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शिव जी का डमरू और गंगा जी का नृत्य

Posted on August 4, 2023

लेखिका – रश्मि धारिणी धरित्री   

सम्मानित सुधि जनों के सानिध्य में आज कुछ धरती, प्रकृति और पर्यावरण को याद करने की कोशिश कर रही हूँ थोड़ा हास परिहास के साथ

शिव जी का डमरू सच में बज रहा है , गंगा जी नृत्य कर रही हैं और हिमालय बैठे हैं सर पकड़ के। और मनुष्य??? वो अपने किये धरे के बाद त्राहि माम्! त्राहि माम् पुकार रहा है। और पार्वती जी पहले तो थोड़ा हँसी और अब चिंतित हो कर शिव जी को तिरछी नज़र से देख रही हैं कि हे प्रभु हो गया नाच गाना?

तो आइये कथा सुने कि आज  का शिव पार्वती संवाद क्या है और क्यों वर्तमान में नये रहस्य खुल रहे हैं

चिंतित पार्वती कह रही हैं, “हे नाथ! अचानक इस भारत भूमि पर उत्तरी क्षेत्र प्रकृति के कोप का क्या कारण है, क्यों मेरी बहने गंगा और यमुना व्यासी मगन हो कर नृत्य कर रही हैं कि जल प्रलय आ गया है। सारा मलबा-मिट्टी हिमालय श्री के घर से बह कर मैदानों में तबाही मचा रहा है? सारा कूड़ा-कचरा बह के घरों में आ रहा है। घर पुल इमारतें सब धराशायी हो रही हैं?

शिव जी बोले “शृणु देवी प्रव्क्षयामि ! स्मरण करो जब धरती एक दहकता हुआ एक ग्रह मात्र थी। धीरे-धीरे ठंडी हुई और ब्रह्मांड में देवी गंगा जल के बादल का रूप धर के इसके पास से निकली और गुरुत्वाकर्षण से धरती के वायु मंडल में समाहित हो गई। ऐसा अनेको बार हुआ। हाँ ये सच है, धरती पर मौजूद पानी धरती का नहीं है।

फिर वो गरज तड़क के बादल बरसे, धरती और शांत ठंडी होती गयी, निर्मल जल जहाँ रास्ता मिला बहता गया और करोड़ो वर्ष की प्रक्रिया में अपने खुद के रास्ते बना लिए, और नदियों का रूप लिया। इस धरती पे जीवन जन्मा। नाना प्रकार के जीव जंतु वनस्पति करोडो वर्ष की प्रक्रिया में धरती पे आये। और अंत में आया मनुष्य।

बुद्धिमान प्राणी जो जानता था कि जल को नियंत्रण करना कठिन है, वो किसी के रोके ना रुकता।  जल जो सागरों महासागरों और धरती के तमाम झीलों, तालाबों नदियों से उठता है वायुमंडल में रहता है और कभी वर्षा, कभी हिमपात, कभी ओले के रूप वापस धरती पे आता है।”

पार्वती जी ने हुँकारी भरी, लेकिन एक नज़र अपने नादान बच्चों पे डाली

शिव जी बोले” हे पार्वती! मैं अपने ही बनाये सृष्टि के नियम नहीं बदल सकता। भौतिकी हो या रासायनिक या जैव प्रक्रिया। तो  जल चक्र में जितना नमी वायु में जायेगी वो धरती पे वापस आना ही है। वो नियम है। उसको वन जंगल और पर्वत नियंत्रित करते थे। नियम से तो लगभग 120 दिन वर्षा होनी ही है। हाँ कभी अति वृष्टि, कभी बादल फटने पर ये चक्र अनियंत्रित हो जाता है। कभी 80 दिन सामान्य वर्षा होगी तो 20 दिन जम के पानी बरसेगा। या पूरे चक्र में कम बरसा तो एकदम से आखिर में अपना पूरा पानी बरसा देगा। हमारे बच्चे बहुत बुद्धिमान हो गये हैं। तरह-तरह के विकास के साथ सारी सुविधाएँ भी चाहिए। आराम चाहिए।

अरे मेरे तुम्हारे दर्शन करने हेलिकोप्टर से आता है। भोग विलास भी चाहिए। तमाम प्लास्टिक की बोतलें, पॉलीथीन, कूड़ा आपके पिता जी के घर हिमालय पर आनंद और मौज मस्ती करके वही फेंक आये है।

पार्वती जी थोड़ा सोच में पड़ गयी हैं ।

महादेव बोले, “हे उमा सुनो !

विकास बहुत आवश्यक है, दुर्गम स्थानों में भी विद्यालय, अस्पताल, सड़को की ज़रूरत है। लेकिन अगर संतुलित विकास ना हो तो? मनमाने तरीके से पेड़ जंगल काटे जा रहे हैं। हिमालय जो मिट्टी के पहाड़ हैं, उनको बिना समझे जाने, ज़रूरत से ज्यादा काट दिया जा रहा है। मिट्टी को बांधने वाले जंगल कहाँ गए। वर्षा को नियंत्रित करने वाले पेड़ कहाँ गए। सतत विकास ( Sustainable development) को अनदेखा कर दिया गया है। शहरों के विस्तार में कुएँ पाट दिये गये। झील-तालाब पाट दिये गये। जिनसे बारिश का पानी धरती के अंदर जा कर भू गर्भ जल के स्रोतों को पुनः जीवन मिलता था। अब वो जल कहाँ जाये।

विकास किसकी कीमत पर होना चाहिए। जब लोग ही नहीं होंगे तो विकास किसके लिए?

पहाड़ों पर नदियों के पुराने रास्तों में निर्माण कर लिया है। नदी के पुराने तल पे ( River bed)  पर बिना सोचे घर बना लिए। इनके पूर्वजों ने कभी ऐसा लालच नही किया। वो वनस्पति को, प्रकृति के हर स्रोत को, जल को, नदियों को, वनों को पूजते थे उनका सम्मान करते थे। क्योंकि वो जानते थे कि प्रकृति जब कुपित होगी तो विनाश करेगी। जलवायु परिवर्तन, अति वृष्टि से जो अनियंत्रित जल है वो अपने पुराने रास्तों से बह रहा है। ऊपर से अपने साथ वो सारा प्लास्टिक कूड़ा कचरा ला रहा है जो सैर करने, वास्तविक धर्म भूल कर दिखावा करते समय छोड़ कर आये थे। मनुष्य अपना किया भुगत रहा है।

प्रकृति तो अपने आपको संतुलित कर रही है, स्वयं सफ़ाई कर रही है।

इनका कूड़ा जो भराव क्षेत्र ( landfill) । में भर गया था, वही वापस आ रहा है इनके घरों में?

पार्वती जी अपने बच्चों को मिले दंड से दुखी हैं।

“हे नाथ! क्या विपुल जॉय चक्रवात का कोई हाथ नहीं?”

-उमा तुम बहुत भोली हो देवी। तनिक देखो धरती को। इसने वहाँ वर्षा की जहाँ धरती कई वर्षों से प्यासी थी। कष्ट केवल मनुष्य के लिए है। धरती तो संतुलन कर रही है। थोड़ा मोह छोड़ कर निर्विकार भाव से देखो। देखो तमाम भक्त कांवड लेकर मुझे प्रसन्न करने निकले हैं, अपने कान फोडू संगीत से, भांग गांजे से, धन का दिखावा कर रहे हैं। जो सचमुच भक्त है वो किनारे निकल रहा है।

सुनो प्रिय अब मुझे भी घबराहट हो रही है। चलो कैलास चल कर छुपा जाए। केदारनाथ, हरिद्वार में तो समाधि नहीं लगा सकता। थोड़ी देर डमरू और बजा लूँ, गंगा को अपनी बहनों के साथ थोड़ा नृत्य करने दो। फिर अपनी जटाओं मे समेट लूँगा। हिमालयराज को भी अपना घाव भरने दो। शीघ्र ही नये वन पनपेंगे। जैव विविधता से फिर सशक्त पारिस्थितिकी तंत्र बनेगा।

आओ चलें           

3 thoughts on “शिव जी का डमरू और गंगा जी का नृत्य”

  1. Vinay Pratap says:
    August 5, 2023 at 9:21 am

    Excellent. Keep writing.

    Reply
  2. AKHILESH SRIVASTAVA says:
    August 6, 2023 at 1:43 pm

    पर्यावरण संरक्षण के विषय पर अच्छा और जरा हट के लेख है । विकास और पर्यावरण में जब तक सामंजस्य नहीं होगा तो प्रकृति अपने आप से अपना रास्ता बना लेती है। कश्मीर में सतलुज नदी में बाड़, चनाई में सैलाब, उत्तरांचल में सभी नदियों में जल प्रलय यह सब प्राकृत का मानुष द्वारा किए गये कार्यों का मय ब्याज सहित हिसाब ही तो है ।
    अच्छा प्रयास है।

    Reply
  3. मनोज कुमार says:
    August 7, 2023 at 4:13 pm

    Excellent आनंद आ गया ।जय हो

    Reply

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