लेखिका : ज्योत्सना प्रवाह
वरिष्ठ साहित्यकार, वाराणसी
यह कहानी है एक औरत की… जिसमें वही चेतना बसती थी जो आम औरतों में होती है बस, उसकी किस्मत अलग थी उसका नाम था तितिक्षा। प्रस्तर शिल्पी अपने साधना ग्रह में बैठा प्रतिमाएं तराशता रहता है निरंतर, अविश्रांत… दैववशात यदि कोई प्रतिमा संपूर्ण निर्मिती के पहले ही सहसा खंडित हो जाए तो रासायनिक अवलेपों से दरारे बंद कर दी जाती है फिर वह प्रतिमा बाहर से सर्वथा अंग दोष रहित नजर आती है किंतु, उस दरार की चिलकन क्या उसे हर क्षण अभिशप्त नहीं करती रहती? उसी अबूझ कसक के साथ घर बसाया था उसने प्रहर सचदेवा के साथ… कैसा विचित्र जुड़ाव था वह… काया का संपूर्ण समर्पण भाव था पर,मन फिर रह रहकर इस कदर उचाट क्यों हो जाता था? पति के सारे काम करना, लोगों से बातें करना,पति के मित्रों से मिलना यह सारे काम आराम से करती थी पर, यह सब करते हुए भी एक बेचैनी सी पूरे अस्तित्व पर छाई ही रहती थी और इस तरह वह बोलने भी कम लगी थी और सुनने भी…. यह नहीं था कि उसे अपने पति से कोई शिकायत थी या नाते रिश्तेदारों से कोई आपत्ति थी।प्रहर दुनिया के उन मनुष्यों में से थे जो निरे भौतिकवादी होते हैं, जज्बातों की नदी की गहराइयों में उतर कर डूबने से डरते हैं,क्या महत्व है भावनाओं को व्यक्त करने का वह नहीं जानते,वह जीवन के तंग या फटे हुए कुर्ते को बिना ठीक किए ही पहन लेते हैं,।जो दो और दो चार की गिनती के आगे किसी सपने का बिंदु जोड़ने को जिंदगी की फिजूलखर्ची समझते हैं और अपना आत्म विश्लेषण करने की तो कभी जरूरत ही नहीं समझते।
तितिक्षा संसार की उन लोगों में से थी जो जीवन की कतरनों को जोड़ जोड़ कर अपने अंगों की नाप खोजते रहते हैं। वह अति संवेदनशील थी खुद के प्रति भी और दूसरों के प्रति भी,उसका मानना था कि भावनाओं की अभिव्यक्ति एक कला है जो जीवन से धीरे-धीरे सीखी जा सकती है; जो अपनी जिंदगी की इकाई के आगे जोड़ने के लिए हमेशा सपनों के बिंदु ढूंढते रहते हैं। तितिक्षा को नहीं लगा था कि प्रहर की बनावट गलत थी और उसकी अपनी बनावट ठीक थी, वह केवल यह सोचती थी कि दोनों की बनावट अलग किस्म की थी जिस प्रकार वह सचदेवा की बनावट को नहीं बदल सकती थी उसी तरह वह अपनी बनावट को भी नहीं बदल सकती थी, उसकी हालत ऐसी थी कि जैसे लहरों की मनमानी से कोई नाव किसी अनजान टापू पर आ लगी है जहां वह यात्री किसी को पहचानता नहीं है बस टकटकी लगाए सभी ओर देखता है उसे यह भी पता था कि जब किसी लड़की की विवाह की नौका किसी टापू में पहुंच जाती है तो लड़की को बस वही रहना होता है और फिर उस नौका को किसी विचार का चप्पू लगाना उसके लिए वर्जित होता है इसलिए उसने कभी चप्पू की तरफ देखा ही नहीं… हां वह सोती तो देखती कि वह दौड़ रही है उसके पीछे लोग दौड़ रहे हैं और अंत में सामने समंदर है,लोग हंस रहे हैं और पूछते हैं अब कहां जाओगी..? घबरा कर वह पानी पर पैर रखती है तो देखती है कि पानी तो नरम बिछौने जैसा है और वह बड़ी सहजता से पानी पर चलती जा रही है उस पार कोई है जो बाहें फैलाए उसकी प्रतीक्षा में खड़ा है लेकिन उसका चेहरा साफ साफ नजर नहीं आ रहा है, शुरू-शुरू में वह इस सपने से चौंक पडती थी। धीरे-धीरे जैसे उसे लगने लगा था कि उसके शरीर में एक नहीं दो स्त्रियां हैं एक जिसका नाम तितिक्षा था जो किसी की बेटी थी, श्री प्रहर सचदेवा की पत्नी थी, जिसकी जाति हिंदू थी, देश भारत था और जिस पर कई नियम और कानून लागू होते थे और दूसरी जिसका नाम औरत के सिवा और कुछ ना था जो धरती की बेटी थी और आकाश का वर ढूंढ रही थी, जिसका धर्म प्रेम था और देश-दुनिया थी और जिस पर एक तलाश को छोड़ कोई नियम कानून लागू नहीं होता था फिर धीरे-धीरे उसे इस स्वप्न में आनंद आने लगा बाकी सब नियम रह गया फिर उस स्वप्न में कुछ और जुड़ गया वह सपने वाला बुत उससे बातें करने लगा और फिर एक घटना घट गई। वह किसी के घर रात्रिभोज में गई वहीं एक आदमी से मुलाकात हुई, दिखने में साधारण शक्ल सूरत, कद काठी सामान्य थी मगर बिल्कुल उसके सपनो वाले बुत की तरह उसकी आंखें थी, गहरी और बोलती हुई, वहीं आवाज़ थी, नरम और मधुर…शालीन व्यक्तित्व। उसने भी उसे उसी तरह मुस्कुरा कर देखा जैसे उसका सपनों वाला बुत देखा करता था, वह कितनी देर उसे देखती रही थी बल्कि शायद देख भी नहीं रही थी उसकी आंखों में उतर कर कुछ और भीतर कहीं व्यक्ति को ढूंढ रही थी पढ़ रही थी…जो वह दिखाई नहीं दे रहा था। वह कितनी देर उसे देखती रही थी फिर पता चला कि उसका नाम स्वप्निल था तितिक्षा ने चिकोटी काटी खुद को कि कहीं यह सपना तो नहीं था? यह सपने जैसा सच था, उसका मन शायद वर्षों से कुछ मांग रहा था, सूखे पड़े जीवन के लिए… मांग रहा था थोड़ा पानी और अचानक बिन मांगे ही सुख की मूसलाधार बारिश मिल गई, प्यास बुझी थी उसकी, वह एक अनजानी दूसरी दुनिया में खो गए उसके मन के भीतर, उसकी देह के भीतर,क्या कुछ हो गया वह समझ नहीं पा रही थी प्यास क्यों बुझ रही है? वह भी नहीं समझ रही थी, उसने सपने वाले अपने बुत का नाम स्वप्निल रख दिया। फिर जब एक तितिक्षा अपने पति के पास बैठी होती दूसरी स्वप्निल के पास बैठी होती, एक तितीक्षा के पास शरीर का अस्तित्व था दूसरी तितिक्षा के पास शरीर का अस्तित्व नहीं था, पहले पहल एक तितिक्षा दूसरी से लंबी-लंबी बहस छेड़ बैठती थी और दूसरी तितीक्षा कभी हंस कर-कभी रो कर चुप रह जाती थी। पर दूसरी तितिक्षा का दिल इतना अबोध था, आंसू इतने द्रवित होते थे, शब्द इतने दारुण होते थे कि पहली तितिक्षा को उस पर प्यार आने लगा था, अब दोनों अंतरंग सहेलियां हो गई थी, अब वह कल्पना की जगह सचमुच स्वप्निल से बातें करना चाहती थी, उससे मिलना चाहती थी फिर एक दिन उसने दोस्तों के साथ स्वप्निल को भी चाय पर बुलाया । सभी गपशप कर रहे थे तभी एक मित्र ने कहा कि मेजबान की तारीफ में सभी लोग एक एक कागज पर लिख कर दे देखें कौन कितना अच्छा लिखता है? सभी ने लिखकर दिया जब स्वप्निल की बारी आई तो उसने हाथ में ली हुई कलम से खेलते हुए तितिक्षा की तरफ देखा और धीरे से तितिक्षा के कान के पास मुंह करके बोला मुझे लिखना नहीं आता क्योंकि किसी के दिल की कोई भाषा नहीं होती मुझे तो बस आंखों की भाषा पढ़नी आती है…और तितिक्षा ने पहली बार जाना की आंखें मौन रहकर कितने स्पष्ट बातें कर जाती हैं और वह कांप कांप गई थी मगर, उसने महसूस किया कि बचपन से जिस उदासी ने उसके अंदर डेरा जमा रखा था वह आज दूर चली गई थी… एक उत्साह, एक उमंग से भर गई थी, भेंट कितने समय की हुई इसकी अपेक्षा वह किस भाव से हुई इसका महत्व अधिक होता है… सबके चले जाने के बाद स्वप्निल के जूठे प्याले में बची हुई ठंडी चाय का घूंट लेकर सोचा -यह क्या, मैं दीवानी हो गई हूं, जैसे उसने ऐसी वस्तु का आस्वादन कर लिया था जो पहले कभी नहीं किया था। फिर कितने दिन बीत गए बिल्कुल चुपचाप! वह कामों में खुद को इतना व्यस्त कर लेना चाहती थी कि उसके शरीर में शक्ति ना रहे और बिस्तर पर गिरते ही नींद आ जाए।
एक शाम वह घर में अकेली थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई दरवाजा खोला तो सामने स्वप्निल खड़ा था, उसकी जो दृष्टि तितिक्षा की ओर उठी थी वह असावधान नहीं थी, वह मूक भी नहीं थी… आंखों में ज़बान उग आयी थी, वह एक पुरुष की मुग्ध दृष्टि थी जो नारी के सौंदर्य के भाव से दीप्ति थी, दृष्टि तितिक्षा की आंखों पर टिकी थी, उसकी आंखें झुक गई पर इस तथ्य के प्रति पूरी सचेत थी कि युवक की दृष्टि ने अब संकोच छोड़ दिया है,वह ढीठ हो गई है, युवक की दृष्टि जैसे देखती नहीं थी, छूती थी, वह जहां से होकर बढ़ती थी जैसे रोम-रोम को सहला जाती थी, तितिक्षा का शरीर थरथर कांप रहा था, उसकी समझ में बिल्कुल नहीं आ रहा था कि उसका मन इतना घबरा क्यों रहा है और पहली बार किसी पुरुष से नहीं मिली थी ना पहली बार किसी पुरुष के सानिध्य में आई थी, उसने पुरुष दृष्टि का ना जाने कितनी बार सामना किया था मगर यह दृष्टि उसे व्याकुल कर रही थी, स्वप्निल की दृष्टि में प्रशंसा थी और वह शालीन प्रशंसा तितिक्षा के शरीर को जितना पिघला रही थी उसका मन उतना ही घबरा रहा था वह लगातार अपने मन से पूछ रही थी – यह सब क्या है? वह इतना डर क्यों रही है?
“आप बहुत सुंदर है तन और मन दोनों से” स्वप्निल ने धीरे से मुस्कुराते हुए कहा।
अपने रूप की प्रशंसा सबको अच्छी लगती है और फिर वह भी नारी…..युवक उसके रूप की प्रशंसा कर रहा था और वह ऐसे भयभीत थी जैसे कोई संकट आ गया हो, उसका मन उसे लगातार सावधान कर रहा था अचानक जैसे वह सचेत हुई, उसके हाथ कांप रहे थे उसकी हालत उस नाविक जैसी थी जिसके चप्पू सीधे नहीं पड रहे थे नाव डोल रही हो तो भी कोई आश्चर्य नहीं.. वह अपने रास्ते से भटक गई है और ऐसे क्षेत्र में पहुंच गई है जहां निर्जन द्वीप है और द्वीप मे कमल ही कमल खिले हैं, नाव द्वीप की ओर बढ़ती जा रही है और वह उसे रोकने में असमर्थ है,वह जैसे सम्मोहित सी हो गई थी पर उसका विवेक लगातार हाथ में चाबुक लिए उसे पीट रहा था,यह ठीक नहीं है तितिक्षा… यह ठीक नहीं है…संभल जा.. अब वह अंदर आकर सोफे पर बैठ चुका था वह भी यंत्र चालित सी सामने के सोफे में धंसी जा रही थी, तितिक्षा सोच रही थी कि विधि का विधान भी कितना नाटकीय है, किसी को किसी भी प्रकार का पूर्वाभास नहीं होता कि कौन सी घटना आगामी किस बड़ी घटना इक्षा या प्रवृत्ति आगामी बड़ी घटना का कारण बन जायेगी, उसके होश शायद बस में ना आते, पर तभी स्वप्निल ने कहा कि “उस दिन गलती से आपका कलम मेरे साथ चला गया था” उसने कलम निकालकर तितिक्षा की ओर बढ़ा दिया, उसके मन में आया कि कह दे कि आपका क्या विचार है गलती करना सरल बात होती है कलम और स्त्री में बड़ा अंतर है स्वप्निल, और फिर दुनिया में हर कोई गलती कर सकता है, इस औरत को गलती करने का भी अधिकार नहीं होता। कई बार जानदार वस्तुओं से बेजान वस्तुएं ही अच्छी होती है मगर कुछ भी कह नहीं पाई, मोहब्बत में सारी शक्तियां होती हैंएक बस बोलने की शक्ति नहीं होती, केवल इतना कहा कि -“यह जहां चाहता है इसे वहीं रहने दीजिए ना…” तभी इतने दिनों तक लौटाने नहीं आया था उसने कहा। थोड़ा आगे झुक कर मुझे ध्यान से देखा और बोला -“आप अपना महत्व नहीं जानती, कैसे जानेंगी? आपके पास अपनी नजर है, मेरी नहीं.. मेरी नजरों से देखेंगी तो जानेंगे कि आप क्या है? पता है? आपको देखा तो मुझे यह समझ में आया कि मां की आवश्यकता पुरुष को तभी तक होती है जब तक वह अबोध होता है, बोध होने पर उसे मां नहीं प्रियतमा की आवश्यकता होती है जिससे वह अपने वयस्क प्रेम की प्रतिध्वनि पा सके”…. और हाथ की सिगरेट बुझाकर तितिक्षा की ओर इतनी उदास नजरों से देखा कि तितिक्षा को लगा था वह एक औरत नहीं थी एक सिगरेट थी जिसको स्वप्निल ने एक ही नजर से सुलगा दिया था। वह चला गया। उस दिन के बाद से वह तितिक्षा नहीं रही थी एक सुलगती सिगरेट बन गई थी जिसे स्वप्निल ने सुलगा दिया था और पीने का अधिकार नहीं लिया था।
……….कथा क्रमशः : अगले अंक में