©डॉ धनञ्जय शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर, सर्वोदय पी.जी. कॉलेज, मऊ
मिलेट ईयर मनाया जा रहा था,
और फायदे गिनाए जा रहे थे
नाटे बेडौल थोथले और मोटे अनाज के।
जो पिछड़ गए थे,
उत्तर आधुनिकता के दौर में
कारपोरेट के बाजार में
हरित क्रांति की योजना से,
पतले लंबे छरहरे नुकीले और कोरदार अनाज से।
मैने भी सोचा बना लूं
अपने खेत का हिस्सा,
और लिख दूं
गेहूं जौ धान चना के साथ
मडुआ सांवा और कोदो का किस्सा।
बहुत खोजा,
मकान दुकान खेत खलिहान,
पर नहीं मिला मोटे बौने अनाज का दाना।
दिन गुजरे अरसा बीत गया,
घूमते हुए मिल गया
आदिम जाति के घर से,
पुराने कपड़े में बंधा
धुंध खाए खूंटी पर अड़ा,
मोटे अनाज का लाल दाना मडुआ।
लाया गया फर्म में,
रसायनिक खाद संग फेंट
जैसे डाई,यूरिया, जिंक, फास्फेट
मूल तथ्य को आधुनिक विचार संग बो दिया गया।
पर! नही कोई निखार
दो चार अंकुर को छोड़
बाकी गए सब बेकार……..
क्योंकि खो चुके थे अपनी प्रजननता,
संकट ग्रस्त अन्न की भांति
नही पाया गया पराली में,
लंबे अरसे से नहीं देखा गया
भोजन के थाली में,
अब जरूरत है इन्हे भी
अपने प्राकृतिक आवास की,
बाघ संरक्षण की भांति
कुदन्न संरक्षित जोन की।
और वर्ष में सात दिन
मिलेट सप्ताह मनाने की।।