रत्ना कौल जी द्वारा लिखित इस कहानी का नाट्य रूपांतरण एवम दृश्य परिकल्पना प्रख्यात नाट्य निर्देशिका चित्रा मोहन जी ने किया है 16 जनवरी, 2024 को संत गाडगे जी महाराज प्रेक्षागृह, लखनऊ में इस नाटक का सफल मंचन हुआ ..प्रस्तुत है “किस्सा गंगा जमुनी मुहल्ले का”
(मंच पर अंधेरा है। फ़िल्म’चौदहवी का चाँद’ का गीत ये लखनऊ की सरज़मीं का मुखड़ा (स्थायी) और अंतरा उभरता है/गीत के बोल पर (preset) पर हल्का प्रकाश आने के साथ साथ कलाकारों द्वारा मंच पर निर्देशनुसार नृत्य-संयोजना और दृश्य की स्थापना होगी / इस पूरे गतिविधि में लखनऊ के कुछ ख़ास प्रतीक जैसे इमामबाड़ा, रूमी गेट, मनकामेश्वर मंदिर, सिद्धनाथ मंदिर, अलीगंज हनुमान मंदिर, बारादरी के चित्र दिखाई देंगे, साथ साथ अमीनाबाद की तंग गलियाँ और बाज़ार, हज़रतगंज की सड़के आदि भी चित्र में दींखेंगे जो कलाकारों द्वारा मंच पर नृत्य गतिविधि के दौरान प्रदर्शित किये जा सकेंगे। गीत की समाप्ति होते होते मंच के भाग में सूरैयाबेग़म का घर नज़र आता है। एक चौकी पर पानदान, दलिया में पान और सारौता, एक हुक्का भी रखा दिखाई देता है। हल्का हल्काप्रकाश मंच के अग्रभाग में आता है, जहाँ साइकिल पे सवार एक युवक पीछे दूसरे युवक को बिठाए अन्दर आता है, दोनो साएकिल एक कोने में खड़ी कर के सामने से आती दो लड़कियों को देख कर ठिठक जाते है।)
(एक लड़की बुर्के में है, दूसरी सलवार-क़मीज़ दुपट्टे में है, दोनो के हाथों में किताबें हैं। दोनो खिलखिलातीं हुई आगे आती है तभी बुर्क़वाली लड़की की चप्पल टूटती है, वो लड़खड़ा जाती है, किताबें ज़मीन पर गीर जाती है। ये देख दोनो लड़के दौड़ कर आगे आते हैं, एक चप्पल जोड़ने की असफल कोशिश करता है, दूसरा किताबें उठाकर सहेजने में मदद करता है।)
लड़का (नासिर) – (टूटी चप्पल लटकाए हुए) – हाय रे क़िस्मत ! तू चप्पल ना हुई गोया किसी आशिक़ का दिल हो गई, जो सरे राह टूट जाया करता है।
बुर्क़वाली लड़की:- हाय रे क़िस्मत ( दूसरी चप्पल उठाकर) तू चप्पल ना हुई गोया किसी थानेदार का डंडा हो गई जो सारे राह बरस जाया करता है। (दोनो हँसती हैं)
लड़का (आतिश):- नाराज़ ना हों मोहतरमा.. मेरा दोस्त थोड़ा शरीर है मगर बतमीज़ नहीं। ये लीजिए अपनी किताबें (दूसरी लड़की से), देखिये… इनकी चप्पल टूट गई है, चलने में परेशानी होगी, आप दो घड़ी बैठ जाए तो मेरा दोस्त….. नासिर… नाम है इसका, ये चप्पल बनवा लाएगा- (नासिर गुस्से में घूरता है फिर मुस्कुराता है…।)
नासिर:- जी जी… बिल्कुल दुरुस्त है, लाइए मैं आपकी चप्पल बनवालाता हूँ (लड़की चप्पल देती है, नासिर जाता है।)
लड़का (आतिश):-जी मेरा नाम आतिश है, आप दोनो का नाम जान सकता हूँ…?
लड़की (मनोरमा):- मैं मनोरमा, बग़ल वाली गली में जो राधेश्याम संदफ जी रहते है, उनकी चचेरी बहन हूँ, बी. ए. करने लखनऊ आइ हूँ।
आतिश:- ओह.. तो आप हमारे संदफ साहेब यानी राधेश्याम पांडेय जी की बहन निकली! भाई उनके घर शेरों शायरी की महफ़िल में हमारा तो खूब आना जाना होता है।
मनोरमा:- अच्छा तो जनाब शायर है, ये आतिश तख़ल्लुस है या नाम?
आतिश-बंदे को कहते है आकाश माथुर… आतिश तख़ल्लुस है।
बुर्क़वाली- वाह आतिश मियाँ… आपकी शायरी के बड़े चर्चे है। घर- घर में आपके कलाम, आपकी ग़ज़लें पढ़ी जाती है। हमारे अब्बू आपके फैन है।
आतिश- जी ज़र्रानवजी है आपकी, वैसे आपसे भी तर्रूफ हो जाता
बुर्क़वाली- जी मैं नवाजुद्दीन साहब.. वही सफ़ेद कोठी वाले की छोटी बहन रक्शा हूँ। मनोरमा के साथ ही पड़ती हूँ।
आतिश-आप दोनो से मुलाक़ात हो गई ये ख़ुशक़िस्मती है हमारी (तभी नासिर चप्पल लेकर आ जाता है)।
नासिर- ख़ुशक़िस्मती आपकी है मोहतरमा, जो ज़नाब मोची साहबमिल गए, दुकान बड़ा चुके थे। हज़ार मिन्नतें कीं तो राज़ी हुए।
रक्शा- शुक्रिया… नासिर मियाँ-कितने पैसे हुए?
नासिर –तौबा तौबा, हम आपसे पैसे लेंगे…?
रक्शा-देखिए…, ये तो नाइंसाफ़ी है, पैसे तो लेने पड़ेंगे।
नासिर-(आतिश से) – अमाँ यार आतिश, आप ही कुछ कहिए…
आतिश-हम क्या कहें? जो कहना है, आप खुद कहे-
नासिर-
ये सिलसिला लेनदेन का छोड़िए ज़नाब
मौक़ा-ए-ख़िदमत तो दीजिए ज़नाब
आज टूटी एक, तो बनवा लाए हैं ज़नाब
कल शौक़ से तोड़िए… दूसरी भी ज़नाब ॥
मनोरमा-
भाभी हूँ आपकी, ठहरिए तो ज़नाब
ईनाम समझ के पैसे लीजिए ज़नाब ॥
(आतिश वाह कहते है, मनोरमा झेंप जाती है, दोनो लड़कियाँ मुस्कुराती है, सब खिलखिला कर हँसते है तभी नेपथ्य से शोर सा उठता है……..)
“बुडुन खाला-बुडुन खाला,
सफ़ेद बाल, सुपन्ना ढीला-ढाला,
कुर्ता तेरा दो जेबों वाला / चश्मा कमानी वाला…।
चिढ़ी हुई सी बुडुन खाला का प्रवेश-
बुडुन-रोनामुरादों, शैतान की औलादों, ख़ुदागस्त करे ऐसे बदजुबानो को। ए तौबा… हैं… लड़के है या जी का जंजाल। कमबक्खतो को ज़रा भी शर्म लिहाज़ नहीं है, बड़े बुजुर्गों का?………
(तब दोनो लड़कियाँ बुडुन खाला को देखकर निकल जाती है। आतिश और नासिर भी निकलने को होते है तभी बुड्डून खाला साइकिल पकड़ लेती है। नासिर पीछे बैठा है… बोल पड़ता है)
नासिर-लहौल विला कूबत….साइकिल छोड़िए बुड्डी खाला.. हम गिर पड़ेंगे।
(बुड्डुन खाला उन्हें खींचकर गिराय ही देती है, नासिर हाय-हाय करता उठता है)
बुडुन खाला- ए मरदुए… मैं बुड्डी खाला हूँ! अभी देख कितना ज़ोर है मेरे बाजुओं में।ए, मेरे हाथ-पाव तो चलते ही चलते है, जुबान छुरी से भी ज़्यादा तेज़ चलती है, बड़ा आया हमें बुड्डी खाला कहने वाला. अरे सिरफिरे? नाशूके लौंडे, बुड्डी कहने से पहले तेरी जुबान न ऐंठ गई? गटर के कीड़े, बुड्डी होगी तेरी दादी, नानी… बुड्डा होगा तू, तेरी जवानी, हाय हाय, हमें बुड्डी कहता है?ए हैं अभी मेरी उम्र ही क्या हुई है, वो तो कमबख़्तवक़्त की मार ऐसी पड़ी कि ये महजबी बहारें
गुल से उजड़ा चमन हो गई।
आतिश- माफ़ करे, मेरे दोस्त से जो भी बहदबी हुई उसके लिए मैं आपसे माफ़ी माँगता हूँ…महज़बी खाला।
बुड्डुन- आए हाय-क्या शीरी जुबान पाई हैं। लफ़्ज़ तो मोती से बिखरते हैं, अदब, लियाक़त इसे कहते है। जीते रहिए बरखुरदार। अल्ला रहम करे आप पर और आपके इस दोस्त पर भी, जो हमें ख़ामख़ा बुड्डी बना रहा।
नासिर-अब गुस्सा थूक भी दो माहज़बी खाला। हो गई हमसे नादानी। लीजिए कान पकड़ते हैं…. अब हम जाए? इजाज़त हैं..?
(बुडुन हाँ बोलती है… दोनो साइकिल पर बैठकर बाहर जाते है तभी नासिर खुद कर उतरता है और शैतानी से बोलता है……..)
नासिर – अरे ….ख़ुदा हाफ़िज़ बुड्डी खाला।…. (कहकर भाग जाता है) बुड्डुन फिर चिल्लाती है…..
बुड्डून- ठहर जा, तू टिड्डे की औलाद, रुक जा…..तेरी टांगे तोड़ कर चूरमा बनाऊँगी, करमजले, नफ़रमान, बेईमान, तुझ पर शहद की मक्खियाँ टूट पड़े, तेरा बेड़ा गर्क हो जाए
(तभी बुडून थक कर बैठ जाती है….तभी नासिर पलट कर आता है, खाला को गले लगाकर माफ़ी माँगता हैं। अपनी ज़ेब से डिब्बा निकालकर पान खिलाता है, फिर खाला बोलती है…………)
बुड्डन- देखा-देखा आप सबने….. ये गली के लड़के, नोज़वान सब छेड़ते है मुझे बुड्डी खाला कह कह कर के। ‘बुड्डी’ नाम मेरी छेड़ बन गया है, लेकिन सब प्यार भी बहुत करते है मुझे। मुहल्ले की माहज़बी खाला हूँ मैं। जिस घर जाती हूँ रौनक़ आ जाती है वहाँ। अब आए क्यों नही..? जाने कितनी कहानियाँ परी पड़ी मेरे कुर्ते की जेबों में। जितनी तितलियाँ हैं आसमानो में, जितने फूल हैं बागों में, जितने सितारे हैं फ़लक पर, उससे
कहीं ज़्यादा कहानियाँ जुबानी याद है मुझे।…. क़सम खिला लो जो रत्ती भर झूट बोलती तो…?
हर घर का हाल जानती हूँ, पर करम ख़ुदा का, सबका भला चाहती हूँ। चार दिन की चाँदनी, आँधी से ज़्यादा काट गई, बची-खूची सबके साथ, प्यार मोहब्बत से कर जाए तो ऊपर वाले की मेहरबानी….
ए हां… याद आया, अभी तो सूरेया बेग़म ने बुलाया था क्या? कौन सुरेया बेग़म, अजी वही हमारे नवाजुद्दीन साहब की शरिके हयात आज उनकी कहानी सुनाती हूँ तो सुरेया बेग़म तीन बहुओं की लाड़ली सास, शोहर की ख़ास,बेटे-बहुओं के लाड़-प्यार, इज्जत-अफ़जाई से खिली-खिली रहती हैं (ये कहते कहते सुरेया बेग़म वाले हिस्से में आ जाती है) ए! क्यों न हों… बेटे-बहुए हाथों-हाथ जो रखते हैं।
(मंच पर गाव तकिये के सहारे बैठी सुरेया नज़र आती है। बहुए उन्हें घेरे हैं, कोई नई चूड़ी पहना रही, कोई उनकी पाज़ेब ठीक कर रही, कोई पान लगा कर गिलोरि थमा रही है। तभी दूर से आते नवाजुद्दीन को देखती बुड्डुन खाला बोल पड़ती है)
(अंदर से नवाजुद्दीन साहब आ रहे है)
बुड्डून- ये जो सफ़ेद रेशमी कुर्ता सिल्क का, नीले रंग का तहबंद और ये जो खूबसूरत नई जैकेट पहनी है न इन्होंने… ये छोटी बहू लाई है। तो ये ज़नाब नवाजुद्दीन मियाँ जो कितनी शान से गाव तकिए के सहारे सहन में रखे दीवान पर पसर कर बैठ गए है।
ऐ हैं..! ख़ुदा इन सबको नज़रें बंद से बचाए – नक्ख़ास, अजी अपने लखनऊ का नक्ख़ास बाज़ार, वोहि रेडीमेड कपड़ों का ढेर ठेले पर रख कर बेचने वाले नब्बन के दिन ऐसे फिरेंगे किसी को गुमान भी नहीं था–‘अबे नब्बन’ ऐसा कह कर पुकारे जाने वाले नब्बन मियाँ अब नवाजुद्दीन साहब कहलाते हैं-
(संगीत…………
ख़ुदा झूट ना बुलवाए, क़िस्मत के रंग देख रहे हैं लोग, ढलती उम्र का बोझ इनके काँधो पर नहीं पड़ा है, बल्कि उम्र बड़ने के साथ वह और ज़्यादा चौड़े
मज़बूत और तने हुए दिखने लगे हैं
(सारे लोग सामूहिक हँसी गूँज उठती है…..)
बहू-१-वाह अब्बू जान वाह…. आप कितने प्यारे क़िस्से सुनाते हैं।
बहू-२-क़िस्से ही नही अब्बा मियाँ गाते भी बहुत उम्दा हैं…. अब्बा कुछ सुनाइए न
बहू-३-अब्बू आप मेहंदी हसन साहब की ग़ज़ल सुनाइए, एकदम वैसा ही गाते है आप।
नवाजुद्दीन-अरे-रे आज तुम सब ने भंग चढ़ाई हैं क्या? या फिर सबके सब मिलके मेरी ही टाँग खिचने पर आमादा हो।
सुरेया-अजी क्यों बहाने बना कर बच्चों का दिल तोड़ते हैं..?
(तब तक बड़ा बेटा अक़बर मिठाई लिए अंदर आता है)
अक़बर-अब्बा-अम्मी…लीजिए..मिठाई खाइए…..एक ख़ुशख़बरी लाया हूँ।
(सब एक साथ बोलते है- ख़ुशख़बरी-कैसी ख़ुशख़बरी?)
अक़बर-हमारे बिज़नेस के लिए हमें मुंबई और दुबई से दो बड़े ऑर्डर मिले हैं। लाखों का मुनाफ़ा हाथ आया है
(सब हाथ उठा कर ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करते है और मिठाई खाते है, तब तक बुडुन भी अंदर आ जाती है, दुआ-सलाम के साथ मिठाई खा कर आशीष देती हैं)
(शेष अगले अंक में )