जय प्रकाश नारायण मिश्रा
प्रयागराज
पारिवारिक, सामाजिक, नैतिक और राजकीय मर्यादा में रहकर भी पुरुष उत्तम किस तरह हो सकता है यह “मर्यादा पुरुषोत्तम” राम का जीवन हमें समझाता है। स्वयं को मानव कहने वाले राम देवकोटि में कैसे पहुंच गये। यह रामायण दर्शाती है। राम में देवत्व स्वयं राम ने निर्माण किया था । विकारों, विचारों व व्यवहार में राम ने मानव-मर्यादा नहीं छोड़ा, इसलिए वे “मर्यादा पुरुषोत्तम” कहलाते हैं।
मानवजाति राम बनने का ध्येय और आदर्श रखे इसलिए महर्षि वाल्मीकि ने राम का चरित्र-चित्रण किया| सद्गुणों का शिखर और उसका समुच्चय अर्थात् राम । ‘राम के गुण अपने में लाकर मैं राम बनूंगा’ ऐसी महत्वाकांक्षा प्रत्येक मानव के मन में निर्माण करने के लिए ऋषि वाल्मीकि ने लेखनी उठायी। जिसे राम बनने की इच्छा हो, जिसे नर से नारायण बनने की इच्छा हो, उसे राम का एक-एक गुण लेकर उसे आत्मसात् करना चाहिए। ऐसा स्वयं का निर्माण करनेवाला व्यक्ति सचमुच “राम” बनकर “राम” की पूजा करेगा’।
राम चार भाई थे परन्तु उनमें कभी भी विवाद नहीं हुआ क्योंकि “त्याग में आगे और भोग में पीछे” यह उनका जीवन-मंत्र था । स्वार्थत्याग की पराकाष्ठा अर्थात् राम । राम की मातृ-पितृभक्ति अनुकरणीय है। वन जाने की पिता की आज्ञा का लेशमात्र दुःख नहीं । राज्याभिषेक की बात सुनने पर या वन जाने का आदेश स्वीकारते समय राम के चेहरे के भाव दोनों परिस्थितियों में समान थे। पिता का शब्द तत्काल मान्य किया । ऐसी प्रसन्नता अर्थात् राम। प्रभातकाल में पांच बजे से सात बजे तक के समय को राम की याद में ‘राम प्रहर’ इसीलिए कहा जाता है। जिस कैकेयी माता के कारण यह प्रसंग उपस्थित हुआ उसी माता को वन प्रस्थान करते समय, विदा-आज्ञा लेते समय आदर पूर्वक प्रणाम कर कहते हैं, “मुझे वन-गमन की आज्ञा दो मां ।” यह घटना राम के चरित्र की भव्यता का दर्शन कराती है।
राम का प्रजा पर प्रेम और प्रजा का राम पर प्रेम अद्भुत था। ‘राम की दृष्टि जिस पर गई न हो और राम को जिसने देखा न हो वह स्वयं को हीन समझता था ।राम- सुग्रीव मित्रता आदर्श थी । “तुम्हारे जैसा मित्र शायद ही हो”, ऐसा राम ने सुग्रीव के लिए कहा था। सुग्रीव को जरा भी दुख होता था तो राम की आंखों में आंसू आ जाते थे। “राम ने सरयू में प्रवेश कर जगत से अंतिम विदा ली” यह समाचार सुनकर सुग्रीव किष्किन्धा से दौड़े चले आए और राम ने जहां सरयू में जल समाधि ली थी, वहीं स्वयं भी जल-समाधि ले ली। ऐसी मित्रता दुर्लभ है। मारीच ने कहा था, “मित्र मिले तो राम जैसा, शत्रु मिले तो राम जैसा।”
रावण का अंतिम संस्कार करने से विभीषण के मना करने पर राम ने कहा, “विभीषण ! मृत्यु के साथ बैर समाप्त हो जाता है। रावण का अंतिम संस्कार तूं नहीं करेगा तो मैं करूंगा। वह जैसे तेरा भाई था वैसे ही मेरा भाई भी है।”
“राजा ने रानी का परित्याग राजधर्म निभाने के लिए किया है। राम ने सीता का त्याग नहीं किया है। मैं राम के हृदय में हूँ।” ऐसा सीताजी ने अपेन परित्याग पर कहा था। राम सीता का लोकोत्तर पति-पत्नी का संबंध था। सीता की सुवर्ण प्रतिमा बनाकर राम ने यज्ञ किया था। राम ने कहा “जननी-जन्मभूमि स्वर्ग से बढ़कर है। शीघ्र अयोध्या चलो।”