Skip to content
वीथिका
Menu
  • Home
  • आपकी गलियां
    • साहित्य वीथी
    • गैलिलियो की दुनिया
    • इतिहास का झरोखा
    • नटराज मंच
    • अंगनईया
    • घुमक्कड़
    • विधि विधान
    • हास्य वीथिका
    • नई तकनीकी
    • मानविकी
    • सोंधी मिटटी
    • कथा क्रमशः
    • रसोईघर
  • अपनी बात
  • e-पत्रिका डाउनलोड
  • संपादकीय समिति
  • संपर्क
  • “वीथिका ई पत्रिका : पर्यावरण विशेषांक”जून, 2024”
Menu

महाप्राण निराला

Posted on February 19, 2024

सुमित उपाध्याय

प्रबंध संपादक, वीथिका ई पत्रिका

21 फ़रवरी, 1897 को जन्मे हिंदी के महाप्राण कवि निराला की दो लम्बी कवितायेँ, सरोज स्मृति और राम की शक्ति पूजा छायावाद की दो सशक्त रचनायें हैं और साथ ही एक संघर्षरत रचनाकार की पराजय से लेकर शक्ति-साधना करते हुए विजय प्राप्ति तक सम्पूर्ण गाथा का सचित्र वर्णन करती हैं । अगर यह सत्य है कि एक रचना से अधिक महत्वपूर्ण उसकी रचना प्रक्रिया होती है तो अपनी पुत्री सरोज की मृत्यु के बाद टूट चुके निराला फिर से अगले ही वर्ष अपनी तपस्या आरम्भ करते हैं, अपनी काव्य-शक्ति को पुनः साधते हैं और राम की शक्तिपूजा जैसी कविता लिख कर साहित्य के समरक्षेत्र में ही नही जीवन के युद्ध में भी अपनी जीवंतता सिद्ध करते हैं ।

हिंदी साहित्य में शोक गीत कम ही लिखे गये और किसी पिता ने पुत्री पर कोई शोक गीत लिखा हो इसकी तो पाश्चात्य साहित्य में भी झलक नही मिलती । यूरोप के शोक गीतों में दुःख का ऐसा विकराल रूप कहीं नहीं है । किन्तु शेक्सपियर के किंग लियर में मृत्यु के कुछ छण पूर्व जब लियर अपनी मृत कन्या कौर्डीलिया का शव लिए मंच पर आता है:

Why should a dog, a horse, a rat, have life,

And thou no breath at all ? Thou’ It come no more,

Never, never, never, never never !

निराला का क्रुद्ध-विक्षुब्ध स्वर लियर की करुण व्याकुल पुकार से मिलती-जुलती है । सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ‘सरोज स्मृति’ कविता हिंदी में अपने ढंग का एकमात्र शोकगीत है।….निराला ने इसे अपनी एकलौती पुत्री सरोज की मृत्यु के पश्चात लिखा था। बेटी के रंग-रूप में निराला जी को अपनी पत्नी का रंग-रूप दिखाई पड़ता हैं।

जन्म के ढाई वर्ष में माँ को खो देने वाले सुर्जकुमार तिवारी को पढ़ने का सही अवसर नही मिला । जीवन के अपार दुःख झेलने के बाद सन 1920 के गांधी जी के असहयोग आन्दोलन ने मन को हिलोड़ा तो “सन ,20 के बसंत में सुर्जकुमार ने जन्मभूमि पर एक गीत लिखा :

बंदू मैं अमल-कमल,-/चिर सेवित चरण युगल

शोभामय शान्ति निलय पाप ताप हारी,/मुक्तबंध, घनानंद मुद मंगलकारी ।।

और यहीं से सुर्जकुमार को नया जीवन मिला और सूर्यकांत तिवारी का उदय हुआ ।

यह सृजनशीलता एकदम से किसी भावावेश की देन नहीं थी । जिस जमीन पर निराला का जीवन चल रहा था निराला जानते थे शब्दों को बोना है, बीज के पकने का इंतज़ार करना है-वह शब्दों के दाने आने का इंतज़ार करते थे ।

केदारनाथ सिंह जी की कविता मानो निराला के इतिहास की ओर ले जाती है :

“ चुप रहने से कोई फायदा नहीं

/मैंने दोस्तों से कहा और दौड़ा

सीधे खेतों की ओर

/कि शब्द कहीं पक न गये हों

पकते हुए दाने के भीतर

/शब्द होने की पूरी संभावना थी” (ज़मीन पक रही है )

स्वयं निराला इस बात को महसूस ही नहीं व्यक्त भी करते थे, साईमन कमिशन जब लखनऊ में आया और पुलिस ने लखनऊ की निहत्थी जनता पर लाठियां बरसायीं तो निराला कहते हैं : “ स्त्रियों और बच्चों के अंगो पर डंडों की मार और घावों से बहते हुए रक्त को देखकर अंग्रेज़ सरकार के लिए हमारे कोश में उपयुक्त शब्द नही हैं; मुमकिन है, पीछे गढ़ लिए जायें ।”

“शब्दों को पीछे गढ़ लेने” का इंतज़ार करने वाले निराला ने जब ‘ सरोज स्मृति’ में कहा –

“ दुःख ही जीवन की कथा रही/क्या कहूँ आज जो नहीं कही !

या जब “ राम की शक्तिपूजा” में रघुपति श्री राम के नयन से तारों सी आंसू की बूंदें ढुलक पड़ीं – “टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल,/संदिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल

बैठे वे वही कमल लोचन, पर सजल नयन,/व्याकुल -व्याकुल कुछ चिर प्रफुल्ल मुख,निश्चेतन ।

निराला के लिए दुःख या वियोग नया नहीं था । माँ के न रहने के बाद पिता रामसहाय ने लाड़-प्यार में कोई कमी न की थी । जीते जी मनोहरा देवी से झगड़ने वाले निराला, उनकी मृत्यु पर ही जागे ।

यह पर्दा क्या मृत्यु ही उठा सकती थी कि वह मनोहरादेवी की वास्तविक छवि देखें।………..एक दिन वह अवधूत के टीले पर बैठे थे; तभी कुल्ली ने आकर कहा”मैं जानता

हूँ, आप मनोहरा को बहुत चाहते थे । ईश्वर चाह की जगह मार देता है, होश कराने के लिए ।”

निराला को ब्रह्मज्ञान मिला । पर लेखनी नही उठी, मानो उसे अभी और इंतज़ार करना था ।

चाहे उनके निजी जीवन का व्यक्तित्व हो या फिर साहित्यिक जीवन का, निराला जो जीते थे वही लिखते थे। जो लिख देते वही जीते थे । उनके जीवन और साहित्य में कहीं कोई विसंगति नही मिलती है इसीलिए उनका निजी दर्शन उनके साहित्यिक सृजन के रूप में समाज के समक्ष आया है ।सृजन का क्षण आया तो पहले “जन्मभूमि की वंदना” लिखा यद्यपि दुःख, वेदना भीतर थी पर वह निराला के महान व्यक्तित्व के आगे नतमस्तक थी । शांतिप्रिय द्विवेदी जी ने निराला को लिखे अपने पत्र में स्पष्ट कहा,“ वेदनाओं ने आपको बहुत प्यार किया है और आपके ह्रदय ने करुण रस को, विश्व के व्यथित मात्र को। यही अदृश्य प्रभावोत्पादक प्रणय ही तो आपको अगली शताब्दियों के लिए अमर कर देगा” –

निराला की यह सारी साधना अपने कविकर्म और उसके विश्वास पर टिकी थी । पर अपनी आर्थिक स्थिति और दायित्वों को लेकर निराला चिंतित रहते थे । साधक निराला, व्यक्ति निराला पर हावी था सो रचना रुकने न पायी, पर सरोज की मृत्यु ने जैसे 1919 के बाद से 1934 तक की साधना पर प्रश्न खड़ा कर दिया । सरोज की मृत्यु ने निराला के सारे जीवन की सार्थकता और निरर्थकता का प्रश्न बड़े विकट रूप में उनके सामने प्रस्तुत कर दिया ।जिए तो किसके लिए। अब तक जी कर जो कुछ झेलते रहे, उसका फल क्या मिला ?

चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण /कह-“पितः, पूर्ण आलोक वरण

करती हूँ मैं, यह नहीं मरण/ ‘सरोज’ का ज्योति:शरण-तरण –

निराला की समझ में उस भयावह घटना के लिए दुलारेलाल भार्गव कम जिम्मेदार न थे।

यदि उन्होंने निराला की प्रतिभा को पहचाना होता, उनके परिश्रम का उचित मूल्य चुकाया होता तो यह स्थिति न आती ।”

जाना तो अर्थागमोपाय, पर रहा सदा संकुचित-काय

लख कर अनर्थ आर्थिक पथ पर/ हारता रहा मैं स्वार्थ-समर”(सरोज स्मृति )

ठीक इसी समय निराला की आलोचना भी शिखर पर थी ।सम्मेलनों में उन पर व्यंग्य किये जा रहे थे । निराला हर बाण को अकेले झेल रहे थे ।

देखें वे; हंसते हुए प्रवर /जो रहे साथ देखते सदा समर,/

एक साथ जब शत घात घूर्ण/आते थे मुझ पर तुले तूर्ण

देखता रहा मैं खड़ा अपल/ वह शर क्षेप, वह रण-कौशल ।( राम की शक्ति पूजा )

निराला ने आंसू नही गिराए । उनका दुःख उनके अन्तस् में कहीं जम गया ।अब वह पहले वाले निराला नही रह गये, अब वह पहले जैसे कभी नहीं हो सकते ।… निराला ने मन की सारी ताकत बटोर कर अपने को दुःख से अलग किया । सरोज स्मृति “ सुधा” में प्रकाशित हो गयी । दुःख समाप्त न हुआ था, प्रश्न बन गया था । रावण जीत रहा था । उसके बाणों ने हाहाकार मचा दिया था । वह अपराजेय था ।

“रवि हुआ अस्त :ज्योति के पत्र पर लिखा अमर /रह गया राम -रावण का अपराजेय समर”

इसके बाद जब उन्होंने शय्या पर प्रेमचन्द को सामने देखा, तो जैसे एक साधक की हार दिख पड़ी । शक्ति की यह एकपक्षीय यात्रा उन्हें अच्छी नही लगी । एक रचयिता अपने अंदर के द्वंद्व से लड़ता है, वह उन परम्पराओं से जूझता है जो उसके लिए बाधक हैं जो उसे शक्तिहीन किये जा रहीं हैं । यही तो उसकी साधना है । यही तो संतुलन है । ‘राम की शक्तिपूजा’ में निराला के राम केवल लीलामय भगवान ही नहीं, बल्कि जीवन के जागतिक संघर्ष से जूझने वाले राम हैं।

वे कभी-कभी निराला की ही तरह असमर्थ, असहाय और निराशापूर्ण अनुभव के दौर से गुजरते हुए दिखते हैं ।

“अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल/भूधर ज्यों ध्यानमग्न ;केवल जलती मशाल ।

स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय,रह -रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय;”

हर तरफ अन्धकार ही तो था। साहित्य ने दिया ही क्या था ?यह सारी साधना जब प्रकाशकों के सामने गयी तो उन्होंने निराला से योग्यता पूछी । डिग्रियां निराला के पास न थीं, इसका अभाव उन्हें सालता था । पैसे न थे, स्वयं न सही रामकृष्ण और सरोज को भी तो डिग्री न दिला पाए। छायावाद की स्थापना में घुल गये निराला और बदले में विश्वविद्यालयों के अध्यापकों से आलोचना मिली । सामने प्रेमचन्द थे, शय्या पर । रोगशय्या पर पड़े हुए निर्बल प्रेमचन्द ने निराला की चेतना के उन स्तरों को छुआ जो अब तक सोये थे। जिनसे अब तक निराला के मन का तार न जुड़ा था ।………अंधकार केवल अन्धकार, आगे पहाड़ पीछे समुद्र मनुष्य कहाँ जाये कहाँ से शक्ति पाए ,चारों ओर विरोध कोलाहल, आकाश भी जैसे पराजित मनुष्य पर अट्टहास कर रहा हो । धिक्कार है इस जीवन को जिस में पराजय ही हाथ लगी । पर निराला लिखना नही छोड़ सकते …….

और – “ राम ने जप करना प्रारम्भ किया । जप के स्वर से आकाश काँप उठा, मन एक चक्र से दुसरे चक्र तक उपर उठता चला गया । सहस्त्रार तक पहुँचने ही वाला था की दुर्गा आयीं और पूजा का अंतिम कमल उठा ले गयीं । सिद्धि के अंतिम क्षण में विघ्न पड़ गया ।

ये अंतिम कमल सरोज थी । क्या निराला हार जाते ? नहीं उन्होंने साधना में स्वयं के अर्पण का ठान लिया । निराला रुक नही सकते थे। शक्ति को प्रसन्न होना ही था ।

वर्ष 1936, 8 अक्तूबर को प्रेमचन्द शरीर छोड़ गये । और 10 अक्टूबर को “ भारत” में राम की शक्तिपूजा” प्रकाशित हुई । 1935 में “ कन्ये, गत कर्मों का अर्पण /कर, करता मैं तेरा तर्पण” करने वाला निराला ने 1936 में लिखा –“ होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!/कह महाशक्ति राम के वंदन में हुई लीन ।”

महिषादल में जन्मा सुर्जकुमार तिवारी जब गोमती के तट पर गाँधी जी से मिलता है तो वह महाप्राण कवि सूर्यकांत तिवारी “निराला” बन चूका होता है । निराला ने कहा, “अब किसी की आलोचना से, किसी की तारीफ़ से आगे आने की अपेक्षा मुझे नहीं रही । मैं खुद तमाम मुश्किलों को झेलता हुआ,अडचनों को पार करता हुआ, सामने आ चूका हूँ ।”

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Recent Posts

  • वीथिका ई पत्रिका का मार्च-अप्रैल, 2025 संयुक्तांक प्रेम विशेषांक ” मन लेहु पै देहु छटांक नहीं
  • लोक की चिति ही राष्ट्र की आत्मा है : प्रो. शर्वेश पाण्डेय
  • Vithika Feb 2025 Patrika
  • वीथिका ई पत्रिका सितम्बर 2024 ”
  • वीथिका ई पत्रिका अगस्त 2024 ” मनभावन स्वतंत्र सावन”
©2025 वीथिका | Design: Newspaperly WordPress Theme