अभिदीप सुहाने, युवा रंगकर्मी
छतरपुर ( म.प्र.)
लोक एक बहू अर्थी शब्द है जो कि मूलतः संस्कृत का है। विश्व का कोई भी विशेष भाग, प्रजा/लोग आदि इसी शब्द के पर्याय या अर्थ हैं। लोक शब्द को परिभाषित किया जाए तो इसका अर्थ -“विश्व के किसी भी भाग में प्रचलित प्रथा”, अर्थात संसार की किसी भी जगह विशेष के स्थानीय लोगों में प्रचलित प्रथा, संस्कार, रिवाज, प्रणाली को हम लोक कह सकते हैं।
लोकनाट्य को वर्णित करते हुए डॉ. हिमांशु द्विवेदी लिखते हैं -“क्षेत्रीय और जनप्रिय नाट्य शैलियों को लोकनाट्य के नाम से संबोधित किया जाता है। यह अंग्रेजी के शब्द Folk Drama से उधार लिया गया है। जिससे तात्पर्य है कि लोक नाटक मनोरंजन का एक ऐसा साधन है जो ग्राम वासियों द्वारा ग्रामीण उत्सव व त्यौहारों पर धार्मिक अनुष्ठानों में प्रस्तुत किया जाता है।”
किवदन्तियां यह भी है कि भारत की लोकनाट्य शैलियां पौराणिक काल से ही चली आ रही हैं। अगर आदिमानवों के समय की बात की जाए तो उस समय नव युवकों को शिकार करने की शिक्षा देना मुश्किल था क्योंकि उस समय भाषा की उत्पत्ति नहीं हुई थी और नव युवकों को सीधा मैदान में ले जाने का अर्थ था उनकी जान को जोखिम मे डालना। अब इस समस्या का निराकरण उस समय के लोगों ने शिकार का नाटकीय रूपांतरण करके निकाला। इस निराकरण से आदिमानव न केवल एक दूसरे को शिक्षा देते थे बल्कि ये उनके मनोरंजन का साधन भी बना। लोक कलाओं के माध्यम से एक पीढ़ी अपनी आने वाली पीढ़ी को धर्म, संस्कार, समाज आदि की शिक्षा भी प्रदान करती है।
बुंदेलखंड में सामाजिक रीति-रिवाजों एवं संस्कारों पर स्वांग भरने का रिवाज बहुत सहज है, वैवाहिक अवसरों पर अनेकों संस्कार गाए जाते हैं और कई स्वांग खेले जाते हैं – बाबा का खेल (जुगिया), राई, बधाई, ढिमरयाई आदि बुंदेलखण्ड मे प्रचलित है। बुंदेलखंड के लोक नाटकों को मूल दो वर्णों में वर्गीकृत किया जा सकता है – स्वांग और रावला।
स्वांग एक प्राचीन लोकनाट्य कला है जो लोक मनोरंजन के लिए बुंदेलखंड में युगों से खेली जा रही है। यह नाट्य कला ना केवल मनोरंजनात्मक है बल्कि व्यंगात्मक भी है। स्वांग एक ऐसा लोकनाट्य है जो लोक कथाओं, लोक विश्वासों, लोक तत्वों और फूहड़ता का समावेश भी है। स्वांग मे त्रुटियों का सुधार और विकास समय के अनुरूप होता आ रहा है परंतु बुंदेलखंड में इसकी परंपरा आज भी मौलिक है। अगर स्वांग को वर्गीकृत किया जाए तो इसकी कई शैलियां देखने मिलती हैं। यथा धार्मिक, संस्कारपरक, सामाजिक, नृत्य मिश्रित आदि ।
धार्मिक स्वांग : वे सभी स्वांग जो धर्म से जुड़े हुए हो या जिनमें धार्मिक उद्देश्य, उपदेश, भावना, श्रद्धा, रीति-रिवाज आदि समाहित हों वे सभी स्वांग धार्मिक कहलाएंगे। जैसे –
पारी टोरत को स्वांग – यह स्वांग बुंदेलखंड के क्षेत्रों में युवक – युवतियों द्वारा होली के अवसर पर रंगपंचमी के दिन शाम के समय खेला जाता है। इसे खुले मैदान में खेलते हैं, जहां एक मजबूत लकड़ी के लट्ठ (जिसमे बीते एक माह या उससे भी पूर्व से उसे चिकना करने के लिए तेल रगड़ा जाता है) को जमीन में गाड़ दिया जाता है, जमीन से 15 या 20 फुट ऊंचे लट्ठ के सिरे पर एक गुड की पारी बांधी जाती है। स्वांग के समय सरपंच, ज़मीदार, चौधरी या गांव का अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति ग्रामीण युवकों को लट्ठ पर चढ़ने का आदेश देता है। 10 – 15 युवतियां बांस की लाठियां लेकर लट्ठ के चारों तरफ नाचती हुई जाती हैं, जो व्यक्ति साहस कर लट्ठ पर चढ़ता है युवतियां उस पर लाठी का प्रहार करती हैं। बावजूद इसके अगर व्यक्ति पारी तोड़ने में सफल होता है तो उसे सभी युवतियां गुलाल लगती हैं, आँचल के सिरे से उसके पांव छूती हैं और विजयी युवक हर युवती के गालों पर गुलाल लगाकर उन्हें एक सेर गुड़ देता है।
होली का स्वांग – होली के त्यौहार पर गांव के पुरुष इकट्ठे होकर यह स्वांग करते हैं। इसमें जहाँ एक पुरुष रूप सज्जा करके महिला का वेष धारण करता है तो वही दूसरा पुरुष चीथड़ों से बने कपड़े पहनकर, चेहरे को रंगकर, बालचोटी वाली टोपी पहनता है। स्वांग के दौरान विदूषक बीच मे हास्य की पुट देता जाता है। इस स्वांग के दौरान महिला और पुरुष एक दूसरे को गुलाल लगाकर अपने भावों के ज़रिए अपनी कामुक उत्तेजनाओं को व्यक्त करते हैं। इसीलिए इस स्वांग मे श्रृंगारिक चेष्ठाओं का अभिनय अधिक देखने मिलता है।
धंधकायने का स्वांग – स्वान का यह रूप जन्माष्टमी के समय देखने मिलता है। धंधकायने का स्वांग मूल रूप से कृष्ण द्वारा माखन चोरी की नकल का खेल है। जो कि वर्तमान के समय मे मटकी फोड़ने की प्रतियोगिता कहलाने लगी है। बुंदेलखंड के शहरीय क्षत्रों मे खेले जाने वाले इस स्वांग की तैयारी में एक मटकी को माखन या दही से भरकर ककड़ी, जलेबी इत्यादि व्यंजनों से सजाया जाता है उसके बाद उसे रस्सी से बांधा जाता है। शहरीय क्षत्रों के लोग उपहार स्वरूप खिलोने, कपड़े आदि सामान भी रस्सी से बांध देते हैं। उसके बाद रस्सी खींचकर दही से भरी मटकी को जमीन से लगभग 15 से 20 फुट ऊपर लटका दिया जाता है। अगर गांवों में देखा जाए तो अब भी बुन्देलखण्ड के कुछ गांवों में यह स्वांग पुराने रिवाजों के साथ खेला जाता है, जहाँ पहले मटकी के अंदर दही भरा जाता है और फिर उसके ऊपर खीरे के कतरे, जलेबी, छुहारे, गरी, नारियल आदि की मालाएं पहनाई जाती हैं और फिर दो व्यक्ति रस्सी के दोनों सिरों को पकड़कर विपरीत दिशा मे पेड़ों पर चढ़ जाते हैं और रस्सी के सिरों को खींचकर मटकी को ज़मीन से ऊपर उठा लेते हैं।
भाव खेलत को स्वांग – यह स्वांग एक तरीके का जन जागरूक करने वाला स्वांग है। चूंकि बुंदेलखंड एक पिछड़ा इलाका है तो यहां के ग्राम निवासियों में अंधविश्वास की मात्रा अत्यधिक मिलती है। बुंदेलखंड में मान्यता है कि देवी-देवता स्त्री या पुरुष किसी को भी भर आते हैं किंतु कुछ देवता सिर्फ पुरषों मे भर आते हैं। इसी अंधविश्वास का फायदा लेते हुए ग्रामीण जनता से झूठे भाव भरने का नाटक करते हैं, उन्हें डरा – धमकाकर उनकी लाचारी का फायदा उठाते हैं और उनसे अपनी मांगे पूरी करवाते हैं।
नारे सुआटा का स्वांग – यह स्वांग बुंदेलखंड की कुंवारी कन्याओं के द्वारा क्वांर की नवदुरगों के समय खेला जाता है। इसमे सुआटा (मिट्टी का पुतला) बनाया जाता है, उसके इर्द-गिर्द चॉक पुरी जाती है और कन्याएं गीत गाकर यह स्वांग खेलती हैं। नवरात्रि के अंतिम दिनों में इस स्वांग का समापन मामुलिया और ढिरिया दर्शन के साथ होता है, जिस दौरान लोग कन्याओं को धन देते हैं।
संस्कारपरक स्वांग : बुंदेलखंड मे विवाहोत्सव और जन्मोत्सव के अवसर पर खेले जाने वाले स्वांगों को संस्कारपरक की श्रेणी में रखा गया है। ये स्वांग विशिष्ट रूप से विवाह अवसरों पर महिलाओं द्वारा और जन्म अवसरों पुरुषों द्वारा खेले जाते हैं। जुगिया या बाबा का खेल, भये बदाये का स्वांग इसके अंश हैं।
भये बदाये का स्वांग – बुंदेलखंड के ग्रामीण इलाकों में मानसिकता है कि वहां लड़कों के जन्म होने पर त्यौहारनुमा उत्सव मनाया जाता है और वही लड़कियों के जन्म होने पर निराशा जताई जाती है, भये बदाये का स्वांग इसी मानसिकता पर व्यंग व्यक्त करता है। स्वांग के दौरान पुरुष स्त्री वेष धारण कर बच्चा पैदा करने के कपाटों का वर्णन करते हुए सास की कठोरता, पुरषों की खुदगर्ज़ी और पड़ोसियों के चंट स्वभाव को दर्शाते हैं और उन सभी पर टौंट कसते हैं।
जुगिया या बाबा का खेल – जुगिया बुंदेलखंड का बहु प्रचलित स्वांग है। यह विवाह के अवसरों पर खेला जाता है। जिसमें स्त्रियां पुरुष पात्र धारण कर रात भर स्वांग खेलती है। सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि जब कोई महिला पुरुष वस्त्र धारण कर, पुरुष की भांति सज्जा कर अपना वेष पूर्णतः पुरुष की तरह बना लेती है उसे जुगिया कहा जाता है। इस स्वांग के ज़रिए घर की सुरक्षा भी होती है और संस्कारों में बंधी औरतों को अपने अनुकूल खुलने का मौका भी मिल जाता है। यह स्वांग दूल्हे के घर पर बारात के जाने के बाद प्रारम्भ होता है।
सामाजिक स्वांग : बुंदेलखंड के क्षेत्रों मे समाज की दशा और मानसिकता पर व्यंग प्रकट करते हुए प्रस्तुत किये जाने वाले स्वांग, सामाजिक स्वांग कहलाते हैं। सास – बहू का स्वांग, लुगया आदमी का स्वांग, डाँकू का स्वांग आदि इसकी श्रेणी में आते हैं।
ढीमरों का स्वांग – ढीमरों के स्वांग में एक पुरुष फटे-पुराने कपड़े का जाल बनाता है और उसे जनता की तरफ फेंकता है, जब उस जाल में कोई फस जाता है तो उस पुरुष या महिला का उपहास करते हुए ढीमर गीत गाता है। स्वांग के दौरान जाल में फंसे पुरषों को कतला, रोउआ, सोंन्ला कह कर पुकारा जाता है और महिलाओं को लोचिया, सिंगी या खड्डिया कहा जाता है। युवक को मंगूरा तो वहीं युवती को सिन्नी आदि नामों से पुकारा जाता है।
धोबियों का स्वांग – इस स्वांग के माध्यम से धोबी अपनी व्यथा व्यक्त करते हैं। स्वांग के द्वारा वे अपनी गरीबी, लाचारी और भुखमरी के बारे में बताते हैं। इस स्वांग मे दर्शाया जाता है कि किस प्रकार धोबी और धोबिन कपड़े धोने के लिए कड़कड़ाती ठंड में भी नदी या तालाब पर जाते हैं, वहां ठंड में कपकपाते हुए धोबी कपड़े धोता है और अपने हालात बयां करता है, वहीं दूसरी तरफ धोबिन गधे पर कपड़ों की पोटली लादे हुए गाती हुई दर्शायी जाती है।
बरेदी का स्वांग – बरेदी के स्वांग में गांव के निठल्ले व्यक्ति को पकड़कर बरेदी बनाया जाता है। उससे दिन भर गांव के घरों से जानवरों को चरवाने की प्रक्रिया करवाई जाती है और शाम को उन सभी जानवरों को उनके घर छुड़वाया जाता है। स्वांग के द्वारा बरेदी बना व्यक्ति भीड़ मे खड़े लोगों को विभिन्न नामों से पुकार कर अपना गुस्सा व्यक्त करता है, जैसे पुरुषों को पड़ा(भैंस का बच्चा), सांड और औरतों को भैंसिया, कुलरिया इत्यादि। साथ ही सभी लोगों के साथ हँसी-ठिठोली भी करता रहता है।
सास बहू का स्वांग – सास बहू के स्वांग में घरेलू नोकझोंकों के बारे में व्यंग किए जाते हैं। इस स्वांग में दर्शाया जाता है की किस प्रकार ना तो सास अपनी बहू को बेटी का दर्जा दे पाती है और ना ही बहू सास को मां का। स्वांग में यह भी दिखाया जाता है कि किस प्रकार सुपुत्र प्राप्ति से पहले पति अपनी अर्धांगनी से अधिक अपनी माँ का पक्ष रखता है किंतु सुपुत्र प्राप्ति के बाद माँ से अधिक अपनी अर्धांगनी का पक्ष रखने लगता है। कई बार बेटा और बहू द्वारा अपने सुपुत्र को लेकर सास और ननद को अकेला छोड़ घर से चले जाते हैं, इसका दृश्य भी सास बहू के स्वांग मे देखने को मिलता है।
डाँकू का स्वांग – बुंदेलखंड के ग्रामीण इलाकों में साहूकार और सेठों का ग्रामीण लोगों पर दबदबा बना रहता है। जिसके चलते साहूकार और सेठ ग्रामीण लोगों पर जुल्म ढाते हैं, उनसे विवाद होने पर उनके खेतों को बर्बाद कर देते हैं और उनकी ज़िंदगी को नरक बना देते हैं। डाकू का स्वांग इसी दुर्दशा को दर्शाता है और लोगों को व्यंग के साथ-साथ शिक्षा भी देता है। स्वांग के द्वारा दिखाया जाता है कि किस प्रकार एक किसान साहूकारों और सेठों के जुल्मों के कारण डाँकू बनने पर विवश हो जाता है और बाद में उन्ही साहूकारों और सेठों को लूटने जाता है, जिसके चलते सेठ या साहूकार उसे अपना धन देने से मना कर देते हैं और डाँकू वहीं उन पर तेल डालकर उन्हें जला देता है, तत्पश्चात उनका सारा धन लूटकर उस धन से गांव की बेटियों की शादी कराता है, मंदिरों के निर्माण करवाता है और बचा हुआ धन गरीबों मे बांट देता है। पर बाद में वह डाँकू एक बेड़नी की प्रेम में आकर पकड़ा जाता है और उसे उसके कर्मों के लिए फांसी की सज़ा दी जाती है। अंत मे पुछइया सभी को सीख देते हुए कहता है -” धन दै तौ धरम दै, बल दै तौ चरित्र दै, मन दै तौ प्रेम दै और शक्ति दै तौ निभाय दै। नईं तौ ऐसई हुईए, होत रओ और होत रेहे।”
फ़कीर का स्वांग – यह स्वांग पूर्णत: समाज के उन मनचले व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों पर आधारित व्यंग है जिनके कंधों पर जन प्रभार होता है और जो ऊपरी तौर पर तो शिष्ट दिखते हैं परन्तु भीतर से भ्रष्ट व तुच्छ हैं। फ़कीर के स्वांग का कथानक एक वैश्या पर निर्भर होता है। इस स्वांग के माध्यम से दर्शाया जाता है कि किस प्रकार बैरागी अपने मनोरंजन के लिए वैश्या के घर आते हैं और एक बैरागी से ऊँचे औदे बैरागी के आने पर वैश्या उनका वेष बदल उन्हें घर के अन्य कामों में लगा देती है। सर्वप्रथम एक फकीर आता है, फिर चौकीदार, फिर सिपाही, फिर दरोगा और अंत में शहजादा, ये सभी एक के बाद एक करके आते हैं। शहजादे के पूछने पर वैश्या सभी के वास्तविक रूपों का वर्णन कर देती है, जिसके बाद शहज़ादा सभी को दंड देता है। स्वांग का मूल उद्देश्य लोगों को ऐसे भ्रष्ट और घिनौनी आदतों वाले प्रभारियों के प्रति व वैश्यों के त्रिया चरित्र के प्रति जागरूक करना होता है।
नृत्य मिश्रित स्वांग : वे सभी स्वांग जिनमे अभिनव के अनुरूप नृत्य की प्रधानता हो, नृत्य मिश्रित स्वांग कहलाते हैं। देखा जाए तो बुन्देलखण्ड का हर स्वांग नृत्य मिश्रित होता है परन्तु अधिकांश अभिनय प्रधान होते हैं। नृत्य मिश्रित स्वांगों मे लोक नृत्य के बीच मे स्वांग खेला जाता है, जिनमे गीत या दोहे संवाद बनते हैं और अभिनय के साथ प्रस्तुत किए जाते हैं। राई नृत्यनाट्य, नौरता, शिकार शैला आदि इसकी श्रेणी में आते हैं।
राई नृत्यनाट्य – बुंदेलखंड में राई नृत्य एक प्रसिद्ध लोक विधा है। इस नृत्य की अवधि एक से लेकर कई रातों तक की हो सकती है। बुन्देलखण्ड मे राई नृत्य उत्सवों के अवसर पर होता है। राई नृत्य में मृदंग की थाप पर बेड़नियां थिरकती हैं और मृदंग से अपने घुंघरुओं की ताल मिलाकर ग्रामीणों का मन लुभा लेती हैं।
जिस प्रकार राई मूल रूप से एक लोक नृत्य कला है उसी प्रकार नौरता, शिकार शैला, अटारी शैला आदि भी लोक नृत्य का ही हिस्सा हैं परंतु इन सभी मे संवाद, अभिनय, नकल आदि स्वांग के तत्वों का समावेश होता है इसी कारण इन्हें नृत्य मिश्रित स्वांग कहा जा सकता है। जैसे अटारी शैला मे कृष्ण के माखन चोरी की नकल देखने को मिलती है, शिकार शैला मे शिकार भरने का स्वांग देखने मिलता है आदि।
रावला मूलतः एक नृत्य प्रधान लोकनाट्य है जिसमें नृत्य के साथ संवाद प्रस्तुत किए जाते हैं, कई लोग इसी कारणवश रावला को नृत्य मिश्रित स्वांग जैसी आदि श्रेणियों का हिस्सा मानते हैं किंतु यह उचित नहीं है। स्वांग मनोरंजन का साधन होते हैं परंतु मूल रूप से व्यंगात्मक होते हैं जबकि रावला मूल रूप से मनोरंजनात्मक होता है, इसमें व्यंग प्रधानता नहीं होती, यह सिर्फ हास्य परक अभिनय पूर्ण नृत्य शैली है। रावला लोक नृत्य राई का पुरुषात्मक रूप है जिसमें महिला और पुरुष दोनों के किरदार पुरुष ही निभाते हैं। रावला नाट्य में विदूषक और औरत पात्र होते हैं जो एक दूसरे का अलग-अलग टौंट/तर्क के माध्यम से उपहास बनाते हैं और लोगों का मनोरंजन करते हैं।
लोक नाट्यकला के अंतर्गत आपने स्वांग के अनेक रूप बताकर ज्ञान वर्धन किया है जो स्पृहणीय है
Ji Abhideep Suhane ji swayam ek behatreen natya karmi hain