डॉ अपर्णा पाण्डेय, प्रवक्ता, हिंदी
स्व. कुबेर सिंह स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मिर्ज़ापुर
गाँव को यदि लोक संस्कृति का मूर्त स्वरुप कहें तो अत्युक्ति न होगी । गाँव का आदमी निरक्षर भले हो लेकिन सुसंस्कृत रहा है वह विश्वास पर बिक जाता है, धर्म पर झुक जाता है, सबको सहता है पर शिकायत नहीं करता, सबकी सुनता है पर अपनी ओर से कुछ नहीं कहता, वह कभी थक कर नहीं बैठता, झुक कर नहीं चलता और त्याग में से प्राप्ति तथा परिश्रम से आनंद पाता है । दुःख का पहाड़ आ जाय या सुख की क्षीण रेखा वह सदा मुस्कुराता रहता हैद् । गाँव का आदमी न जाने कब से बाट जोह रहा है कि कोई आये और उससे भी कुछ ले जाए उसका समग्र जीवन, जो एक अनपढ़ी खुली पुस्तक की तरह सामने बिछी है, उसका रहन-सहन, खान-पान, वस्त्राभूषण, आचार.-विचार, रीति-रिवाज, धर्म और आस्था, विश्वास और मान्यताएं, पर्व-उत्सव, मेले और तमाशे, गीत और कथाएं, नृत्य-संगीत और कलाएं, भाषा तथा बोलियों के प्रत्येक शब्द हमें कुछ न कुछ देने की क्षमता रखते हैं ।
लोक संस्कृति विशेषतया भोजपुरी लोक संस्कृति व साहित्य की वर्तमान दशा को जानने के लिए अतीत की यात्रा करना आवश्यक है । तभी हम उज्जवल भविष्य की संकल्पना कर सकते हैं। भारत में लोक साहित्य तथा लोक संस्कृति के अध्ययन का प्रारम्भ दो प्रकार के व्यक्तियों ने किया । पहला अंग्रेज सिविलियन और दूसरा इसाई मिशनरी और इन दोनों को यह पूर्ण आभास था कि यदि इस देश में अपनी पैठ बनानी है तो इस देश के साहित्य सभ्यता तथा संस्कृति का अध्ययन करना आवश्यक है। इसीलिए सन् 1774ई0 में कलकत्ता सुप्रीमकोर्ट के जज सर विलियम जोन्स ने कलकत्ता में रॉयल एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की।
लोक संस्कृति तथा साहित्य के अनुसंधान के वास्तविक श्रीगणेश का श्रेय जेम्स टॉड को प्राप्त है । जिन्होंने राजस्थान की लोकगाथा तथा कथाओं एवं जनश्रुतियों का संकलन कर उनके आधार पर अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ “एनाल्स एण्ड एण्टीक्विटीज ऑफ राजस्थान” का निर्माण सन् 1829 में किया।
अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के भाषा शास्त्र के विद्वान डॉ सर जार्ज एब्राहिम ग्रियर्सन ने सन् 1884 में “सम बिहारी फोक सांग्स” तथा सन् 1886 ई0 में “सम भोजपुरी फोक सांग्स” शीर्षक के दो विस्तृत तथा प्रामाणिक लेखों को प्रकाशित किया, जिसमें भोजपुरी गीतों का मूल पाठ उनका अंग्रेजी अनुवाद तथा टिप्पणियाँ दी गई हैं। यह भोजपुरी लोकगीतों का सर्वप्रथम संग्रह माना जाता है। सन् 1885 में इन्होंने “दि सांग ऑफ आल्हाज़ मैरेज” लेख इण्डियन एन्टीक्वेटी पत्रिका में छपवाया। इसी वर्ष इन्होंने “ट्रू वर्शन्स ऑफ दि सॉग ऑफ गोपीचन्द” को संकलित किया। इस लेख में गोपीचन्द की गाथा की भोजपुरी तथा मराठी में उपलब्ध दोनों वाचनाएं दी गई हैं। सन् 1889ई0 में जर्मनी की सुप्रसिद्ध पत्रिका जे.डी.एम.डी. में इन्होंने “नयकवा बनजारा” गीत छापा। इनके द्वारा लिखित बिहार पीजेण्ट लाइफ नामक ग्रन्थ भी अत्यन्त उपयोगी है, जिसमें ग्रामीण जीवन से सम्बन्धित शब्दावली का प्रामाणिक संग्रह किया गया है।
विलियम क्रुक ने भी भारतीय लोक संस्कृति के क्षेत्र में प्रचुर योगदान किया है। सन् 1891 ई0 में इन्होंने “नार्थ इण्डियन नोट्स एण्ड क्वेरीज” नामक शोध पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया, जिसमें लोक साहित्य सम्बन्धी बहुमूल्य सामग्री छपती थी। सन् 1893 ई0 में क्रुक ने “पापुलर रिलिजन एण्ड फोकलोर ऑफ नार्दर्न इण्डिया” नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ को दो भागों में प्रकाशित किया। जिसे सचमुच ही लोक संस्कृति के विश्वकोष की संज्ञा दी जा सकती है।
परंपरागत लोक साहित्य किसी एक व्यक्ति की रचना का परिणाम नहीं है। कई ऐसे प्रमाण देखने को मिलते हैं जहाँ एक ही गीत, कहावत या मुहावरा का क्षेत्र परिवर्तन के साथ स्वरूप परिवर्तन हो जाता है। इसका एक प्रमाण है लोक महाकाव्य-आल्हखंड जिसको आज तक एकरूपता नहीं प्राप्त हो सकी। इस कार्य में लोक प्रवृत्ति किसी प्रतिबन्ध को स्वीकार ही नहीं करती। लोक साहित्य में निहित सौन्दर्य का मूल्यांकन सर्वथा अनुभूतिजन्य है। आदिकाल से श्रुति व स्मृति के सहारे जीवित रहने वाले लोक साहित्य के कुछ विशेष सिद्धांत हैं। इस साहित्य में वे रचनाएं ही स्वीकृत होती हैं जो जीवन का अंग हों अथवा अनेक कंठों में अनेक रूपों में बन बिगड़कर एक सर्वमान्य रूप धारण कर लेती हैं । यह रचनाक्रम आदिकाल से अब तक जारी है। इसीलिए विद्वानों ने लोकसाहित्य को अपौरुषेय की संज्ञा दी है। स्फुट गीतों में तो केवल पंक्तियाँ ही इधर-उधर होती हैं लेकिन प्रबंध गीतों एवं कथाओं में घटनाएँ भी बदलती रहती हैं। यह सब होते हुए भी उन प्रबंधों एवं कथाओं के परिणामों में प्रायः कोई परिवर्तन स्वीकार नहीं किया जाता। रामकथा को ही लें, लोक रामायण ने अपनी अलग ही धरा बनायी है। इसीलिए तो कहते हैं, “नाना भांति राम अवतारा, रामायन सत कोटि अपारा।”
अलग.अलग क्षेत्रों के लोक साहित्य को जानने पर उनके कलेवर तो भिन्न होंगे, परन्तु उनकी आत्मा या भाव एक ही होता है। क्षेत्रों व देशों की सीमा मनुष्य भले ही निर्धारित कर दे लेकिन लोक साहित्य इन वर्जनाओं से मुक्त है। हुआ यूँ होगा कि औपनिवेशिक काल में या उससे पहले या बाद में जब मानव एक स्थान से दूसरे स्थान पर गया तो वो अपनी लोक साहित्य की थाती अपने साथ लेकर गया, और उसका प्रभाव उस स्थान की संस्कृति पर पड़ा, जिसे वहाँ के लोगों ने स्वीकार कर लिया । आज हिन्दी प्रदेश में जो लोक साहित्य प्राप्त है, वह सदैव एक जैसा नहीं रहा होगा। मध्य युग के ऐतिहासिक लोकनायकों और वीरों की जो कहानियाँ आज प्रचलित हैं वे उनसे पूर्व नहीं रची गयी होंगी। भोज हम्मीर, रत्नसेन और पद्मावती आदि की कहानियाँ इसी प्रकार की हैं। सन् 1857 के राष्ट्रीय विद्रोह ने कुँवर सिंह के गीतों को जन्म दिया, आदिवासी विद्रोह के बाद बिरसा भगवान की कथाएँ और गीत छोटा नागपुर की विभिन्न भाषाओं के लोक साहित्य के अंग बन गए,और वे हमारी मौखिक परम्परा में सम्मिलित हो गए।
लोक साहित्य वास्तविकता का ही नहीं अपेक्षा का भी चित्रण करता है। वास्तविकता और अपेक्षा का द्वन्द्व संस्कृति के रचनातंत्र की एक बुनियादी विशेषता है और यह शायद कहावतों में सबसे अधिक प्रत्यक्षता से व्यक्त होता है। वास्तविक और अपेक्षित के द्वन्द्व के समानान्तर एक अन्य द्वन्द्व वास्तविक और इच्छित का है। इस दूसरे द्वन्द्व की अभिव्यक्ति लोक साहित्य को एक ओर अवदमित वासनाओं के विरेचन का माध्यम बनती है तो दूसरी तरफ सामूहिक इच्छापूर्ति का। हर लोक साहित्य में ऐसी सामग्री मिलती है जो प्रचलित सामाजिक आचारों और मान्यताओं के विपरीत पड़ती है। अभिप्राय यह है कि लोक साहित्य लोक के विश्वासों, अभिरूचियों और मूल्यों का अभियन्ता और इस प्रकार उसके आचरण का प्रभावक है। जैसे लोक गीतों के द्वारा स्थान विशेष का आर्थिक भूगोल पता चलता है। जैसे मगहिया पान, बनारसी साड़ी, मिर्जापुर का बना लोढ़ा इत्यादि से यह पता चलता है कि स्थान विशेष की विशिष्टता क्या है और साथ ही समृद्धि में उसका कितना हाथ है। जैसे विवाह में बारातियों के चढ़ने के लिए हाथी गोरखपुर से आता हैं और पटने से उसकी झूल आती है। इसी प्रकार लोक गीतों व साहित्य में जन-जीवन का जितना सच्चा और स्वाभाविक वर्णन उपलब्ध होता है उतना अन्यत्र नहीं। सच तो यह है कि यदि किसी समाज का वास्तविक चित्र देखना अभीष्ट हो तो उसके लोक साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। समाज के यथातथ्य चित्रण के लिए लोक साहित्य का अनुसंधान वांछनीय ही नहीं अनिवार्य भी है।
किसी जाति के धार्मिक जीवन का पता भी लोक साहित्य से चलता है। ग्रामीण जन किन-किन देवताओं की पूजा करते हैं, उनकी प्रसन्नता के लिए कौन-कौन से उपाय करते हैं तथा पूजा में जो विधि-विधान सम्पादित किए जाते हैं। उन सब का वर्णन यहाँ पाया जाता है। धार्मिक जीवन की झॉकी के अतिरिक्त हिन्दू पुराणशास्त्र के अनेक ज्ञातव्य विषयों पर इन गीतों से प्रचुर प्रकाश पड़ता है। लोक साहित्य में जिस नैतिक अवस्था का वर्णन मिलता है वह लोकोत्तर और दिव्य है। यह तो स्पष्ट ही है कि लोक जीवन परम्परा से उद्भूत रहा है, परन्तु क्या समय के साथ होते रहे परम्परागत, सामाजिक व सांस्कृतिक परिवर्तनों के प्रभाव से साहित्य अछूता तो नहीं रहा और न ही हो सकता है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में बढ़ते बाज़ारवाद व तकनीकि संसाधनों के कारण हमारा ग्राम्य समाज भी आधुनिकीकरण के प्रभाव से अछूता नहीं रहाद्य जिससे परम्पराओं का ह्यस तो हुआ ही है। अब वो सही है या गलत ये अलग विचारणीय विषय है। परन्तु परम्पराओं के विलुप्त होने से कहीं न कहीं धीरे-धीरे साहित्य भी लुप्तप्राय हुआ। आज की पीढ़ी बहुत सारी परम्पराओं, रूढ़ियों व मान्यताओं से अनभिज्ञ है।
भोजपुरी साहित्य में गाँव का वह परिवेश देखा जा सकता है जो जो ग्राम और नगर समाज को अलगाता है। नगर समाज और आज का समय प्रकृति को परिचालित कर रहा है,लगभग उसे जीत चूका है जबकि ग्रामीण परिवेश में वह प्रकृति का सहचर बल्कि उसके प्रति सहज समर्पित रहा है प्रकृति के बिना हम गाँव की संकल्पना भी नहीं कर सकते। गाँव शब्द सुनते ही जो छवि मस्तिष्क में बनती है वह सहज व अकृत्रिम अवस्था में प्रकृति का दृश्य और सिर्फ प्रकृति ही नहीं अपितु जन भी अपने सहज सरल अवस्था में दिखाई देते हैं ।
वन की हलचल और चिड़िया के बोलने के साथ मनुष्य की दिनचर्या की शुरुआत सहज स्वाभाविक है ।सुबह के चित्र के साथ दोनों की संगति का सुखद जीवन क्रम आज भी समझाया जा सकता है, जिया भले न जा सके । आज का ग्रामीण परिवेश उस ग्रामीण परिवेश से बहुत भिन्न है जैसा कि पुरातन भोजपुरी साहित्य से समझ आता है । वैश्वीकरण के इस दौर में बाजारवाद का प्रभाव गाँव पर भी कम नहीं पड़ा है । इसीलिए आज के समय में यह और आवश्यक हो जाता है कि भोजपुरी साहित्य को नयी पीढ़ी तक सशक्त माध्यम के द्वारा पहुँचाया जाय तभी वो अपनी संस्कृति व सभ्यता का सम्मान कर पायेंगे और पुरातन परंपराओं से परिचित हो सकेंगे, गाँव का वैशिष्ट्य जान सकेंगे और शहरीकरण ने हम मनुष्यों को प्रकृति से कितना दूर कर दिया है यह भी समझ पायेंगे ।
ऊपर दी गयी पंक्तियों से एक बिम्ब तो बनता है लेकिन जो एकदम लुप्त हो गया उसे कौन और किसे बताये, कि एक चिड़िया ठाकुर चिरैया हुआ करती थी जो रबी ;गेंहू, चना आदि की फसल की बुवाई के समय कार्तिक महीने में प्रकट होती थी मनुष्य के श्रम की साथी । आज कहाँ है वह ठाकुर चिरैया किसे मालूम? लापता तो कंधे पे हल लेकर जाता हरवाह भी हो चुका है । अब तो एक दिन हड़हड़ाता ट्रेक्टर आता है, जिसकी आवाज सुनकर आती हुई ठाकुर चिरैया भी फुर्र हो जाती है । इसी तरह फुर्र हो गयी वह चेतना जिसने ठाकुर चिरैया को जन्म दिया था बुलाया था, अपनी सहचरी बनाया था ।