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“गांधी दर्शन की आधुनिक प्रासंगिकता”

Posted on October 11, 2023

डॉ धनञ्जय शर्मा

असिस्टेंट प्रोफेसर,

सर्वोदय पी.जी. कॉलेज, घोसी, मऊ

मोहनदास करमचंद गांधी भारतीय राजनीति में वटवृक्ष के समान हैं। वे एक साथ राजनीतिक चिंतक, समाज सुधारक,  दार्शनिक,  अर्थशास्त्री, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के आंदोलनकर्ता, जननायक, चिंतक तथा इन सब से बढ़ कर महान संत हैं। उनके चिंतन का केंद्र बिंदु मानवता का विकास है। राजनीति को उन्होंने नैतिकता के साधन के रूप में देखा और उसका उसी रूप में प्रयोग भी किया। व्यक्तिगत जीवन में जो जो समस्याएं आई उसका समाधान करते हुए इन समस्याओं के लिए को सिद्धांत बनाए, वहीं सिद्धांत आगे चलकर गांधीवादी विचारधारा के नाम से प्रसिद्ध हुई।

गाँधी जी के चिंतन का प्रमुख आधार सत्याग्रह, स्वदेशी, असहयोग, सविनय अवज्ञा, भारत छोड़ो आंदोलन प्रमुख हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लिखी गई पुस्तकें, ‘सत्याग्रह इन साउथ अफ्रीका’, ‘ हिंद स्वराज’ एवं आत्मकथा ‘मेरे सत्य के प्रयोग’ तथा अस्पृश्यता निवारण की दिशा में किए गए प्रायस। इन सारी रचनात्मकता के केंद्र में ‘हिंद स्वराज’ को गांधी के वैचारिक वट-वृक्ष का मूल बीज माना जा सकता है। यही वह पुस्तक है जिसमें गांधी जी अपने राजनीतिक सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं। 20वीं शताब्दी के पहले दशक में लिखी गई यह पुस्तक एक अद्वितीय कृति है जो पश्चिमी सभ्यता और विकास के पश्चिमी प्रतिमान पर गंभीर सवाल पैदा करती है। इस पुस्तक में गांधी जी ने पश्चिम से अपनी वैचारिक मतभेद की घोषणा की है। धर्म का असल रूप क्या है?  धर्म और राजनीति क्या है? धर्म और राजनीति के बीच क्या संबंध है? इन सवालों के साथ हिंसा, भूख, गैर बराबरी, नैतिकता के सरोकार, प्रकृति का भयंकर दोहन जैसी वर्तमान समय की ज्वलंत समस्याएं, जिनका वैकल्पिक समाधान गांधी दर्शन में खोजा जा सकता है। इससे गांधी जी की विचारधारा का पता चलता है कि उन्होंने इन समस्याओं को कैसे सौ साल पहले देखा था। इन समस्याओं का समाधान भी हिंद स्वराज में दिया गया है।

           हिंद स्वराज में गांधी के वे सारे विचार हैं जो पश्चिमी सभ्यता के विरोध में लिखे गए थे। चाहे पश्चिम की औद्योगिक विचारधारा हो या भारत में रेल, डॉक, तार आदि सभी को गांधी जी ने भारत को गुलाम बनाने का प्रयास बताया है। दुनिया में हर तरफ बढ़ती हिंसा और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध शोषण। पर्यावरण और मानवीय जीवन पर आ रहे संकट ने दुनिया भर के चिंतकों का ध्यान गांधी दर्शन की तरफ आकर्षित किया । हिंद स्वराज में सतत विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) की संकल्पना को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत किया गया है

    महात्मा गांधी ने भारतीय राजनीतिक मंच पर असहयोग और स्वदेशी पर बहुत बल दिया। असहयोग और स्वदेशी ही ऐसे तत्व हैं जिनके द्वारा हम भारतीय संस्कृति और परंपरा से जुड़ सकते हैं क्योंकि जब कोई देश अपनी विरासत और परंपरा के विशिष्ट तत्वों से विचलित होकर किसी दूसरी संस्कृति के भौतिक ढांचे पर आश्रित होता है तब ओढ़ी हुई संस्कृति पराजित मानसिकता को जन्म देती है और देश गुलाम हो जाता है। इस प्रकार गांधी जी ने भारत की आजादी के लिए पश्चिमी सभ्यता के प्रति देश के व्यापक हिस्से में जन आंदोलन किया। पश्चिम के आकर्षण को दूर करने के लिए ‘स्वदेशी’ और ‘असहयोग’ पर सर्वाधिक जोर दिया। स्वदेशी का अर्थ अपने पड़ोस से उत्पन्न संसाधनों के आधार पर जीवन शैली बनाने की रणनीति है, गांधी जी कहा करते थे कि “मेरी भौतिक जरूरत के लिए मेरा गांव मेरी दुनिया है और मेरी आध्यात्मिक जरूरत के लिए समूची दुनिया मेरा गांव है।” आज भूमंडलीकरण के बदले स्थानीयता को अपनाने, अस्तित्व एवं अस्मिता को ना छोड़ने  वाली गांधी जी की यह वैश्विक दृष्टि आज हमारे लिए कितनी प्रासंगिक है। दो-दो महायुद्ध हो गए तीसरे महायुद्ध की शुरुआत हो चुकी है पूरी दुनिया आज हिंसा के चपेट में है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हिंसा को हिंसा से मिटाया जा सकता है? क्या आग को आग से बुझाया जा सकता है?  यदि अन्याय को न्याय से, घृणा को प्रेम से, असत्य को सत्य से और हिंसा को अहिंसा से पराजित किया जा सकता है तो गांधी का दर्शन आज भी प्रासंगिक है। गांधी जी ने मानवता को अहिंसा का पाठ पढ़ाया, राजकीय हिंसा और जनता की हिंसा दोनों को त्याज्य बताया। दरअसल गांधी जी बहुत पहले यह मान चुके थे,  “हिंसा कभी किसी समस्या का स्थाई समाधान नहीं हो सकती। हिंसा से प्राप्त की गई सत्ता का चरित्र भी अंततः हिंसक ही होता है।” अतः गांधीजी ने हिंसा का जवाब सत्याग्रह, अहिंसा और आत्मबल से देने की बात कही है। सत्याग्रह अर्थात सत्य के लिए झुकना नहीं, सत्य के लिए आग्रह करना, जबकि  सामने वाला भले ही कमजोर हो। विश्व के सबसे बड़े साम्राज्यवादी शक्ति से अहिंसात्मक युद्ध करने की बात करते हैं। ‘हिंद स्वराज’ में लिखते हैं “शरीर का उपयोग गोला बारूद के काम में लाना हमारे सत्याग्रह के कानून के खिलाफ है। आज हिंसक संघर्ष का कोई भविष्य नहीं, साम्राज्यवादी शक्तियों को हिंसा से परास्त नहीं किया जा सकता है।”आज लिट्टे जैसा संगठन भी परास्त हो चुका है। आज देश में माओवाद, नक्सलवाद, उग्रवाद, आतंकवाद जैसे अनेक हिंसक संगठन अस्तित्व में है लेकिन हिंसा का समाधान हिंसा में नहीं है। हिंसा के मार्ग को पूरी तरह नकारते हुए गांधी जी ने भगत सिंह की फांसी पर अफसोस व्यक्त करते हुए कहा “हम उनका अनुसरण नहीं कर सकते, हमारी धरती पर लाखों लोग बेसहारा और लाचार हैं, अगर हमने न्याय को प्राप्त करने के लिए हिंसा का मार्ग चुना तो स्थिति बहुत खतरनाक हो जाएगी। हमारी गरीब जनता अत्याचार का शिकार हो जाएगी।” आज वैश्विक स्तर पर भी रूस और यूक्रेन का संघर्ष तृतीय विश्व युद्ध का रूप लेता जा रहा है। क्या युद्ध के बाद शांति की स्थापना हो सकती है? और कितने दिन तक ? यही कारण है वैश्विक स्तर पर 2 अक्टूबर गांधी जी के जन्म दिवस को विश्व अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

      अंग्रेजों द्वारा स्थापित पूंजीवादी व्यवस्था के विरोध में गांधी जी का सरोकार नैतिक शिक्षा, कुटीर उद्योग से था। उन्होंने राजनीति को नैतिकता के साधन के रूप में देखा और उसी रूप में अपनाया।  उनके नेतृत्व में चलाये गये स्वतंत्रता आंदोलन का मुख्य उद्देश्य भारत को नैतिक पुनरुत्थान की ओर ले जाना था। यही कारण है की सन् 1920 में चलाया गया असहयोग आन्दोलन चौरी-चौरा काण्ड के बाद निरंकुश हो गया तब गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन को स्थगित कर दिया। गांधी जी के व्यक्तिगत जीवन पर अनेक धर्मों का प्रभाव था, लेकिन ईश्वर और धर्म उनके लिए विशिष्ट अर्थ के प्रतिपादक हैं। सत्य को ईश्वर मानना और सत्य को किसी बाहरी धर्म या विचारधारा में ना मानकर उसे मनुष्यता के भीतर देखना गांधीवादी चिंतन की विशेषता है। यह मनुष्य को मनुष्यता के केंद्र में रखते थे। मनुष्यता किसी सत्ता या व्यवस्था द्वारा पैदा नहीं की जा सकती, इसलिए गांधी जी किसी सत्ता या व्यवस्था को बदलने की जगह मनुष्य के हृदय को बदलने पर सर्वाधिक जोर देते थे।  स्वयं को बदलकर स्वयंसेवक समूह बनाते थे। प्रतीक रूप में गांधी जी के तीनों बंदर बुरा मत देखना, बुरा मत सुनना, और बुरा मत कहना यह स्वयं को बदलने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है।

       आधुनिक भारत के निर्माण के प्रति गांधी जी की नीति पूर्णतया देसी थी वह पश्चिमी सभ्यता के मांगों को गैरजरूरी मानते थे और उसके सांचे में ढलने के विरोधी थे। उनका मानना था कि पश्चिमी सभ्यता उपभोक्तावादी संस्कृति की पोषक है, जो नैतिक दृष्टि से सही नहीं है। जबकि नैतिक उत्थान का रास्ता आत्म संयम और त्याग भावना की मांग करता है। सन् 1927 ईस्वी में यंग इंडिया के एक लेख में लिखते हैं कि “मैं यह नहीं मानता की इच्छाओं को बढ़ाने या उसकी पूर्ति के साधन जुटाने से संसार अपने लक्ष्य की ओर एक कदम भी बढ़ पाएगा, भौतिक इच्छाओं को बढ़ाने और उनकी तृप्ति के लिए धरती का कोना-कोना छान मारने की जो अंधी दौड़ चल रही है वह मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है।” भौतिक इच्छाओं से भौतिकवादी अवधारणा का जन्म होता है, इस भौतिकवादी अवधारणा ने ही उपनिवेशवाद को जन्म दिया। वे उपनिवेशवाद को पश्चिमी सभ्यता के अनिवार्य तत्व के रूप में देखते थे उनका दृढ़ विश्वास था कि इस भौतिकवादी सभ्यता को जो भी देश अपनाएगा उसे अनिवार्यतः अपनी जरूरत के लिए उपनिवेशवादी होना पड़ेगा।

                गांधी दर्शन ने दुनिया को जो मार्ग दिखाया वह मनुष्य के चरित्र और स्वभाव को नए सांचे में ढालने पर बल देता है, उन्होंने शारीरिक श्रम के सिद्धांत की शिक्षा दी कि प्रत्येक मनुष्य को उपयुक्त शारीरिक श्रम करके अपने उपभोग की वस्तुओं के उत्पादन में योगदान देना चाहिए। इसी से श्रम का महत्व बढ़ेगा, देश आत्मनिर्भर बनेगा, स्वच्छता सफाई जैसे कार्य से समाज में बराबरी को बल मिलेगा, बड़े-छोटे की भावना कम होगी, इसी को ध्यान में रखकर गांधी जी ने चरखा का सिद्धांत दिया था की हर घर में चरखा चलना चाहिए और चरखे से निर्मित वस्त्र हर भारतीय को धारण करना चाहिए। परिणाम स्वरूप इंग्लैंड के उद्योगों में बनने वाले वस्त्र भारतीय बाजार में अपेक्षतया कम होने लगे और अंग्रेजी अर्थव्यवस्था हतोत्साहित होने लगी। चरखा की योजना भी स्वदेशी के नारे का एक हिस्सा है। गांधी जी ने श्रम सिद्धांत को भारतीय अर्थव्यवस्था की कुंजी मानते हुए कहा “भारत की विशाल जनसंख्या को उपयुक्त श्रम में लगाया जाना चाहिए।” इसके लिए उन्होंने तकनीकी प्रधान उद्योगों के मुकाबले श्रम प्रधान उद्योगों को वरीयता दी। क्योंकि तकनीकी मूलतः मानव श्रम विरोधी होती है और पूंजीवाद के साथ तकनीकी विकास की संगति है। अतः पूंजीवाद और उसके द्वारा विकसित तकनीकी में एक तरह की समानता है और समाजवाद से इसका बुनियादी विरोध है। पूंजीवाद और तकनीकी विकास का ही नया अवतार भूमंडलीकरण है। भूमंडलीकरण के दौर में जो देश तकनीकी रूप से पिछड़े हैं, वे सुपर तकनीकी वाले देश पर आश्रित हो जाते हैं। सुपर तकनीकी वाले देश उत्पादक देश और पिछड़ी तकनीकी वाले देश उपभोक्ता देश कहलाते हैं। अतः पिछड़ी तकनीकी वाले देश के स्थानीय उत्पादन सुपर मार्केट में अपना स्थान नहीं बना पाते क्योंकि सुपर बाजार पर नियंत्रण सुपर तकनीकी वाले देश का होता है। इस प्रकार स्थानीय उत्पाद का महत्व गिरने लगता है। धीरे-धीरे सुपर तकनीकी वाले देश का पिछड़ी तकनीकी वाले देश के बाजार पर अधिग्रहण हो जाता है। फिर उपनिवेशवाद का नया दौर बाजारवाद शुरु हो जाता है। अतः कहां जा सकता है कि भूमंडलीकरण साम्राज्यवाद का ही नया अवतार है, जो सुपर तकनीकी के कारण संभव हुआ।  इस प्रकार महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में तकनीकी गुलामी के खतरों के प्रति हमें आगाह किया था, जो आज विकराल रूप लेकर हमारे सामने खड़ी है।  भूमंडलीकरण के समाधान के रूप में गांधी जी का स्वदेशी का विचार सर्वाधिक उपयुक्त और प्रासंगिक है। गांधी जी की मान्यता थी लोगों को अपने देश में बनी वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए ताकि यहां की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो सके। अप्रत्यक्ष अर्थ यह भी था कि लोग अपनी संस्कृति और स्वाधीनता के साथ लगाव अनुभव करें, ताकि यूरोपीय विचारों का अंधानुकरण न करने लगे। उनका यह विश्वास था किसी भी देश का विकास उसकी अपनी संस्कृति और मूल्य परंपराओं के अनुसार होता है दूसरी संस्कृतियों की नकल से नहीं। यही कारण है कि विकास और आधुनिकता की पश्चिमी अवधारणा से गांधी जी सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि प्रत्येक देश का अपना विकास मार्ग और अपनी आधुनिकता होती है। इन तमाम प्रश्नों की दृष्टि में गांधी दर्शन आज भी प्रासंगिक है।

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