व्यंग्यकार विनय प्रताप जी
मेरी पत्नी ने मुझे सवेरे-सवेरे एक बहुत बड़ी बहस में उलझा दिया। मैं बैठा हुआ टी.वी. पर समाचार देख रहा था तभी उन्होंने सुरंगों के सम्बन्ध में अपनी राय व्यक्त करने को कहा। मैंने भी कल समाचार पत्र में राजस्थान सीमा पर सुरंगे होने का समाचार पढ़ा था, अतः मैंने कहा कि ये सचमुच चिंता का विषय है।
मेरी पत्नी ने शिकायत की, “ये चिंता का नहीं कुछ कदम उठाने का समय है। ये सुरंगे हमे कमजोर बना देंगी। इनसे आने वाले कितना आतंकित करते हैं और बर्बादी फैलाते हैं इसका कुछ अंदाजा भी है आपकों?”
मैं समझ नहीं पाया कि आखिर मै क्या कर सकता हूँ। अदना सा मास्टर हूँ और फेसबुक पर कुछ बकवासें लिख कर अपना जीवन धन्य समझ लेता हूँ। राष्ट्रीय समस्याओं पर मैं सिर्फ सरकार को दोषी ठहराने का कार्य कर सकता हूँ, जो मैं अन्ना के मुद्दे पर कई साल कर चुका हूँ।
मैंने कहा, “तो मै क्या कर सकता हूँ। ये तो विशेषज्ञों का कार्य है। वही समस्या का कुछ समाधान खोज सकते हैं।”
“तुम तो हर बात पर राय रखते हो। हक्सले की तरह कोई भी विषय तुम्हारे लिए कठिन नहीं है तो इस विषय पर अपनी विशेषज्ञता क्यों नहीं दिखाते?” पत्नी ने मुझे मर्मस्थल पर कोंचा।
मैंने अपने गुस्से को पिया और बोला ठीक है कल बताऊंगा। पूरा दिन मैंने फिलस्तीन से इसराईल और मेक्सिको से अमेरिका की सुरंगों के बारे में पढ़ा और ये जानकारी इकठ्ठा की कि ये देश इस समस्या का हल कैसे ढूंढ रहे हैं। शाम तक मैं जानकारी के हथियारों से लैस होकर घर वापस आया और पत्नी से पूछा कि वो समस्या पर कब मेरे विचारों को सुनना चाहेगी।
पत्नी बोली, “अभी व्यस्त हूँ, खाने के बाद बात करेंगे।”
खाने के बाद मैंने पत्नी को समस्या के बारे में विस्तार से बताना शुरू किया और बताया कि कैसे समस्या का हल सुरंगों को ढूँढने और उनको भर देना मात्र नहीं है। और ये भी बताया कि उनसे आने वालों को मार देना भी मानवीय हल नहीं है। मेरी पत्नी को मार देना मानवीय न होने पर कुछ शक था, उनका मानना था कि जो हमें नुकसान पहुंचाए उसे मार देने में कोई बुराई नहीं है। परन्तु थोड़ी बहस के बाद मैं मानवीय आचरण पर बाद में बात करने को तैयार हो गया।
पत्नी ने कहा, “यदि हम सुरंगों में कुछ जहरीला भर दें तो कुछ बुराई है।”
“ये तो अमानवीय समाधान है।” मैंने कहा, “और हम इस पर बाद में बात करेंगे।”
पत्नी ने कहा, “अगर हम इन सुरंगों को भर दें या इनके ऊपर भारी पत्थर रख दें तो क्या होगा?”
“नयी सुरंगें बन जायेंगी।” मेरा उत्तर था।
“अगर हम अपने यहाँ इन दुष्ट प्राणियों को पकड़ने के लिए कुछ रख लें तो” पत्नी बोली।
“सब तो हैं।” मैंने कहा।
मैंने कहा, “मेरी तो ये नहीं समझ आता कि आखिर सुरंगों की क्या आवश्यकता पड़ गयी जब हम ऊपर से आने वालो को ही नहीं रोक पा रहे है या पकड़ पा रहे हैं।”
पत्नी ने कहा, “पकडने का कोई फायदा नहीं है फिर और आ जाते है। रोकने की ही व्यवस्था करनी चाहिए”
“गुप्तचर व्यवस्था को दुरुस्त करना और अपनी सीमाओं की चौकसी करना ही दो तरीके है जो मेरी समझ में आते हैं। परन्तु ये सब ना जाने कब जागेंगे और इसका संज्ञान लेंगे । इन्हें तो भ्रष्टाचार से ही फुर्सत मिले तब न।” मैंने गुस्से में कहा।
“भ्रष्टाचार का तो मै कुछ नहीं जानती।” पत्नी बोली, “पर इतना जानती हूँ कि इन चूहों की परेशानी से तभी कुछ आराम मिलेगा जब तुम ये फेसबुक, व्हाट्सएप छोड़ कर कुछ करोगे।”