डॉ० अरुण कुमार सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर, इतिहास विभाग,
डी०ए०वी० पी०जी० कालेज, आजमगढ़
हमारे समाज में कृषि एक समय उत्तम व्यवसाय मानी जाती थी पर समय के साथ परिस्थिति बदली और मध्यकाल के अंत में मुगलों की जागीरदारी, जमींदारी और राजस्व नीति के अलावा मराठों की वसूली इत्यादि कारणों से किसानों की दशा में निरंतर गिरावट आने लगी। इस दौर के बाद जब भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का पदार्पण कृषि राजस्व के वसूली क्षेत्र में हुआ तब से अंग्रेजी शासन काल तक किसानों की दशा में निरंतर ह्रास हुआ तथा ये दलित वर्ग में सम्मिलित हो गये।
जब शोषण एवं अत्याचार की पराकाष्ठा सहन सीमा से बाहर होने लगी तो किसानों ने भी अंग्रेजी सत्ता और उनके पालित जमींदारों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इन परिस्थितियों ने अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग किसान संगठनों को जन्म दिया । इस सन्दर्भ में उत्तर प्रदेश में किसान संगठनों की विशेष भूमिका रही, क्योंकि यहाँ के किसानों के संघर्षों के परिणामस्वरूप अखिल भारतीय किसान संगठन अस्तित्त्व में आये और किसानों के हित के लिए आंदोलन को एक नयी दिशा मिली । इससे किसानों में न केवल अपने अधिकार के प्रति जागरूकता आयी, बल्कि संघर्ष के लिए संगठन के महत्त्व को भी ये समझने लगे।
सर्वप्रथम कांग्रेस किसान समस्याओं के समाधान हेतु आगे बढ़ी । कांग्रेस एक राजनीतिक संस्था थी, जिसका मुख्य ध्येय देश की आजादी थी, किन्तु इस देश के किसानों की दुर्दशा से मुक्ति की लड़ाई को भी वह अपने मुद्दों में सम्मिलित करती रही । कांग्रेस के झंडे के नीचे ही महात्मा गाँधी ने सर्वप्रथम नील आन्दोलन की सफल लड़ाई लड़ी, इसी तरह कांग्रेसी नेता सरदार पटेल ने बारदोली आन्दोलन लड़ी और इन्हीं कड़ियों में अन्ततः प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने ही आजादी के तत्काल बाद जमींदारी प्रथा को समाप्त करने में अहम् भूमिका निभाई।
औपनिवेशिक काल में किसानों की समस्याएं अनंत थीं । हम उदहारण स्वरुप सबसे कठोर समस्या नजराना प्रथा को लें । नजराना प्रथा से किसान बहुत डरते थे, क्योंकि जमींदार कब किस नजराने की माँग कर दे। इस प्रथा के तहत प्रताड़ना का आलम यह था की एक बार जनपद प्रतापगढ़ के तालुकेदार की बहन के गाँव ‘गुजारा’ का बंसपती नामक काश्तकार भूस्वामी की बदतमीजी एवं नीच हरकतों से परेशान होकर जब अदालत पहुँचा, तो अदालती कार्यवाही से इस कदर बौखलाया कि अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठा। अदालत को उसे पागलखाने भेजना पड़ा, जहाँ 9 महीने तक उसका इलाज चला।
किसानों से अमानवीय व्यवहार का एक और ढंग मुर्दाफरोशी कानून था। इसके तहत किसी काश्तकार की मृत्यु होने पर भूमि से उसके वारिस को बेदखल कर जमींन को खुलेआम बोली लगाकर ऊँची दर की लगान पर दूसरे काश्तकार को दे दी जाती थी। ‘अवध रेन्ट एक्ट’ की धारा 48 के अनुसार भू-स्वामियों को यह अधिकार प्राप्त था कि सात वर्षीय पट्टे की समय-सीमा पूर्ण होने पर मृत काश्तकार के वारिस को भू-स्वामी बेदखल कर सकता था। किन्तु वे 07 वर्ष पूरा होने का इंतजार नहीं करते थे। परिवार को सहारा देने वाले व्यक्ति की मौत पर जाहिल जमींदार के कारिन्दे व गाँववाले मृतक के अंतिम संस्कार के पूर्व ही उसके जमीन की सौदेबाजी में व्यस्त हो जाते थे। एक काश्तकार ने वी.एन. मेहता के समक्ष बयान देते हुए कहा था, “यह एक नये किस्म का महाब्राह्मण वजूद में आ गया है । जिसे चिता की राख ठण्डी होने से पहले सन्तुष्ट करना पड़ता है।”
उस काल-अवधी में कृषि जीवन आपदाओं की सुनामी से जूझता सा दीखता है । प्राकृतिक आपदा से किसी काश्तकार का मकान गिर जाता था तो उसके पुनर्निर्माण की इजाजत के लिए भू-स्वामी नजर वसूल करते थे। इसी तरह काश्तकारों द्वारा ‘कर’ अदा करने में एवं ‘रकमसेवाई’ में विलम्ब करने पर भी जुर्माना वसूला जाता था। किसी काश्तकार द्वारा नई झोपड़ी लगाने पर अथवा पेड़-पौधा लगाने पर काश्तकार को ‘नजर’ देनी पड़ती थी, यदि किसान इससे मना करता तो बगीचों वाली जमीन को ‘नाजूल’ भूमि (सरकारी भूमि) घोषित करने की धमकी दी जाती थी।
काश्तकारों को भूस्वामी के यहाँ शादी या अन्य उत्सवों के अवसर पर अनिवार्य रूप से ‘न्यौते’ रकम देनी पड़ती थी। भूस्वामियों द्वारा किसानों से बाजार भाव से सस्ते दामों पर अनाज, घी इत्यादि खरीदा जाता था। भूस्वामी जानवरों को चराने के बदले ‘चराई कर’ वसूलते थे। इस कर की उगाही भूस्वामी अनेक चालाकियों व धूर्तता के सहारे करता था, जैसे -अधिकांशतः जमींदार गाँव की सारी परती जमीन को रख’ या आरक्षित जमीन में बदल देता था, यदि उस जमीन पर किसी जानवर का पैर पड़ जाये तो वह दो रूपये दण्ड शुल्क के रूप में वसूलता था।
सिंचाई व्यवस्था की दशा बड़ी दयनीय थी, बारिश के पानी को छोड़ अन्य सभी स्त्रोतों पर जमींदारों का अधिकार था, जिसके चलते वे किसानों को खेतों की सिंचाई में बाधा पहुँचाते थे। जमींदार सार्वजनिक तालाबों, कुँओं आदि से सिंचाई पर नजराना वसूलते थे, जबकि तालाब या कुँआ खोदवाने का खर्च भी काश्तकारों से जमींदार वसूलता था।
इसी तरह जमींदार अपने जानवरों के लिए काश्तकारों से मुफ्त भूसा अथवा बाजार मूल्य से कई गुना कम मूल्य में लेते थे। अनाज के ऊँचे बाजार भाव के कारण इस ‘कर’ की वसूली जमींदारों द्वारा नकद न करके कर्बी या पयाल से दो से दस बोझ की वसूली करते थे। गन्ने की खेती करने वाले काश्तकारों से जमींदार गुड़, गन्ने की पत्तियाँ, गन्ने का रस और गन्ने के बंडल के अतिरिक्त ‘कोल्हूवान कर’ सवा आना प्रति बीघा वसूलता था। जमींदार अपनी जलावन आवश्यकता की पूर्ति के लिए उपले अथवा कण्डों की वसूली करते थे। दुधारू पशुओं के पालकों से दूध, गड़रियों से बकरी एवं ऊन, कम्बल, चमार जाति से जूते व चरसा वसूला जाता था। इसी तरह नाई, धोबी, भंगी आदि से जमींदारों द्वारा बेगारी कराई जाती थी। ‘हारी बेगारी’ प्रथा द्वारा जमींदार अपने खेतों को मुफ्त में जोतवाते थे, तो इसी तरह खरीफ एवं रबी की फसलों की सिंचाई बेड़ी/दोगला से कराते थे ।
औपनिवेशिक शासन काल में अधिकारियों द्वारा जब गाँवों में कैम्प किया जाता था, तो उनके कैम्प लगाने से लेकर सेवा एवं सेवा-सामग्रियों तक किसानों से मुफ्त में लिया जाता था । अधिकारियों का दौरा राजकीय अभिलेख में किसानों की दशा के निरीक्षण के लिए दर्ज होता था, जबकि वे आमतौर पर चिड़ीमारी एवं शिकार में अपना वक्त गुजारते थे। इस दौरान उनके चपरासी घोड़ों के चारे को काश्तकारों के फसलों से प्राप्त करते थे एवं अपने लिए मुफ्त में दूध, अनाज, मुर्गे, बत्तख, और कबूतर भी लेते थे तथा ग्रामीणों से बोझा ढुलवाया जाता था । इस अवसर पर जमींदार काश्तकारों से ‘नजर’ नामक ‘कर’ वसूलता था। इन गैर कानूनी ‘करों’ की उगाही कमिश्नरावन, डिप्टी कमिश्नरावन, लट्टयावन, उटाँवन, मुड़ावन, अन्नाप्रशान आदि नामों से की जाती थी ।
जमींदार दशहरा, होली, ईद आदि मौके पर त्यौहारों पर ‘नजर’ कर लेते थे। हद तो यह थी कि, मुसलमान तालुकेदार केवल ईद के साथ दशहरे पर भी नजर लेते थे। इसी तरह जब कोई तालुकेदार राजा की उपाधि धारण करता था, तो वह ‘रजौटी’ कर और गाड़ी खरीदता था ‘मोटरावन कर और नई हाथी खरीदने के लिए ‘हाथियावन कर’ लेते थे। इसी तरह घोड़ा खरीदने के लिए ‘घोड़ावन कर वसूला जाता था और घोड़े के बूढ़े हो जाने पर लॉटरी बेचकर जमींदार मुनाफा कमाते थे। जमींदारों के कर वसूलने का कोई मानक नहीं होता था; यथा- ‘ग्रामोंफोनिंग कर’ एक जमींदार अपने पुत्र के ग्रामोंफोन बाजा खरीदने पर लगाया था, क्योंकि उसका आवारे लड़के ने गानों की आवाज गाँव वालों को सुनायी थी।
तालुकेदारों पर मुकदमों का अत्यधिक बोझ होता था, जिसके खर्च के लिए भी वे काश्तकारों से कर वसूलते थे। इसी तरह तालुकेदार द्वारा कोई ‘दान’ करता था, तो उस धनराशि की वसूली काश्तकारों से की जाती थी। जैसा सन् 1920 ई0 में लखनऊ विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए सिसेंडी जागीर ने 50,000 रूपये ‘दान’ करने का वचन दिया, जिसकी राशि को उसने लगान की तरह वसूली किया। जवाहरलाल नेहरू ने ऐसे दान को ‘प्रतिनिधिक दान’ की संज्ञा दी थी। यद्यपि ऐसे अवैध कर की वसूली गैर कानूनी थी, किन्तु बेसहारा किसान बेदखली के डर से अदालत में न्याय के लिए नहीं जाते थे। इसलिए व्यवहार में ऐसे कर वसूले जाते थे, क्योंकि एक चमार या कुर्मी अपने ठाकुर भूस्वामी के विरोध में मुकदमा करने के बाद उस गाँव में रहे, ऐसा संभव नहीं था। इसी तरह ज्यादातर तालुकेदारों को ऑनरेरी या स्पेशल मजिस्ट्रेट अथवा मुन्सिफ का का दर्जा मिला होता था, जो अपने वर्ग तालुकेदार के पक्ष में ही निर्णय देते थे।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान युद्ध खर्च के लिए किसानों से धन उगाही के निमित्त उत्पीड़न और असंतोष अपने चरम पर पहुँच गया । करीब सभी तालुकेदारों ने ऐलान कर दिया था कि भूराजस्व के आधे के बराबर लड़ाई चन्दा वसूला जायेगा, जबकि व्यवहार में उन्होंने साल भर के राजस्व के बराबर चन्दा वसूले। साथ ही साथ किसानों को बेदखली का भय दिखाकर युद्ध के लिए सेना में भर्ती होने के लिए विवश किया गया। युद्ध में एक काश्तकार ने अपने बेटे को युद्ध नहीं करवाने के बदले तालुकेदार को 200 रूपये दिये थे। तालुकेदारों ने सेना में भर्ती होने के समय वादा किया था कि बकाया लगान माफ होगा, जंग के दौरान लगान से मुक्ति और जंग से लौटने पर सस्ती दरों पर जमीन का आश्वासन इत्यादि । किन्तु जब युद्ध समाप्त हुआ और सैनिक अपने घर लौटे, तो जमींदार अपने वायदों से साफ-साफ मुकर गये। युद्ध के दौरान जिन सैनिकों के माता-पिता की मृत्यु हो चुकी थी, उन्हें अपनी जमीन पुनः पाने के लिए भारी भरकम नजराना देना पड़ रहा था। कई सैनिकों की विधवाओं को ‘मुर्दाफरोशी प्रथा’ के तहत बेदखल कर दिया गया। दूसरी ओर युद्ध के दौरान अनाजों के दाम आसमान छूने लगे थे, जिनका लाभ सूदखोरों को मिला अर्थात् प्राप्त रकम को उनके कर्ज व ब्याज देने में चुकता किया जाता था और तालुकेदार बढ़ी कीमतों से निपटने के लिए नजराना वसूल करते थे।
संक्षेप में, सम्पूर्ण प्रान्त के काश्तकारों में अवध और पूर्वी जिलों की स्थिति अत्यंत खराब थी, जबकि पश्चिम जिलों में औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के विस्तार से व्यवसाय के अन्य अवसरों की उपलब्धता बढ रही थी। इसी तारतम्यता में पश्चिम जिलों में जनसंख्या का घनत्त्व बढ़ने के बजाय कम हो रहा था, कानूनी दृष्टि से काश्तकार अधिक सुरक्षित थे और दखलकारी काश्तकारों की संख्या में वृद्धि हो रही थी, चौथा गैर कानूनी ‘कर’ कम ही वसूले जाते थे, नहरों से सिंचाई की सुविधा होने के वहां सूखे में भी कृषि उन्नत थी। दूसरी तरफ अवध में औद्योगीकरण की प्रक्रिया अति-मंद थी, जिसके चलते व्यवसाय के अन्य अवसरों की उपलब्धता का आभाव था । इन कारणों से असंतोष की आवाज सर्वप्रथम अवध में उठी जो प्रथम विश्वयुद्ध के बाद उपजी आराजक परिस्थितियों में अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी थी।