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कहानी – फागू का फगुआ

Posted on July 1, 2023

डॉ धनञ्जय शर्मा, लेखक व असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग

सर्वोदय पोस्ट ग्रेजुएट महाविद्यालय, घोसी, मऊ

बलिया जिले के बिल्थरारोड स्टेशन से दो मील पश्चिम बसा गाँव ससना अपनी प्राचीनता को लेकर उतना प्रसिद्ध नहीं है, जितना ससना धाम को लेकर है। धाम इस अर्थ में कि संवत् 1773 में जन्मे संत स्वामी शिवनारायण साहब की यह कर्मस्थली थी। शिवनारायणी संप्रदाय की सदर गादी ससना में होने के कारण दूर-दराज के संतो-महात्माओं का आना जाना लगा रहता है। धाम पर सावन की सप्तमी और बसंत पंचमी का दिन धूम-धाम से मनाया जाता है। बसंत पंचमी के दिन स्वामी जी को ज्ञान प्राप्ति हुई थी और सावन सप्तमी को नश्वर शरीर का त्याग किए थे। अत: इन दोनो दिनों के अवसर पर सत्संग का आयोजन होता है, जिसमें देश-विदेश से संतों-भक्तों का आना होता है। पिछले दिनो सत्संग में अमेरिका, नेपाल के अतिरिक्त देश में प. बंगाल, बिहार, उड़ीसा, झारखण्ड, असम, उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि स्थानों से संतों का आना हुआ था । धाम पर आते-जाते लोग एक दूसरे के अभिवादन में‘बंदगी साहब’ और ‘साहेब बंदगी’ बोलते हैं। कहना न होगा की शिवनारायणी संप्रदाय की इस प्राचीन परम्परा को लोग आज भी अपने हृदय में संजोए हुए हैं।

इन त्यौहारों में होली (फगुआ) भी बड़े हर्षोल्लास से मनायी जाती है जो अपनी प्राचीनता और लोक परम्परा को लेकर आज भी प्रासंगिक बनी हुई है। यहां फगुआ संत-मिलन का फगुआ है। जैसे अलग-अलग रंग आपस में मिलकर एक हो जाते हैं, उसी प्रकार समाज के लोग जाति-वर्ण-धर्म त्याग कर मानवीय एकता को धारण करते हैं । लोक रीति के अनुसार फागुन मास में पड़ने वाल फगुआ अपनी फगुनाहटा हवाओं के कारण प्रसिद्ध है। फगुनाहटा हवाओं में इतनी मादकता होती है कि पूरी प्रकृति मादक लगने लगती है। पेड़ों पर नए-नए पत्ते, फूल और कलियों से आच्छादित प्रकृति का आँगन उपवन सा प्रतीत होने लगता है। खेलों में कतारबद्ध फसलों में गेहूं, जौ, चना, मटर, अरहर, सरसो, रागी आदि नीले, पीले, सफेद लाल, गुलाबी पुष्पों से सुसज्जित प्रकृति अपने यौवन की पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है। बागों में महुआ और आम की अमराइयों के बीच कूकती हुई कोयल मानो बसन्त का संदेश लाती हो। समशीतोष्ण ऋतु में रात्रि के द्वितीय प्रहर में ढोलक की थाप और झाल-मंजीरे पर नाचती कीर्तनिया समूह की हथेली तथा फागू की जुबान से जोगीरा का सुर । इनके बीच थिरकते हुए नर्तक के घुंघरु की आवाज रात के सन्नाटे को चीरते हुए व्यस्कों की धड़कनों को बढ़ा देती है।

निर्गुण भक्ति परम्परा में संत शिवनारायण का स्थान होने के कारण धाम की पूजा पद्धति थोड़ी अलग है। संध्या के समय गांव के अधिकतर लोग धाम पर उपस्थित होते हैं, धाम के प्रांगण में लकड़ी की चौकी पर गुरु अन्यास साहब को रखा जाता है इनके चारों ओर फल, फूल, मेवा, मिश्री, मनभोग,अंगवस्त्रम आदि रख कर दीप प्रज्ज्वलित किया जाता है। गांव के उपस्थित संतों द्वारा बड़ा सा घेरा बनाकर गुरुयास के चारों ओर बैठ जाते हैं।

महंत जी गुरुन्यास पर पुष्प अर्पित करते हुए गाते हैं-

बन्दौ दुःखहरण गुरुनामा

अगम निगम के थाह न पावे, ना पावे बेद पुराना

शिवसनकादिक ब्रहम अनादिक, जपत रहे निज नामा

बन्दौ दुःखहरण गुरुनामा।

आगे कहते हैं-

पहले गुरु को गाइए जिन गुरु रचा जहाँन

पानी से गुरु पिण्ड रचे अलख पुरुष निर्बान !”

सभी संत दोनों हथेली को आगे बढ़ाकर शीश झुकाकर कहते हैं बंदगी साहब! ढोलक, शंख, मंजीरा, हरमोनियम यादि बजता है, व्यास जी द्वारा भजन गाया जाता है-

फुल एक फुलेला बलमु जी के देशवा

सतगुरु दिहले देखाई हो ।

से फूल निरखेला नयन सनेहिया,

मनमोरा रहेला लुभाई हो ।

इस प्रकार अनेक संतों द्वारा अलग-अलग भजन- सोहर आदि गाने के बाद आरती होती है।. आरती के बाद पूजा समाप्त होती है, प्रसाद में मनभोग वितरण होता है। अंत में कीर्तनिया समाज के लोग आसन छोड़ते समय कहते हैं –

“संत महातम उठत हैं जन कोई करे दुर्वास”

गांव के इसी कीर्तनिया समाज में एक व्यक्ति था फागू। कहते हैं फगुआ के दिन जन्म होने के कारण इसका नाम फागू पड़ा । बचपन से शिवनारायण साहब के धाम से जुड़े होने के कारण कुछ भक्ति-भाव आ गया था। बड़े होने पर रसिक समाज में रहने लगा था। दरअसल गांव में जहाँ विशुद्ध ज्ञान और भक्ति भरा वातावरण था वहीं दूसरी ओर रसिकों की भी परम्परा थी जो सांसारिक संसाधनों से आनंद की खोज में लगे रहते थे। कही भंग घोटना हुआ, कहीं ताड़ी उतारना हुआ,बचा समय देशी ठर्रे और जुए में बीत जाता था। इसी रसिक परम्परा ने फागू का संस्कार किया।

नीरज कहने लगा, “मां थोड़ा प्रैक्टिकल बनो, मैं दिल्ली या दिल्ली के आसपास रहना चहाता हूँ, ग्रेटर कैलाश में कोठी देखी है। पचास करोड़ मिल रहा है । ये जिंदगी भर के लिए कमाई का ज़रिया बन जायेगा वह अलग, आप लोगों के लिए वन-बेडरूम फ्लैट काफी होगा । आप दोनों चलने फिरने से लाचार हो, बेकार में ही इतनी बड़ी जगह अकेले रहते हैं । आजकल समय खराब है। आप लोगों के साथ कोई अनोहनी न हो जाये हमेशा फिक्र रहती है, आप समझने की कोशिश करो ।”

फागू ठिगने कद का सांवला आदमी था सिर पर घुंघराले बाल, चेहरे पर भरी-भरी मूंछे और मूछों पर ताव तथा उभरी हुई लाल मुंगिया आँखे जो भांग और ताड़ी में धुत रहती थीं । गांव के छोटे बच्चे इसे देख कर डर जाते थे। जो थोड़े बड़े थे इसे देखकर कहते थे- “फगुआ फगुनिया नाच क नचनिया” और कमर को आगे पीछे हिला कर भाग जाते थे। फागू बड़‌बड़ाते हुए चला जाता। गाँव की नवकी, पुरनकी, पतोहिया, बुढ़िया सभी इससे बचती थीं । अकिला बुआ कहतीं ऐसा मुंहफट आदमी नहीं देखा जो किसी को भी कुछ कह दे और बदले में दो चार गालियाँ सुन ले या दो-चार लोटा पानी इसके ऊपर फेंकने के बाद हंसते हुए चलता बने।

दैनिक जीवन में थोड़ी-बहुत खेती के अलावा फागू ताड़ी उतारने का काम करता था । ताड़ी के मौसम में इसकी गांठ मजबूत रहती थी। तड़बन्ना में रसिकों की खासा जमात लगी रहती थी। जब चढ़ जाती तब गाता था –

ताड़ी पीए जानि जइह तड़ीखनवा ए बालम

सुतले में दाबि देइ सइतनबा ए बालम

मुँहवा मीहे बिगि देब परनवा ए बालम”

सभी खखा कर हंसते थे। कभी-कभी रसिक समाज में दार्शनिक भाव उभरने लगता और फागू भावुक होकर कहता दुनिया माया का बाजार है और गाने लगता-

आइल बा गवनवा के हमरो संदेशवा,

जाए के बा हमके पियवा के देशवा

फागू अपने दैनिक जीवन से जो कुछ बचाता उसे बचा कर रखता और फागुन मास में खुल कर खर्च करता । फागुन मास में फागू दूर क्षेत्रों में जाता और नर्तक ढूंढ कर लाता। पन्द्रह दिन पहले से होली के दिन तक प्रत्येक संध्या पर गांव की चौपालों में तथा गांव के प्रतिष्ठित लोगों के दरवाजों पर फगुआ का नाच होता था। फगुआ के दिन सभी बड़े-बुजुर्ग, बच्चे-जवान शिवनारायण साहब के धाम पर सुबह के समय उपस्थित होते। पहले रंग और गुलाल धाम में चढ़ाते फिर एक दूसरे को रंग, अबीर, गुलाल लगाकर बंदगी करते । और फिर भजन, कीर्तन, फगुआ गाने का सिलसिला आरम्भ होता।

जब कीर्तनिया मंडली गांव में निकलती है गांव के हर घर के द्वार पर फगुआ गाया जाता और नाचते हुए रंग-अबीर लगाकर मंडली आगे बढ़ती जाती । चारों तरफ से रंग गुलाल की वर्षा होने लगती । होली पर बना पकवान आता, सभी खाते और भांग की शरबत पी कर नाचते । गांव के रसिकों के लिए होली खास होती थी । ये भांग, ताड़ी और देशी ठर्रे में डुबकी लगाते हुए एक-दूसरे के दरवाजे पर जाते, रास्ते में जो मिलता उसे भिगाते-भीगते मस्ती और आनंद भरे वातावरण में आगे बढ़ते ।

फागू मस्ती में गाता-

अरे हमसे लगवइबू की लाला से

तोरा अंगिया रंगाइब गुलाला से… हो हो हो

किसी भी दरवाजे से जाते समय कीर्तनिया समाज के लोग आशीर्वाद देते और ‘सदा आनंद रहे एहि द्वारे मोहन खेले होरी” कहते हुए दूसरे दरवाजे चले जाते।

होली के त्यौहार में गांव से बाहर रहने वाले लोग भी आ जाते थे । इन आगंतुकों में एक ऐसा चेहरा था जिसकी तलाश फागू को वर्षों से रहती थी। होली ही ऐसा पर्व था जब फागू अपनी पुरानी याद को ताजा कर पाता था । आज के दिन वह खुल कर जीता। जैसे रंग का भंग से मिलन होता है, बैरी का मीत से मिलन होता है वैसे ही फागू का अपनी यादों से मिलन होता। जिन यादों के सहारे जीवन बीत जाया करते, उन यादों की होली में पूर्णिमा होती थी । चकोर पंक्षी की भांति चाँद को निहारते फागू का जीवन बीत जाता था । इस प्रकार रंगों, रसों और रागों के बीच मेरा बचपन भी बीत गया । इसी बीच शिक्षा के लिए गाँव छोड़ इलाहाबाद जाना पड़ा और लम्बे प्रवास के बाद एक बार गाँव आना हुआ ।

लगभग आठ वर्ष बाद किसी होली के पर्व पर मैं गाँव में था देख रहा था कि होली पर कुछ बच्चे डी.जे. बजाकर नाच रहे थे, “रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे, इक्का-दुक्का लोग सड़कों पर आ जा रहे थे, लोग इतने स्वार्थी बन गये कि गाँव में घुमने की परम्परा टूट सी गयी थी। मेरे मन में बार-बार फागू का ख़याल आ रहा था कि फागू जैसे रसिया समाज के लोग कहाँ हैं ?

पूछने पर लोगों ने बताया कि चार बरस पहले ऐसे ही धूम-धाम से फगुआ मनाया जा रहा था। फागू ने अबकी बार खूब भांग पी थी, उसकी जुबाँ पर एक नाम बार-बार आ रहा था। वह मण्डली के साथ खूब मस्ती में झूम रहा था पर उसकी आँखें हमेशा की तरह उसी आगंतुक के चेहरे के तलाश में थीं।

दरअसल वह बताना चाहता था कि तेरे याद में मैंने तमाम उम्र यूँ ही गुजार दिए । होली के दिन सुबह से ही घूमते-घूमते रात के दस बज गये । फगुआ की मंडली समाप्त हो गयी थी। सभी लोग अपने-अपने घरों को चले गए थे ।

रात्रि के घुप्प अंधेरे को टटोलते हुए फागू घर की ओर जा रहा था, उसके कदम लड़खड़ा रहे थे। देखता है अचानक आंखों के सामने उजाला हो गया है, पिरितिया सामने खड़ी है । फागू तेज कदमों से उसकी ओर बढ़‌ता है, उससे मिलकर सारी बातें कह लेना चाहता है, बड़‌बड़ाता है, ‘रब्बे इश्क में बेइंतहा कैसे कैसे, हमने बहा दिया इश्के दरिया में कतरा कतरा ऐसे” । अंधेरे में फागू का पैर फिसल जाता है। धाम के पोखरे में डूबकर फागू की मृत्यु हो जाती है। फागू के दुखद अंत के साथ ही फगुआ की लोक परम्परा का भी अंत हो जाता है।

2 thoughts on “कहानी – फागू का फगुआ”

  1. अनूप कटारिया says:
    July 1, 2023 at 10:23 am

    कहानी बहुत दर्दभरी व गूढ़ भाव युक्त ,प्रभावशाली है ।

    Reply
    1. Sumit Upadhyay says:
      July 1, 2023 at 10:57 am

      ji thanks anoop ji

      Reply

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