युवा कवि अनिल कुमार केसरी
देई, जिला बूंदी
राजस्थान
न्याय के चरम पर झूलते फाँसी के फंदे को,
पता है सच और झूठ के बीच का फासला ?
उसने देखा है गुनाह के पीछे का सारा सच,
जुर्म की हकीकत उसने आखरी साँसों तक सुनी है।
वह साक्षात् दृष्टा है गुनाह के अंजाम का,
उसकी पकड़ ने अन्याय की ताकत को परखा है ?
रोते हूए आखरी शब्दों में निकले बोलों की,
सुबकती सिसकियाँ उसके कानों से होकर गुजरी है।
बेरहम मौत के फैसले को घुटते आखरी दम तक,
उसने न्याय का चरम निर्णय सुनाते देखा है ?
जकड़कर रखा है उसने गुनाह के गले को ?
अपराध की अंतिम सिसकियों के मौन हो जाने तक।
न्याय और अन्याय के आखरी अखाड़े में
फाँसी के फंदे ने जुर्म को मौत तक पकड़ के रखा है ?
उसने जाने कितने गुनाहगारों को झुलाया है ?
कानून के फैसलों की अंतिम सजा के फंदे पर।
इतने गुनाह और गुनाहों पर मौत के फैसलों पर भी,
अपराध हर बार फाँसी पर लटकने क्यों चला आता है ?
मौत की हर सजा पर फाँसी का फंदा सोचता होगा,
अपराध का यह सिलसिला थम क्यों नहीं जाता है ?