प्रसिद्ध रंगमंच निर्देशिका चित्रा मोहन जी का भारतेंदु बाबू को समर्पित मौलिक नाटक “हम याद बहुत आएंगे“
आदरणीया चित्रा मोहन जी प्रख्यात व वरिष्ठ रंगमंच निर्देशिका व प्रवक्ता हैं । आप भारतेंदु नाट्य अकादमी से सम्बद्ध रही हैं । “हम याद बहुत आएंगे” महान नाट्यकार व आधुनिक हिंदी के प्रणेता भारतेंदु बाबू को समर्पित आपका मौलिक नाटक है । नाट्य-कला को समर्पित वीथिका के इस मंच पर इस अद्भुत, संगीतमयी नाटक का दूसरा अंक आप पाठकों के सम्मुख है ।
पात्र परिचय
भारतेंदु बाबू उम्र (समयानुसार 28 से 35 वर्ष तक)
लड़की -1- कोरस (नयना )
इशिता – 26 साल (ये भी दृश्यानुसार मन्नो देवी की भूमिका में भी)
चौबे पंडा: उम्र – 50
कोरस: ५ से ६ जनों का
मन्नो देवी: (रुक्मिणी/ललिता की भूमिका)
मल्लिका: (चंद्रावली / राधा )
लड़की – 2 – (सुमुखि) कोरस –
(शोहदा, लाला, सोहा आदि कोरस से ही भूमिकाएं करेंगे)
(संगीत के साथ मंच पर हल्का प्रकाश उभरता है। एक कुर्सी पर बैठी युवतीमेज़ पर रखे लैंप की रोशनी में कुछ लिखते पढ़ते नज़र आती है।)
युवती (इतिशा): मैं इतिशा, रिसर्च स्कालर हूं। भारतेंदु हरिश्चंद के व्यक्तित्व और कृतित्व पर शोध पत्र लिख रही हूं। (अपनी रिसर्च फाइल या बुक के पन्ने पलटती है।) वाह भारतेंदु बाबू वाह ! क्या कुछ नहीं लिखा है आपने? सारे जगत की पीड़ा का बोध रहा है आपको, काश आज आप होते तो मैं स्वयं आपसे मिल पाती। कह पाती आपसे कि प्रेम के अद्भुत रंग के रचयिता, अपने जीवन में विष का प्याला पीकर भी प्रेम ही सींचते रहे, प्रेम ही उलीचते रहे, लोग भले ही तुम्हारी निंदा करते किंतु तुम यथा संभव निरपेक्ष रहने की चेष्टा करते। प्रेम चाहे हिन्दी भाषा से किया, कला साहित्य, नाटकों, समीक्षा, निबन्धों से किया अथवा निजी जीवन में किया, सदैव संतुलित ही रहे, किंतु तुम्हारे अन्तर्मन की पीड़ा भला मुझसे अधिक कौन समझेगा !
(सहसा पीछे से एक आवाज़ आती है और पार्श्व संगीत मुखर हो उठता है। यहां से आगे का पूरा नाटक फ्लैश बैक में चलता है, जो अंत में टूटेगा)
मल्लिका की आवाज: बाबूजी! बाबूजी!
युवती इतिशा: कौन ? कौन है वहाँ?
मल्लिका: जी नमस्कार! मैं मल्लिका, क्या भारतेन्दु बाबू हैं ?
इतिशा: ओह नमस्कार! मैं इतिशा हूँ । कहिये क्या काम है बाबूजी से?
मल्लिका: भेंट करना चाहती थी।
इतिशा: अभी तो भेंट संभव न हो सकेगी।
मल्लिका: क्या कहीं बाहर गये हैं वे?
इतिशा: जी, जरा घाट पर गये हैं, बैठकी तो वहीं जमती है उनकी।
मल्लिका: इस वक्त घाट पर तो नही जा सकॢंगी। (कुछ देर सोचकर) आप मेरा ये पत्र उन्हें दे देंगी?
इतिशा: जी अवश्य दे दूंगी (पत्र ले लेती है)
मल्लिका: जी बहुत-बहुत धन्यवाद, वैसे आपका परिचय जान सकती हूं?
इतिशा: (स्वगत) वैसे तो मैं इतिशा हूँ पर पूर्वाभ्यास में भारतेंदु बाबू की पत्नी मन्नो देवी की भूमिका करूंगी तो यही परिचय मैं दे देती हूँ (प्रकट में) जी मैं उनकी धर्मपत्नी मन्नी देवी हूं।
(मल्लिका चौंकती है और इतिशा के हाथ में दिया गया अपना पत्र छीनना-चाहती है, परंतु छीन नही पाती।)
इतिशा (पत्नी): मल्लिका, हमारे बाबूजी की प्रेयसी बहुत सुना था आपके बारे में किंतु मिलने का सुअवसर पाऊँगी ये कभी नहीं सोचा था, आज परमात्मा ने ये इच्छा पूरी कर ही दी।
(ऊपर से नीचे तक मल्लिका को सहज आकर्षण भाव से निहारती है फिर बोलती है)
इतिशा (पत्नी) : कुछ तो है तुममे, जो बाबू जी मेरे रहते तुमसे प्रेम कर बैठे।
मल्लिका: (हाथ जोड़ कर) क्षमा करें, मैं आपकी दोषी हूं किन्तु मेरा उन पर कोई अधिकार नहीं। आप धर्मपत्नी हैं उनकी, अर्धांगिनी हैं बाबू जी की। माना कि मैं आपकी दोषी हूँ किन्तु आप स्वामिनी हैं और मैं जोगिनी।
इतिशा:मल्लिका देवी ! ये तुम्हारा दृष्टिकोण है। भले ही मैं स्वामिनी या धर्मपत्नी हूं उनकी, किंतु उनके हृदय पर मेरा अधिकार नहीं। उनके हृदय सिंहासन पर तुम ही विराजमान हो, तुम जोगिनी नहीं बाबू जी की ह्दयांगिनी हो और मैं स्वामिनी होकर भी प्रेम विहीना जोगिनी
(मल्लिका स्तब्ध खड़ी है, इतिशा मल्लिका का दिया पत्र खोलकर पढ़ती है, आरंभ की दो तीन पंक्तियों के पश्चात मल्लिका स्वयं बोलेगी)
इतिशा (पत्नी): सबसे प्रथम पूज्य बाबू जी को मेरा विनत प्रणाम
(इतिशा अपनी पीठ फेर लेती है, अब दर्शकों की ओर मल्लिका का मुख दिखाई देता है आगे वह स्वयं बोलती है)
मल्लिका :
मेरे प्यारे सों संदेसवा कौन कहे जाये
जिन की वेदना हरें वो वचन सुनाए राम।
कोई सखी देय मोरी पाती पहुँचाय
जाय के बुलाय लावैं बहुत मनाए राम ।
मिलै हरीचंद मोरा जियरा जुड़ाय
अब विरह की पीर सही न जाये राम।
(मल्लिका द्वारा ये पंक्तियां पढ़ते-पढ़ते एक फ्लैश बैक का वातावरण बनता है जिसमें स्वयं भारतेंदु मंच पर आते हैं, जहां मल्लिका बोलती है,भारतेंदु प्रतिक्रिया देते है। दूसरे स्पॉट में इतिशा पत्र पढ़ने का अभिनय करती है। )
मल्लिका : ( भारतेंदु से) चलो भला सब अपनी वीरता हम पर ही दिखायी थी ? हां भला, मैंने तो लोक लाज, अपना बिराना, सब छोड़कर के तुम्हें पाया, भला तुमने हमें छोड़ के क्या पाया ? रुठ कर यहाँ चले आए और मुझे देखो कैसे-कैसे जतन करके तुमने मिलने, जोगन बनी यहाँ तक चली आई। तुम तो निर्मोही हो निर्मोही।
भारतेंदु: जगीने चमन गुल खिलाती है क्या-क्या ? बदलता है रंग आसमां कैसे-कैसे। कोई कहता है हमसे सुंदर संसार में कोई नहीं,कोई कसम खाता है आप सा पंडित ज्ञानी नहीं देखा, कोई पैगाम देता है कि फलानी आप पर जान देती है, आप के बिना तड़प रही हैं। रही सही कसर आपने पूरी कर दी हम पर दुष्टता का, निर्मोही होने का इल्ज़ाम लगा कर।
मल्लिका:हाय राम ! आप हमको ही ताना मार रहे है? एक हम हैं कि आपसे मिलने लोक लाज छोड़ कर यहाँ दौड़े चले आए, हमें पता था आप नही मिलेंगे तो एक पत्र में अपने दिल का हाल लिख कर ले आए।
भारतेंदु : कहाँ है वो पत्र, ज़रा दिखाना, हम भी तो पढ़ें क्या है!
इतिशा (पत्नी): पत्र हमारे पास है। (दोनों इतिशा की ओर मुड़ते है।) गलती से इन्होंने हमें नहीं पहचाना और आपका पत्र हमें थमा बैठी। बड़ी भूल कर दी, है न !
भारतेन्दु (मन्नो देवी से): देखो मन्नो, किसी दूसरे का पत्र पढ़ना धरम के अनुकूल नही है।
इतिशा: (क्रोध से) अच्छा ? और धर्मपत्नी के रहते प्रेयसी के अधीन रहना धरम संगत है ?
मल्लिका: भूल मुझसे हुई है। आप दोनों शांत रहें।
मन्नो देवी: आपसे कोई भूल नही हुई। भूल तो हमसे हुई जो हम इनको समझ ही नहीं पाए। ये स्वतंत्र रहे रचनाएँ लिखते रहें, इनके लेखन में बाधा न पड़े इसलिए घर गिरहस्थी का कोई दबाव इन पर नहीं पड़ने दिया। ये पूरा घर कैसे चलता है? आटे-दाल का भाव क्या है, इन्हें आजतक नही पता। बड़ी प्रशंसा होती है इनकी। महफिलों की जान हैं ये, भारत के इंदु भारतेंदु हैं, किंतु हमारे क्या हैं ? क्या इन्होंने हमारे प्रति अपना उत्तरदायित्व निभाया ?
भारतेंदु: देखो मन्नो ! हमने तुमको कभी कोई कमी नहीं होने दी तुमने जो चाहा, जैसे चाहा गृहस्थी चलाई। हमने कभी कोई दखल अंदाजी नहीं की। तुम्हारे प्रति अपने पति धर्म का सदैव पालन किया है हमने ।
इतिशा (मन्नों): वाह, हृदय प्रसन्न हो गया हमारा। पति धर्म ? पति धर्म की बात करते हैं आप ? तो ये – मल्लिका आप की कौन लगती है ? इनके प्रति आपका कौन सा धर्म निभाया जा रहा है?
भारतेंदु: मनुष्यता का, प्रेम का, रचनात्मकता और कला बोध की रसिकता का धर्म भी सहज धर्म है। तुमको इसे समझना होगा मन्नो । हम विवश है। आपका अपमान नहीं कर सकते किंतु घर आए अतिथि का निरादर भी तो नहीं कर सकते न ? मल्लिका इतनी दूर से आई हैं इनका आतिथ्य भी आप ही करेंगी, चलिये अब भीतर चलिये।
मल्लिका: नहीं बाबू जी । ये आपके पवित्र घर की संस्कारों से रची बसी ड्योढी, मुझ जैसी अभागिन पार नही कर सकती। ये आपका,आपकी धर्मपत्नी का अधिकार क्षेत्र है। मैं इसमें हरगिज़ प्रवेश नहीं करूंगी
(इतिशा (मन्नो) एक पल सबको देखती है फिर आगे बढ़ कर मल्लिका का हाथ थाम लेती है)
इतिशा (मन्नों): मल्लिका, आप हमारी अतिथि हैं। अतिथि देवो भव: इसलिये इस अधिकार क्षेत्र की स्वामिनी, मैं मन्नो देवी आपको आज्ञा देती हैं कि आप सादर भीतर प्रवेश करें और हमारा आतिथ्य स्वीकार करे।
(मल्लिका ठिठकती है परन्तु इतिशा यानि मन्नो देवी उसे भीतर खींच ले जाती है, भारतेंदु भी भीतर जाने के लिए कदम बढ़ाते हैं तो मन्नो देवी दोनों हाथों से डयोढ़ी छेक कर खड़ी हो जाती हैं )
इतिशा (मन्नों): नहीं, आज और अभी, आप नहीं आ सकते।
भौंरा रे, बौरानो लखि बौर।।
लुब्ध्यौ उतहिं फिरत मंडरानयौ,
जात कहूँ नहि और ।।
(मल्लिका हँस पड़ती है, भारतेंदु झेंप जाते हैं)
इतिशा (मन्नो): अब लजाने, झेंपने की आवश्यकता नही है। पत्नी हूँ आपकी।
जग में पतिव्रता सम नहीं आन,
नारी हेतु कोउ धर्म न दूजो
जग में पसु समान ।
अनुसूया, सीता-सावित्री इनके चरित्र प्रमान।
भारतेंदु : अरे ये तो हमारे गीत रूपक सती प्रताप का अंश है, अपने कब और कहाँ पढ़ा ?
इतिशा (मन्नोदेवी): आपके पीछे आपके बैठक की साफ-सफाई भी हम ही करते हैं, ये आप भूल गए। बस बीच-बीच मे आपकी रचनाएँ भी पढ़ लेते है।
भारतेंदु: वाह-वाह मन्नो
धन्य देस कुल जंह निबसत है नारी सती सुजान ।।
धन्य समय जब जन्म लेत ये धन्य ब्याह स्थान ।।
मल्लिका:(आगे पूरा करती है)
सब समर्थ पति बरता नारी
इन सम और नआन / याही ते स्वर्गहु में इन को करत सबै गुण गान।
(तीनों एक दूसरे को देख मुस्कुराते हैं, मन्नो धीरे से ड्योढी से हाथ हटा लेती हैं और भारतेंदु को भीतर आने का इशारा करती हैं। सबका भीतर प्रस्थान धीरे-धीरे संगीत मुखर हो उठता है।)
(क्रमशः अगले अंक में ……….)