डॉ.धनञ्जय शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग
सर्वोदय पी.जी. कॉलेज, घोसी, मऊ
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम।।
बलिया जिले के ग्राम ससना बहादुरपुर में स्वामी शिवनारायण संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी शिवनारायण जी का मंदिर है जिसे ससना धाम के नाम से जाना जाता है । कहते हैं जब-जब इस धरती पर धर्म का नाश होता है और पापाचार बढ़ता है, तब-तब धर्म की रक्षा के लिए ईश्वर का अवतार होता है। यह अवतार अनेक संत, महापुरुषों, पीर-पैगंबरों के रूप में धरती पर ईश्वर के स्वरूप में होता है जो अपने कर्म द्वारा मानव जीवन को संदेश देते हैं, यही कारण है कि प्राचीन काल से भारत को विश्व गुरु कहा जाता है। इन्हीं संतो में निर्गुण संत परंपरा के संत शिवनारायण साहब का नाम प्रसिद्ध है। जो अपने जीवन द्वारा भारतीय जन मानस को भक्ति का संदेश देते रहे।
रीतिकालीन संत काव्य परंपरा में यारी साहब, दरिया साहब, जगजीवन दास, पलटू साहब, तुलसी साहब और सहजो बाई के साथ-साथ संत शिवनारायण साहब का नाम बहुत पवित्रता के साथ लिया जाता है। स्वामी शिवनारायण साहब का जन्म बलिया जिले के चंदवार नामक स्थान पर पिता बाघ राय एवं माता सुंदरी के घर में तीसरी संतान के रूप में हुआ था। मूल ग्रंथ के अनुसार इनका जन्म कार्तिक सुदी दिन बृहस्पतिवार संवत 1773 वि. को माना जाता है। डॉ. नगेंद्र ने हिंदी साहित्य के इतिहास में स्वामी शिवनारायण का जन्म सन् 1716 ई.में मना है। स्वामी जी का जन्म ऐसे समय में हुआ था जब चारों तरफ अराजकता का वातावरण था देश में केंद्रीय प्रशासन का ह्रास हो रहा था और चारों तरफ छोटे-छोटे सामंत एवं छत्रप जन्म ले रहे थे। बड़े सामंतो के नीचे भी छोटे-छोटे सामंत और जमींदार हो गए थे। चारों तरफ अंधकार का वातावरण था। जाति व्यवस्था, छुआछूत, वर्ण भेद अपने चरम पर था। रीतिकालीन वातावरण में साहित्य सामंतों की चहारदीवारी के अंदर कैद हो गया था। लोक जनमानस से साहित्य का कोई संबंध नहीं रह गया था। ऐसे समय में संत शिवनारायण साहब का धरती पर आना और समाज में पहले से व्याप्त कुरीतियों, छुआछूत, वर्ण-भेद एवं छोटे बड़े के भेद को मिटाना किसी चमत्कार से कम न था।
प्राप्त साक्ष्यों से अवगत होता है कि स्वामी जी के पूर्वज कन्नौज में रहते थे और कर्मवस या अन्य कारण से बंग प्रदेश में आ गए। इस सन्दर्भ में कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं:-
“जन्मभूमि है कनउज देशा, कर्म वसी से बंग प्रदेशा।
तीरथ प्रयाग सूबा से होई, जेहि के अमल गाजीपुर सोई।
जहूराबाद परगना आही, आसकरन टप्पा तेहि माही।
से स्थान चंदवार कहावे, शिवनारायण जन्म तहां पावे।।”
उपर्युक्त स्रोतों से पता चलता है कि कन्नौज प्रदेश में अकाल पड़ने के कारण या किसी अन्य कारण से स्वामी जी के पूर्वज बंग प्रदेश में, गाजीपुर सूबा के अंतर्गत आधुनिक बलिया के चंदवार नामक ग्राम में आकर बस गए थे। शब्दावली से ज्ञात होता है कि आप क्षत्रिय जाति के थे। “संतो भाई छतरी जाती हमारी।” स्वामी जी नरौली वंश के के राजपूत थे। अंग्रेज विद्वान ओल्डहम ने कहा है, “नरवल में निवास करने के कारण इन्हें नरौलिया कहा गया। नरौली राजपूत अपने को परिहारों की एक शाखा मानते हैं।”
स्वामी जी बाल्यकाल से ही विरक्त स्वभाव के संत थे। परमात्मा में गहरी आस्था एवं संतों के संग से भक्ति का स्रोत जग गया था।ऐसी मान्यता है की सात वर्ष की अवस्था में ही आप अपना जन्म स्थान चंदवार छोड़कर ससना चले आए ससना में आप की बहन सुभद्रा का विवाह हुआ था। ससना के पास जंगल में आकर आप तप साधना में लीन हो गए । एक दिन अकस्मात जंगल में साधना करते समय दुखहरण साहब के दर्शन हुए उसी क्षण आपने उन्हें अपना गुरु मान लिया। गुरुदेव को परब्रह्म मानकर चिंतन और ध्यान साधना करने लगे। स्वामी जी ने गुरुन्यास में अपने गुरु का नाम लिखा है, ‘दुखहरण नाम से गुरु कहावे। बड़े भाग से दर्शन पावे।
सत्य शब्द अन्यास सुन, शिवनारायण दास।
सदा रहहु मैं हिय तोही, पूरन ब्रह्म प्रकाश ।।
ज्ञान प्राप्ति के बाद आप जंगल में समाधिष्ट होकर साधना करने लगे । सात वर्ष की अवस्था में 1723 में दीक्षा ग्रहण किया और 16 वर्ष की अवस्था में आप को सत्य का बोध हुआ। सत्य का बोध होने के बाद स्वामी जी की ख्याति चारों तरफ फैल गई थी छोटे बड़े हर संत उनको जानने लगे थे और आपका उपदेश सुनने के लिए आया करते थे।
एक बार की बात है कर न जमा करने के कारण तत्कालीन मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला द्वारा दिल्ली बुलाया गया। इस संदर्भ में डॉ. रामचंद्र तिवारी ने अपने शोध ग्रंथ “शिवनारायण संप्रदाय और उनका साहित्य” में लिखा है, “मुगल बादशाह मोहम्मद शाह ने पोत ना देने के कारण शिवनारायण साहब को दिल्ली पकड़ मंगाया, वहां पोत मांगने पर इन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया हम तो संत हैं। हमने कभी पोत नहीं दिया है। इस पर मुहम्मद शाह क्रुद्ध होकर इन्हें बंदीगृह में डाल दिया। वहां इनको गेहूं पीसने को मिला, वहां अन्य संतों को भी गेहूं पीसते हुए पाया गया। संत शिव नारायण के प्रभाव से कारागार में सभी संतो की चक्कियां स्वत चलने लगी यह सूचना बादशाह को मिली तो वह प्रभावित हुआ और उसने इनकी शिष्यता ग्रहण कर ली। साथ ही एक मुहर भी दी जो संप्रदाय में अब तक प्रचलित है।अन्य साक्ष्यों से यह भी पता चलता है की स्वामी जी के स्वागत में भोजन के लिए मांस परोसा गया। स्वामी जी ने कहा, “संत तो हंस की भांति मोती चुगता है।” इस पर बादशाह क्रुद्ध होकर मोतियों से भरा थाल परोसा। स्वामी जी ने मोती के थाल को अपने अंगवस्त्र से ढक दिया और कुछ देर बाद वस्त्र हटाया तो वह सुंदर व्यंजन में बदल गया था, इस चमत्कार ने मुहम्मद शाह रंगीला को उनका भक्त बना दिया। इस घटना की समीक्षा करते हुए आचार्य क्षितिमोहन सेन ने मुहम्मद शाह रंगीला के दरबारी उर्दू कवियों वली अल्लाह, नाजिम और आबरू द्वारा शिवरीनारायण साहब के प्रति श्रद्धा भाव प्रकट करने की चर्चा की है। इस आधार पर इस घटना की ऐतिहासिकता प्रकट होती है।
शिवनारायण साहब का व्यक्तिगत जीवन सरल, सदाचार तथा सहजता का जीवन था। सदाचार एवं सत्संग आपके जीवन के अंग थे। सत्संग की ओर आपका झुकाव छोटी अवस्था में हो गया था, इसका प्रमाण इन पंक्तियों से मिलता है:-
एक दिन संत सभा महँ गएऊ,चर्चा शब्द होत तहं रहेऊ ।
चर्चा सुनत बहुत सुख पाई,शिव नारायण सुनि मन लाई।
जनश्रुति के आधार पर शिवनारायण साहब एकांत प्रिय सच्चे साधक थे। उनका साधना स्थल आज भी स्मृति स्वरूप बचा हुआ है जो ससना गांव के उत्तर में बांस के झुरमुटों व झाड़ियों के बीच में है। जो कतिपय जंगल का अवशेष भाग है। जहां स्वामी जी भुइधरी बनाकर अपने ग्रंथो की रचना किया करते थे।
स्वामी शिवनारायण साहब नाम ब्रह्म के स्वरूप की सर्वाधिक चर्चा गुरुन्यास में की है सर्वप्रथम परम तत्व का आभास उन्हें गुरु रूप में होता है गुरु रूप में प्रतिभाषित इस सत्ता के पूर्ण ब्रह्म कहते हैं इस पूर्ण ब्रह्म से उनका तात्पर्य परब्रह्म से है क्योंकि आगे चलकर इसी ग्रंथ में वे परब्रह्म प्रतीत की चर्चा करते हैं यह ब्रह्म संसार का कर्ता और अपार गुना वाला है। उसके गुना का वर्णन संभव है। यही संसार में सर्व व्याप्त है, यह अलग है निरंजन है और जो प्राणी उसे ऐसा समझता है वह मुक्ति प्राप्त कर लेता है यह सत्य स्वरूप है यही ब्रह्म आवश्यकता अनुसार अवतार भी ग्रहण करता है।
स्वामी शिवनारायण साहब के अनेक शिष्य हुए जो उच्च कोटि के साधक एवं कवि थे। जिनके प्रयत्न स्वरूप शिवनारायण साहब का मत एक संगठन का रूप लेता गया। संप्रदाय में पांच शिष्यों को प्रमुखता दी गई है जिनमे रामनाथ साहब, लखनराम, सदाशिव, जुवराज एवम् लेखराज आदि। शिवनारायण साहब के शब्दावली में इन सभी के पद संग्रहीत हैं। रामनाथ जी को संप्रदाय के लोग संत शिवनारायण का प्रथम शिष्य मानते हैं। इनका जन्म चंदवार के निकट परसिया ग्राम में हुआ था। यह भी जाति के नरौनी राजपूत थे और उम्र में स्वामी जी से बड़े थे। रामनाथ बाबा ने कुल 60 पदों की रचना की थी। कविता शक्ति साधारण होने पर भी उसमें संत जीवन की सहजता और लोक जीवन का माधुर्य दोनों है। रामनाथ बाबा के वंशज आज भी परसिया में रहते हैं। स्वामी जी के द्वितीय शिष्य लखन राम जी माने जाते हैं, इनका जन्म बलिया जिला के बड़सरी नामक स्थान पर हुआ था। यह जाति के परमार राजपूत थे। स्वामी जी के शब्दावली में उनके पांच-छह पद संकलित है। लखन राम जी के वंशज आज भी बड़सरी में रहते हैं। तीसरे शिष्य सदाशिव साहब बलिया जिले के रतसड़ के समीप मेवाड़ी नामक ग्राम के निवासी थे यह जाति के ब्राह्मण थे अपने पदों में इन्होंने बार-बार शिवनारायण को गुरु स्वीकार किया है । संप्रदाय के व्यापक प्रचार का श्रेय भी इन्हीं को दिया जाता है, इन्होंने ही स्वामी जी के अनुयायियों को संगठित कर संप्रदाय का रूप दिया। स्वामी जी के चतुर्थ शिष्य संत लेखराज जी भी नरौली वंश के राजपूतों के भांट थे, शब्दावली में इनके भी कुछ सवैया प्राप्त है। लेकिन इनमें उनकी जाति का उल्लेख नहीं है । जुबराज जी स्वामी जी के पांचवें शिष्य थे यह भी नरौली वंश के भांट थे। चंदवार से उत्तर में बसे सरुवाय गांव के रहने वाले थे। इनके उपलब्ध छंदों में चार सवैया और दो गेय पद हैं। उनकी कवित्व शक्ति अन्य संतों से बढ़कर है। इन पांच शिष्यों के अतिरिक्त शब्दावली में कुछ अन्य संत कवियों के पदों का भी उल्लेख मिलता है। जिनमें प्रमुख रूप से गेंदाराम, राजरूप और लाल दास उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त श्री रमाशंकर सिंह पुजारी सतना धाम, बाबा मंगलदास हुकुमी महंत लाहौर, डॉ. चंगू लाल महंत छावनी कानपुर तथा पुजारी बेनी सिंह पथिक कर्नलगंज कानपुर आदि प्रसिद्ध है।
संत शिवनारायण साहब के ग्रंथो का साहित्यिक विवेचन भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वान दोनो ने किया है। विल्सन से लेकर परशुराम चतुर्वेदी ने लगभग 25 ग्रन्थों की संख्या बताई है, जो आज भी शोध का विषय है। डॉ नगेंद्र ने अपने इतिहास ग्रंथ में लिखा है, “प्रसिद्ध है कि इन्होंने ज्ञान योग से संबद्ध 16 ग्रन्थों की रचना की है , जिनमें गुरुन्यास सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इसमें 12 खंडो के अंतर्गत इन्होंने जो विचारधारा व्यक्त की है वह वस्तुतः स्वानुभूतिपरक ज्ञानोपदेश ही है।” डॉ रामचंद्र तिवारी ने अपने शोध ग्रंथ में नागरी प्रचारिणी सभा के अन्वेषकों का सहारा लेकर लिखते हैं, “इस प्रकार अंततोगत्वा संत शिवरनारायण की सात पुस्तकें गुरुन्यास, संत विलास, संत सुंदर, संत परवाना, संत उपदेश, शांताखरी और शब्दावली प्रमुख है।”
स्वामी शिवनारायण संप्रदाय के अनुयायियों का अगर सामाजिक संरचना के आधार पर अध्ययन किया जाये तो महत्वपूर्ण रोचक तथ्य सामने आते हैं । सम्प्रदाय के अनुयायियों में सर्वाधिक मतावलम्बी बहुजन समुदाय से हैं, तदोपरांत संख्या के आधार पर अवरोही क्रम में क्रमशः वैश्य, क्षत्रिय व ब्राह्मण हैं । संप्रदाय की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि उस समय समाज के दलित वर्ग को सम्मान देते हुए उनके धर्मान्तरण को रोकने में अपार सफलता प्राप्त करना रहा है । दलित समाज का एक बड़ा वर्ग धर्मांतरण करा चुका होता यदि शिवनरायणी संप्रदाय उन्हें समय से सहारा न देता। सच तो यह है कि आज हम जिस समतामूलक समाज के निर्माण की बात करते हैं, स्वामी शिवनारायण संप्रदाय ने अपने मतों व रचनाओं के माध्यम से उस समाज की स्थापना करने में सफलता अर्जित की है ।