डॉ नमिता राकेश
वरिष्ठ साहित्यकार एवं राजपत्रित अधिकारी
(गतांक से आगे …)
ख़ैर साहब, रास्ते मे रुकते-रुकाते खाते-पीते हम सब चार से पांच घण्टे की यात्रा कर के देर रात भारत भूटान सीमा पर जयगांव पँहुच गए। वहां पर परमिट और इमिग्रेशन ऑफिस था। टूर ऑपरेटर के एकाध साथी मौजूद थे जिनकी देखरेख में हम सभी का इमीग्रेशन किया गया। सिर्फ हमारे दो साथियों के डॉक्युमेंट में कुछ कमी पाई गई जिसकी वजह से उन्हें भूटान में प्रवेश नहीं मिला औऱ उन्हें भारत की सीमा पर जयगांव ही रुकना पड़ा। हम सब फिर उसी बस से फुंतशोलिंग शहर के पास के होटल गाधेन पँहुचे जो पहले से बुक था। भूटान पंहुचने की खुशी सबके चेहरों पर साफ़ नज़र आ रही थी। वहां हमारा गर्मजोशी से स्वागत किया गया। छोटे से परिचय सत्र के बाद रात का शानदार भोजन कर के हम सभी अपने अपने कमरों में आ गए।
अगली सुबह नाश्ते के बाद हमें थिम्पू के लिए निकलना था पर उस से पहले अपने उन दो साथियों को भी भूटान में प्रवेश कराना था। अगली सुबह हमसबने नाश्ता किया ही था कि पता चला कि हम सबके पासपोर्ट व इलेक्शन कार्ड परमिट ऑफिस में वेरिफाई होने हैं। चूंकि मैं पैरा मिलिट्री फोर्स से हूँ तो मुझे सबके पासपोर्ट चेक कर के टूर ऑपरेटर के साथी को सौंपने का काम सौंपा गया। सुरक्षा की दृष्टि से मैंने कहा कि हमारे दो साथी भी टूर ऑपरेटर के साथी के साथ जाएंगे क्योकि पास्पोर्ट व इलेक्शन कार्ड अत्यंत महत्वपूर्ण व सेंसिटिव डॉक्युमेंट होते हैं जो मैं किसी क़ीमत पर भूटानी टूर ऑपरेटर के सुपुर्द नहीं करना चाहती थी।
बारीक़ी से चेकिंग कर के व नाम फोन नम्बरों के साथ हमने एक लिस्ट बनाई औऱ मैंने टूर-ऑपरेटर के रिसीविंग के बाक़ायदा हस्ताक्षर लिए और उसे वो लिस्ट थमाते हुए मैंने फोटो भी खींची। यह सब मैंने सुरक्षा की दृष्टि से किया ताकि किसी तरह की गड़बड़ी की कोई गुंजाइश ही ना रहे। काफ़ी इंतज़ार के बाद परमिट की अन्य कार्रवाई पूरी हुई और हमारे उन दोनो साथियों के कागज़ भी वेरिफाई हुए ।इस सबमें दोपहर हो गई। जबकि हमें सुबह 9 बजे निकलना था। वहीं भोजन के लिए रुकने के बजाए हम सबने फिलहाल वहां से निकलना बेहतर समझा और रास्ते मे कहीं रुक कर भोजन करने का निश्चय किया। हम सब बार-बार की रुकावटों से पक चुके थे और जल्द से जल्द थिम्पू पंहुचना चाहते थे।
लेकिन एक बात यह कि फुंतशोलिंग से थिम्पू तक का सफ़र बहुत मज़ेदार था। हम इतने उत्साहित थे कि रास्ते भर अन्ताक्षरी खेलते औऱ हंसी मज़ाक के साथ प्राकृतिक नज़ारों का आनन्द लेते हुए कब थिम्पू के होटल कुबेर पँहुच गए यह पता ही नहीं चला। भोजन के बाद विश्व बंधुत्व में सोशल मीडिया की भूमिका पर संगोष्ठी रखी गई थी जिसमे हममें से कुछ लोग वक्ता थे और कुछ श्रोता।
यानी भ्रमण के साथ साहित्य सेवा भी हो रही थी। जिसके लिए आयोजक की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। सबका साथ सबका विश्वास की पृष्ठभूमि पर यात्रा आगे बढ़ रही थी। सब साथ-साथ थे और हिंदी भाषा के उत्थान के लिए एकजुट भूटान की धरती पर आपसी सौहार्द और भाईचारे की भावना से एकसाथ यात्रा का आनन्द उठा रहे थे। अलग-अलग राज्यों से आए सभी प्रतिभागी अब मानो एक परिवार के सदस्यों की तरह आपस में घुल मिल चुके थे।
अगले दिन हम सभी बढ़िया नाश्ता कर के दो बसों में भूटान की राजधानी थिम्पू के स्थानीय दर्शनीय स्थलों को देखने के लिए निकल पड़े। दो चूल्हा पास पँहुच कर हम वहां के नज़ारों में खो गए। पहाड़ों को चूमते नीले-नीले बादल और दूर तक फैली हरियाली मानो हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे। हम सबने हर एंगल से फोटो खिंचवाए। हम वहां की ख़ूबसूरती को अपने अपने कैमरे में क़ैद कर लेना चाहते थे। एक और दर्शनीय स्थल टॉकिंन ज़ू में हमें राष्ट्रीय पशु टाकिंन को भी देखने का अवसर मिला जिसका धड़ गाय और मुंह बकरी जैसा था। इस ज़ू में इस विलुप्त हो रही अनोखी जाति के संरक्षण का काम किया जाता है।
इसके बाद हमारा अगला पड़ाव बुद्धा मोनेस्ट्री था जहां बुद्ध की विशालकाय कांसे की गगनचुम्बी मूर्ति सबके आकर्षण का केंद्र थी। मौसम बहुत ही ख़ुशगवार था। नीला आसमान और सफेद बादल दूर तक फैली पर्वत श्रंखलाओं के बीच बुद्ध की प्रतिमा मानो मानव कौशल के झंडे गाड़ रही थी।
कुदरत और मानवीय कारीगरी की इस जुगल बंदी के हम सभी दर्शक ख़ुद को ख़ुशक़िस्मत समझ रहे थे। प्रतिमा के धरातल पर स्वर्ण युक्त दीवारें और बुद्ध की हर आकार की प्रतिमाएं देख कर हम सब मंत्रमुग्ध थे। यहां भी हम सबने एकल व सामूहिक फोटो सेशन किये। वहां से लौटते हुए हम सबने रॉड साइड दुकानों से भूटानी लाल हरे सेब व स्थानीय नमकीन खरीदा जो देखने मे भारतीय सेब की ही तरह था पर एक अलग ही मिठास से भरपूर था।
देर शाम हम सभी वापस होटल कुबेर पँहुचे। कुछ विश्राम के बाद कवि सम्मेलन में सब कवियों की भागीदारी थी। यानी भूटानी राजधानी में भारतीय कविताओं का परचम । ख़ूब आनन्द आया। होटल के अन्य विज़िटर व स्टाफ ने भी भारतीय कविताओं का ज़ायका लिया। बस फिर रात्रि भोजन के बाद अगले दिन घूमने के सपने संजोय हम सब कब नींद के आगोश में समा गए किसी को पता नहीं चला।
अगले दिन नाश्ते के बाद हम निकल पड़े पारो की ओर। दोनो बसों के हमारे साथी हंसते गाते बजाते रास्ते की ख़ूबसूरत वादियों का आनंद लेते बढ़ते गए। हम सबमे कलाकार साथी भी थे। बांसुरी वादक जब तान छेड़ देता तो कोई ढपली पर थाप देता तो कोई गीत सुनाने लगता। हम सभी खुले गगन के तले पिंजरों से आज़ाद पंछियों की मंनिन्द हर लम्हे को भरपूर जी लेना चाह रहे थे। उस आनन्द को शब्दों में बयान करना मुश्किल है।
रास्ते में पारो नदी देखते ही हम सब उतर पड़े। नदी के हर कोण से हर लहर के साथ हमने फोटो खिंचवाई। वहीं की एक दुकान से हमने भांति-भांति के सामान खरीदे। नदी की रवानी और उसकी ठंडक अपनी आंखों में और बाहों में भरकर हम चल पड़े रिनपुंग किला और म्यूजियम देखने।
वहां पर भी सबने भूटानी पोशाक “कीरा” पहन कर खूब फोटो खिंचवाई, रील बनाई और भूटानी नृत्य किया। पारो के नेशनल म्यूज़ियम में ऐतिहासिक कलाकृतियां, पारम्परिक वेशभूषाएं, बर्तन, हथियार, मूर्तियां इत्यादि संग्रहित हैं। रिनपुंग किले से प्रशासनिक कार्य किये जाते हैं। वहीं पास में कोर्ट भी स्थित है। इतना घूमने के बावजूद किसी को कोई थकान नहीं थी।
देर शाम होटल में ही आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम में सबने अपनी-अपनी कला का प्रदर्शन किया। नृत्य, गीत, एकल अभिनय, सामूहिक नृत्य इत्यादि भिन्न-भिन्न रंगों से सजी महफ़िल का सबने ख़ूब लुत्फ़ उठाया।
अगले दिन हमारे कुछ साथियों को प्रसिद्ध पर्यटक स्थल टाइगर नेस्ट जाना था। उसी शाम इंडो भूटानी सांस्कृतिक संध्या का आयोजन भी होना था। टाइगर नेस्ट ऊंची पहाड़ी पर स्थित एक दर्शनीय स्थल है। जिसकी चढ़ाई बहुत दुर्गम है। सब बस का इंतज़ार कर रहे थे लेकिन टूर ओपरेटर की ओर से कोई सूचना नहीं मिल रही थी। दिन खिसकता जा रहा था। आखिर बहुत जद्दोजहद के बाद जाकर बस आई। कुछ साथी टाइगर नेस्ट के लिए बस से चल पड़े और कुछ होटल में ही सांस्कृतिक संध्या की तैयारी के लिए रुक गए।
इससे पहले कि मैं आगे बढूं, एक घटना का ज़िक्र किए बिना ख़ुद को रोक नहीं पा रही। वो यह कि भूटान की यात्रा के बहुत पहले से हम सभी भूटान में सोना यानी गोल्ड सस्ता होने के कारण खरीदारी का प्लान बना रहे थे और बहुत उत्सुक भी थे। टूर ऑपरेटर से भी जानकारी ले रहे थे। पर हममें से कुछेक ही अपने साथ गोल्ड खरीदने के लिए एक्स्ट्रा कैश ले कर गए थे। बाकियों ने इस झंझट से मुक्त रहना और सिर्फ घूमने पर ही अपना फ़ोकस रखना बेहतर समझा।
तो जब हम पारो घूमने निकले तो हमसे से एक महिला और कुछेक पुरुष गोल्ड की खरीदारी के लिए भी पारो स्थित बाज़ार में दुकानों से पूछताछ करते नज़र आए। हमें शॉपिंग के लिए आधा घण्टे का समय दिया गया था क्योंकि बाकी पर्यटन स्थलों पर भी जाना था।
नियत समय के पश्चात थोड़ी बहुत शॉपिंग कर के हम सब अपनी-अपनी बसों में बैठ गए। तभी किसी ने नोटिस किया कि हमारे दो साथी मिसिंग हैं यानी बस में नहीं हैं। फटाफट फोन किए गए जिसमें से एक ने फोन पर बात करने के बाद जल्द ही बस तक पंहुचने की बात कही। उस सदस्य के आने पर पता चला कि वो और एक हमारी एक महिला साथी
किसी दुकान पर गोल्ड खरीदने रुक गए थे। उस
दुकान पर पता चला कि गोल्ड खरीदने के लिए भारतीय करेंसी के स्थान पर डॉलर का ही इस्तेमाल वैध है । उस समय कोई बैंक आसपास नहीं था तो वो दोनों किसी दुकान में चले गए थे जिसने यह आश्वासन दिया कि वो रुपए के बदले डॉलर दे देगा। बातों-बातों में उसने उस महिला सदस्य से यह जान लिया कि उसके पास लगभग डेढ़ लाख भारतीय मुद्रा हैं ।
उसने उस महिला को कुछ देर उसी की दुकान में इंतज़ार करने को कहा। वो महिला मान गई। जबकि साथ के पुरुष को कुछ दाल में काला लगा। उसने इशारों में उस महिला साथी को समझाया और वहां से चलने को कहा लेकिन महिला ने उस पुरुष साथी की बात को नज़रअंदाज़ कर दिया। पुरुष साथी ने कहा कि उसका कैश बस में दूसरे साथी के पास है जिसे वो लेने का बहाना कर के दुकान से निकल गया। जब हम सबको यह पता चला तो हम सब सकते में आ गए। फौरन उस महिला को फोन किया गया पर उसका फोन बंद पाया गया। वो पुरुष साथी हमारी बस का था और वो महिला दूसरी बस की थी। फौरन दूसरी बस के लोगों को सम्पर्क कर के स्थिति बता कर उस महिला और उस दुकान का पता लगाने को कहा गया। तब तक हमारी बस चल चुकी थी। आख़िरकार बहुत मुश्किल से उस महिला को ढूंढा गया और बस में लाया गया तो सबकी जान में जान आई। उस महिला का कैश उस के पास था क्योंकि वो दुकानदार भांप चुका था कि यह महिला अकेली नहीं है।
खैर कुछ लोग शाम को होने वाले इंडो भूटान सांस्कृतिक संध्या और पुरस्कार समारोह की तैयारी में लग गए। कुछ लोग जिन्हें अपने पैरों की शक्ति और ख़ुद पर भरोसा था वो भूटान के जग प्रसिद्ध पर्यटन स्थल टाइगर नेस्ट के लिए बस से रवाना हो गए । मैं अपने कुछ साथियों के साथ स्थानीय बाज़ार घूमने निकल पड़ीं । मैंने कुछेक ज्वेलरी सेट्स, मैग्नेट जिन पर भूटान के पर्यटक स्थलों की तस्वीर थी जिन्हें फ्रिज या अलमारी पर चिपकाया जा सकता है, दो सेट्स भूटानी ट्रेडिशनल पोशाक “कीरा” के भी लिए।
इन्हें मैंने खुद पहन कर पहले ट्राई किया । अच्छा लगने पर ही खरीदा। बहुत से माले, गाड़ी में लटकाने वाले शो पीसेस मैं पहले ही ख़ूबसारे ले चुकी थी। अपने मित्रों व रिश्तेदारों को भूटान की सौगात जो देनी थी। बस फिर हम वहाँ से होटल लौट आए। देखा कि कार्यक्रम की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी थी। इस कार्यक्रम का संचालन मुझे ही करना था। आयोजक ने मुझे तैयार हो कर हाल में पंहुचने को कहा। समय कम था सो मैं फ़टाफ़ट तैयार हो कर हॉल में पँहुच कर स्टेज संभालने में मुस्तैदी से जुट गई।
कार्यक्रम में भारत के कोने-कोने से आए कलाकारों और कवियों ने एक से एक बढ़ कर प्रस्तुतियां दीं। वहीं भूटानी कलाकार विशेषकर महिलाएं व लड़कियां भी कुछ कम नहीं थीं। उन्होंने एक से एक बढ़ कर नृत्य व गीत प्रस्तुत किए। उन गीतों में भारतीय फिल्मी गीतों की भरमार थी। उनके भूटानी एक्सेंट में हिंदी गीत सुनकर हम सभी बहुत खुश हुए। भूटानी और भारतीय कलाकारों के एकल, सामूहिक गीतों, नृत्यों, बांसुरी वादन और लघु नाटिका की दमदार प्रस्तुतियों ने विश्व बंधुत्व की भावना को और भी प्रबल कर दिया। वहीं मेरे बंधे हुए कुशल व चुटीले संचालन की हरेक ने दिल खोल कर प्रशंसा की। इस आयोजन के लिए आयोजकों की जितनी तारीफ़ की जाए उतनी कम है। कार्यक्रम की शुरुआत सदाबहार मोटिवेशनल गीत इंसान का इंसान से हो भाई चारा से हुई और समापन प्रसिद्ध गीत ज़िंदगी प्यार का गीत है से हुआ। सम्मान समारोह में सभी कलाकारों और कवियों को अंग वस्त्र, प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिह्न इत्यादि से सम्मानित किया गया। कुल मिला कर देर रात चले इस कार्यक्रम के बाद सबके चेहरों पर एक सन्तोष मिश्रित विजयी मुस्कान तैर रही थी। विदेशी भूमि पर सम्मानित होना अपने आप में महत्वपूर्ण होता है। अगला दिन वापसी का दिन था। सुबह के नाश्ते के बाद सभी अपना अपना सामान ले कर चेक आउट कर् के होटल की लॉबी में बसों का इंतज़ार करने लगे। अब भारत की याद सताने लगी थी। अपना देश अपना घर अपना परिवार याद आ रहे थे।
( क्रमशः अगले अंक में )