© हरिलाल राजभर ‘कृषक’, घोसी, मऊ
समझो महज़ न ख़्वाब हमारा ये गाँव है
खिलता हुआ गुलाब हमारा ये गाँव है
बिजली की रोशनी पे करे शह्र गर गुमां
ख़ुद चाँद आफ़ताब हमारा ये गाँव है
इज़्ज़त पे बात आती है जब-जब भी मुल्क की
बनता भी इंक़िलाब हमारा ये गाँव है
शहरों के जैसे क़ल्ब में रखतान गंदगी
पढ़ लो खुली किताब हमारा ये गाँव है
अस्लाफ़ फ़ख्र इसपे अब आखिर न क्यूँ करे
मूंछों का उनके आब हमारा ये गाँव है
थक जायेंगे सवाल सभी तेरे कर यक़ीं
हर एक का जवाब हमारा ये गाँव है
दौलत के बादशाह क्या तुझको नहीं पता
दिल का बना नवाब हमारा ये गाँव है
आँखें दिखाना छोड़ दे ‘हरिलाल’ तू इसे
सैलाब का भी ताब हमारा ये गाँव है