग्राफ़र भी थे और यायावरी तो शायद उनको सौभाग्य से ही मिली थी । अज्ञेय अपने समय के सबसे चर्चित कवि, कथाकार, निबंधकार , पत्रकार, संपादक, यायावर और अध्यापक रहे हैं । इनका जन्म 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के कसया (आधुनिक कुशीनगर) में हुआ । बचपन लखनऊ, कश्मीर , बिहार और मद्रास में बीता। बीएससी करके अंग्रेज़ी में एमए किया। सच्चिदानंद जी ने घर पर ही भाषा , साहित्य, इतिहास और विज्ञान की प्रारंभिक शिक्षा आरंभ की। मैट्रिक की प्राइवेट परीक्षा पंजाब से उत्तीर्ण की। इसके बाद 2 वर्ष मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में एवं 3 वर्ष लाहौर में संस्थागत शिक्षा पाई ।
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन को “अज्ञेय” नाम मुंशी प्रेमचंद से मिला था । इसका ज़िक्र स्वयं अज्ञेय ने अपने एक साक्षात्कार में किया है। इस साक्षात्कार के अनुसार सच्चिदानंद ने जैनेंद्र कुमार के पास अपनी रचनाएं प्रकाशन के लिए भेजीं। जैनेंद्र जी ने वे रचनाएं प्रेमचंद जी को दीं। इन कहानियों में से दो राजनीतिक कहानियाँ प्रेमचंद जी द्वारा स्वीकार कर ली गईं। कारावास से भेजी गई इन कहानियों के लेखक का नाम उजागर करना उपयुक्त नहीं था। इसलिए निर्णय लिया गया कि लेखक के नाम की जगह अज्ञेय (अर्थात अज्ञात) नाम का उपयोग किया जाए । जबकि अज्ञेय को यह उपनाम पसंद नहीं था हालांकि उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया था । वह कविताओं और कहानियों का प्रकाशन अज्ञेय नाम से कराते रहे जबकि लेख, विचार , आलोचना आदि के लिए उन्होंने अपने मूल नाम अर्थात सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन का ही उपयोग किया।
अज्ञेय, प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं। अनेक जापानी हाइकु कविताओं को अज्ञेय ने अनुदित किया है । अज्ञेय के प्रतीकों में पुराने प्रतीकों के नूतन अर्थ भी मिलते हैं। अज्ञेय के प्रतीकों में विविधता है । उनके प्रतीक नए भावबोध से आपूरित हैं। अज्ञेय ने प्रगतिवाद से असंतुष्ट होकर ‘व्यक्ति स्वतंत्रता सिद्धांत” की स्थापना का अभियान यानी प्रयोगवाद चलाया। प्रयोगवाद की शुरुआत अज्ञेय के संपादन में वर्ष 1943 में “तार सप्तक” से हुई। “तार सप्तक” में विविध विचारधारा रखने वाले सात कवियों को एक साथ लिया गया तथा उन्हें “राहों के अन्वेषी” की संज्ञा प्रदान की गई। अज्ञेय को कविता में प्रयोगवाद का प्रवर्तन कहा जाता है । अज्ञेय को नई कविता धारा का भी पथ प्रदर्शक माना गया है । उनके संपादन में प्रकाशित “दूसरा सप्तक” और “तीसरा सप्तक” के नई कविता के प्रमुख कवि शामिल हैं।
अज्ञेय को अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार भी प्राप्त हुए। 1964 में “आंगन के पार द्वार” पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ । 1978 में “कितनी नावों में कितनी बार” शीर्षक काव्य ग्रंथ पर भारतीय ज्ञानपीठ का सर्वोच्च पुरस्कार मिला।
अज्ञेय की कविताओं में अगर हम काव्यगत विशेषताएं देखें तो हम पाएंगे कि अज्ञेय की कविताओं में प्रेम अभिव्यक्ति ज़्यादा गहरी और मनोवैज्ञानिक धरातल पर हुई है किंतु आवेश इन शैली में की गई है जैसे–
“भोर बेला– नदी तट की घंटियों का नाद
चोट खा कर जाग उठ सोया हुआ अवसाद
नहीं, मुझ को नहीं अपने दर्द का अभिमान-
मानता हूं मैं पराजय है तुम्हारी याद !
अज्ञेय के प्रेम प्रदर्शन में किसी प्रकार की बनावट अथवा दुराव नहीं मिलता । जीवन की नैसर्गिक मांगों को सर्वथा सहज रीति से व्यक्त होने देना चाहते हैं। अज्ञेय ने यदि कहीं पुराने उपमानों का प्रयोग किया भी है तो संदर्भ बदलकर उनका बासीपन दूर किया है । अज्ञेय की कविताओं में विद्रोह के स्वर भी साफ़ दिखाई देते हैं । राजनीतिक संबंध के कारण उन्होंने कारावास की काफी यात्राएं भी झेली है । उसके लिए उनकी विद्रोह की भावना प्रारंभिक कृतियों में बड़े दर्प के साथ व्यंजित हुई हैं। हरी घास पर क्षण भर में उनकी प्रसिद्ध कविता है । बावरा अहेरी और “दीप अकेला जलते रहे’ में अज्ञेय की दृढ़ता, कर्तव्य निष्ठा और सामाजिकता के दर्शन होते हैं—
“यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर इसको भी पंक्ति को दे दो
प्रकृति का सजीव चित्रण—-
अज्ञेय के काव्य में प्रकृति का सजीव अंकन हुआ है। यहां भी उनका दृष्टिकोंण रोमानी नहीं यथार्थवादी ही है। जिस चांदनी के सौंदर्य की महिमा अनेक कवियों ने अनेक रूपों में की है वही अज्ञेय चांदनी में भी यथार्थ का खोज लेते हैं । वस्तुत आज के नागरिक कवि के लिए प्रकृति के निरपेक्ष सत्ता पर मुक्त होना सहज नहीं रह गया है। एक तो वह जीवन के व्यस्त क्षणों में प्रकृति के पास जाने का अवकाश ही कब निकाल पाता है और जब प्रकृति के नयनभिराम दृश्य के सामने खड़ा होता है तब वहां भी उसके अवचेतन संस्कार और मानसिक संघर्ष उभरे बिना नहीं रहते हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि अज्ञेय की काव्य रचना में आज के समय आज के समय का सजीव चित्रण मिलता है ।
अज्ञेय की काव्य भाषा— अज्ञेय की भाषा प्रतीकात्मक है । उन्होंने भांति-भांति के प्रयोग से उसकी व्यंजकता बढ़ाने का प्रयास किया है । इस कार्य के लिए प्रतीक पद्धति का आश्रय सबसे उपयुक्त साधन है । कवि की इतयलन तक की काव्य भाषा तत्सम प्रधान है और उसका तेवर छायावादी क्योंकि काव्य भाषा का चरम निखार आंगन के पार द्वार में दिखाई पड़ता है जहां भाषा ऊपर से बिल्कुल सीधी और अलंकृत होती हुई भी भीतर से अत्यधिक संकेत निहित और मर्मस्पर्शी है ।
अज्ञेय की छंद योजना –छंद योजना की अगर बात करें तो अज्ञेय की छंद योजना में भी नवीनता है। चांद उनके काव्य में मात्र ढांचा नहीं भाव के उन्मेष का माध्यम है । कहीं-कहीं कवि ने लोकगीतों को भी आत्मसात किया है और कहीं उर्दू बेह्रों से प्रेरणा ली है । निराला और पंथ के बाद हिंदी कविता में सबसे अधिक छंद प्रयोग अज्ञेय ने किए हैं । इस प्रकार अज्ञेय नई कविता के यशस्वी पुरोधा हैं। और उनका काव्य हिंदी कविता का नवीनतम मानचित्र है।
अज्ञेय का रचना संसार इतना परिपक्व है, इतना समृद्ध है कि सबका अगर उदाहरण देने चलें तो कई पृष्ठ ऐसे ही भर जाएंगे । अज्ञेय ने अनेक कविता संग्रह, कहानी संग्रह, उपन्यास , यात्रा वृतांत, निबंध संग्रह, आलोचना, संस्मरण इत्यादि की रचना की है । उनके प्रमुख कविता संग्रहों में हरी घास पर क्षण भर, बावराअहेरी क्योंकि मैं उसे जानता हूं, आंगन के पार द्वार इत्यादि और कहानी संग्रह- विपत्ति का परंपरा कोठारी की बात इत्यादि, उपन्यास– शेखर एक जीवनी, नदी के द्वीप इत्यादि , यात्रा वृतांत अरे यायावर याद रहेगा याद इत्यादि , निबंध संग्रह–त्रिशंकु, आधुनिक साहित्य इत्यादि हैं ।
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय का निधन नई दिल्ली में 4 अप्रैल 1987 को हुआ। ख़ास बात यह है कि अज्ञेय को आज भी उतनी ही शिद्दत के साथ याद किया जाता है जितना उनके समय में उनको याद किया जाता था । अज्ञेय जी की रचनाएं आज भी वर्तमान समय के परिपेक्ष में उतनी ही सजीव हैं , उतनी ही तार्किक हैं और उतनी ही समकालीन है जितनी वह अपने समय में थीं। यही अज्ञेय की कुशलता , दूर दृष्टि और परिपक्वता का प्रमाण है । मार्च के महीने में जन्मे अज्ञेय होली के रंगों की तरह ही विविध रंगों से बहुत भरपूर थे । आज हम उनको याद करके मानो एक युग को याद कर रहे हैं । अज्ञेय की रचनाओं को समझना वास्तव में एक परिपक्व और सूक्ष्म विवेचना करने वाले को ही आसान लग सकता है। उनकी रचनाओं में छिपे गूढ़ अर्थो , भावार्थों और व्यंग को समझना आसान नहीं है । अज्ञेय उस युग के कवि होते हुए भी इस युग में उतने ही लोकप्रिय हैं, सार्थक हैं , प्रसिद्ध हैं और आज भी उन्हें उतने ही मान सम्मान से देखा, पढ़ा और समझा जाता है।