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कविता – लकड़हारा

Posted on August 4, 2023

कवि – घनश्याम कुमार युवा कवि पलामू झारखंड

भला इस मानुस

के बारे में कौन सोचेगा

जो अतीत के गर्त से

भविष्य के द्वार पर आ खड़ा है

वही लकड़ी  के टुकड़े से

काटता है असख्य लकड़ियों को

ढूंढता है

अनवरत

सूखी सूखी टहनियां

हरे ओर नवकोपलो को 

उसे कटाने में डर लगता है

यहीं सृजनहार हैं

भोर के चांद देखकर निकले

कितने जल्दी  दोपहर हो गए

रोकता है स्वयं को

प्यासा यह पथिक

कल कल करती ये धाराये

आज विपरीत दिशा में

बह रही हैं

गंदे मटमैला जल

अब नहीं भाता इन कंठो को

बासी सुखी रोटिया

खाकर रो रहा था

उसके गले में अटक गई -सुखी रोटियां

मन को शांत कर अपने  उधेड़बुन में

गाकर गीत चला लकड़हारा

रुनझुन रुनझुन बजती

साइकिल की  घण्टिया 

चला राही

प्यास   की  आस  बुझाने

चंद    रुपयों  को   जुटाने

निरंतर आज भी लकड़हारा

लकड़हारा ही कहलाता है

फटी एड़िया -फटे कपड़े

चेहरे पर पड़ी हुई छुरियां

कल से निरंतर चलता हुआ

आज तक निरंतर चलता

आ रहा है।

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