उत्तराखंड की आत्मा गीता कैरोला
उत्तराखंड की आत्मा गीता कैरोला जी प्रसिद्ध लेखिका, कवियित्री एवं सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं. आप महिला समाख्या उत्तराखंड की भूतपूर्व निदेशक रह चूकी हैं.
बसंत गुजरे बस चंन्द रोज बाद गुनगुनी धुप का मजा ले रही थी, तभी सामने आम के पेड़ पर नजर थम गयी। ओह आम बौरा गए। और बस मन भी बौराने लगा। बरामदे की रेलिंग पर गुनगुनी बासंती धूप में सिर टिकाये बौराया मन अतीत वर्तमान के जाने किन-किन कोनो में भटकने लगा। अचानक पहले मन हंसा और हंसी की कनकियां होंठो में फ़ैल गयी।
हमारे गांव में आम का कुल जमा एक ही पेड़ था,मोटे तने वाला,छतनार मोटी मोटी टहनियों से भरा विशाल पेड़। वो पेड़ भी दूर खेतों के किनारे था। यानि हम बच्चों के लिए मृगतृष्णा जैसा।उसमे बौर भी खूब लगती,आम छोटे छोटे चूसने वाले लगते। जिस दिन वारिश आंधी आती,दूसरी सुबह सारे गांव के बच्चे पेड़ के नीचे दिखाई देते।बड़ी लड़ाई झगडे के बाद एक आध अमियाँ हाथ लगती।और वो घर आते आते आधी तो चट हो जाती।
दादा जी हमेशा कहा करते थे कि आम और पीपल के पेड़ में देवता बास करते है इसी लिए दोनों पेड़ों की
सरासू गांव चारों तरफ से आम के पेड़ों से घिरा था। जहाँ पर उनका पानी का धारा था वहां पर ढेर सारे आम के पेड़ों का पूरा झुरमुट था। ये आम जरूर किसी ने लगाये होंगे पर इन पर किसी का मालिकाना हक़ नहीं था। सरासू के सारे परिवारों के अलावा आस-पास के जितने भी गांव थे सब आम के मौसम में आम टीपने सरासू जाते।जिनकी रिश्तेदारी होती उन्हें समलोण(याद या गिफ्ट) के तौर पर आम की कंडिया भेजी जाती।
हमारे गांव के बच्चे भी आम पकने के मौसम में आम टीपने सरासू जाते। मेरे लिए ये आम चूसने के स्वाद के अलावा घुमक्कडी का भी मौका था,पर दादा जी कभी नहीं जाने देते।वो हमारे लिए पाटीसैण(जो हमारा बाजार था)या कोटद्वार से ढेर सारे आम खरीद लाते।
पर दादा जी के लाये इन आमो में वो मजा कहाँ था जो मेरी आवारागर्दी से से लाये आमों में होता। उन्होंने मुझे बहुत समझाया,मनाया पर मै तो मै थी।दुसरे गांव जाना और पेड़ो में चढ़ कर टहनियां हिला हिला कर आम तोडना वाह क्या मजा आएगा।
मैंने रात को दादी से चोरी-चोरी चुपके से ढक्कन वाली कंडी निकाल कर ओबरे(गोठ) में छुपा दी। दुसरे दिन दादा जी की नजर बचा के कंडी उठाई और अपनी सहेलियों के साथ सरासू के लिए दौड़ लगाई। बड़ी दादी कहती ही रह गयीं, “हे ये छोरी कहाँ मर रही है।हे सरू की दादी देख तो”
जब तक कोइ सुनता तब तक तो मैने एक धार पार कर ली थी। जब हम सरासू पंहुचे दोपहर हो गयी थी। मोटे मोटे तनो वाले इतने बड़े ऊँचे पेड़ देख कर मेरे होश फाख्ता हो गए। अब क्या करूँ? साथ आये हुए बड़े लड़के तो जैसे तैसे पेड़ो में
चढ़ गए,पर आम तो दूर पत्तों में छिपे थे।उन्होंने अपने लिए तोड़ना शुरू ही किया कि नीचे से मेरी गुहारें शुरू हो गयी। मै उनको इस आस में पके आम दिखाती वो देखो चार एक साथ।वो देखो पूरा झुम्पा लगा है की मुझे भी देंगे,पर उन्होंने मुझ पर कोइ दया नहीं दिखाई। जो आम जादा पका होता वो वही पेड़ पर टहनियों से टिक कर चूस लेते। भूख के मारे मेरे पेट में मरोड़े उठ रहे थे। उनके गिराये दो चार कचकचे आम खा कर मेरे दांत खट्टे हो रहे थे।
जो उनके हाथ से छूट जाते मै वो कच्चे,अधपके आम बिन कर अपनी टोकरी में डाल देती। उन लड़कों ने मुझे आम नहीं दिए और मेरी टोकरी खाली ही रही अब मुझे दादी की मार याद आने लगी।सोचा था आम की भरी टोकरी देख के वो खुश हो जायेगी पर यहाँ तो उल्टा हो गया।
मैने आस पास की झाड़ियों में टपके आम ढूँढने शुरू किये। रोती जाती और अपने साथियों को खूब गाली देती देती जाती। मेरी दशा देख कर साथियो को दया आ गयी।उन्होंने मिल कर थिंचे,कच्चे, अधकचे आमों से मेरी टोकरी भी भर दी।
हम सब अपनी भरी टोकरी को सर में रख कर अपने गांव के रस्ते चढ़ाई चढ़ने लगे।जब थक जाते तो किसी समतल पत्थर में बैठ जाते। बैठते ही मै टोकरी का ढक्कन खोलती, अँगुलियों से आमो को दबाती ,जो भी थोडा पका होता, उसे दो चार चुस्की मार कर फिर टोकरी में रख देती। घर पहुंचते-पहुँचते मैंने लगभग सारे आम आधे-आधे चूस लिए थे।
अब डरने की बात तो ख़त्म हो गयी थी,टोकरी जो भरी थी। रौब से टोकरी दादी के सामने रख दी।जब तक दादी मेरी धुनाई करने डंडा उठाती मैंने टोकरी का ढक्कन उठा दिया। जैसे ही ढक्कन हटा दादी आमों की हालत देख कर सकते में आ गयी, उसके बाद क्या हुआ बस पूछिये मत।
ATI Sundar