दयाशंकर तिवारी, मऊ, उत्तरप्रदेश
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं, लोक साहित्य में आपके 4 काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं)
भारतीय संस्कृति में लोक जीवन और लोक साहित्य का चोली-दामन का साथ है । कम पढ़े-लिखे व्यक्ति भी लोकगीतों का सृजन कर सुमधुर कण्ठ से गाते हैं और अपना तथा लोगों का मनोरंजन करते हैं । हमारे यहाँ परम्परागत गीतों का बहुत महत्व है जो अक्सर मौसम के साथ जुड़े हुए हैं । कृषि-मजदूर गीत गाते हुए श्रम करते हैं जिससे उनको अपनी मेहनत का आभास नहीं होता है । साल में आने वाले हर त्यौहार और मौसम के साथ गीतों का सामन्जस्य आपस में मेल-जोल बढ़ाने का भी काम करता है जो मौसमी उत्सव के रूप में लोग मनाते भी हैं । फागुन में होली के गीत, बसंती गीत, चैत्र में चैता, सावन-भादो में कजरी के साथ-साथ रोपनी और सोहनी के गीतों से लोक साहित्य भरा पड़ा है ।
घरों में पहले महिलाएं जाता से आटा पीसते समय जो गीत गाती थीं उसे जतसार कहते थे । दिनभर के थके हारे लोग शाम को गाँव में चौपाल लगाते थे जिसमें आपस में मिलकर भजन-कीर्तन गाते थे । शादी-ब्याह में विविध मांगलिक गीतों से लोगों के मन उत्साह का संचार होता है ।भोर में भोर के गीतों और शाम में सांध्य गीतों का भी अलग महत्व है ।
लोकभाषा या बोली में जो लालित्य है वह कहीं और देखने को नहीं मिलता है । लोकभाषा अवधी में लिखा गया रामचरित मानस और ब्रजभाषा में लिखे गये छंद बहुत कर्णप्रिय होते हैं। भोजपुरी को भाषा का दर्जा अभी प्राप्त नहीं है लेकिन लोकवाणी के रूप में उसका जितना प्रचार-प्रसार है वह उसके महत्व को दर्शाता है । अब तो खड़ीं बोली के गीतों में भी भोजपुरी के शब्दों का प्रयोग लोगों के हृदय को छू लेता है । आम बोलचाल की भाषा और बोली क्षेत्रीय आधार पर कुछ बदलती रहती है लेकिन वह सबके समझ में आ जाती है ।खड़ीं बोली में गीत लिखने वाले भी भोजपुरी गीतों के प्रशंसक हैं ।
कुल मिलाकर लोकजीवन और लोक साहित्य हमारा जीवन दर्शन है जो हमारे समाज में रचा-बसा है । जिससे लोगों में उत्साह का संचार होता है, लोगों के दुःख-दर्द को कम करने वाले लोक साहित्य का भविष्य उज्जवल है। हम अपनी माटी से जुड़ें हुए हैं । खेत-खलिहान, बाग़-बगीचे, नदी-पोखरे और तालाब से जुड़ें रह कर ही लोक साहित्य का सृजन संभव है । श्रम-साध्य गीतों से लोगों का भरपूर मनोरंजन होता है । आगे और अधिक श्रम करने की प्रेरणा भी मिलती है । हम अपनी परम्पराओं का बखूबी निर्वहन करते हुए प्रफुल्लित भी होते हैं ।
लोक साहित्य हमारी पहचान है, हमारी विरासत है जिसकी वजह से हम अपने अतीत को जीवित रखे हुए हैं । जब भी आदमी भटकता है तो उसका अतीत ही उसका मार्गदर्शन करता है । लोक साहित्य के बिना लोक जीवन अधूरा रह जाता है । प्रकृति से जुड़ कर लोक साहित्य और अधिक ह्रदयस्पर्शी हो जाता है ।
हिंदी के एक मुक्तक से गाँव का चित्रण –
गाँव के तो लोग खुद होते वैद्य हकीम
आँगन में तुलसी जहाँ दरवाजे पर नीम ।
दूर भगाते रोग को जड़ से राम-रहीम
इसीलिए होते यहाँ बली अली औ भीम ।
भोजपुरी के दो छंद निम्न हैं-
नीक लागेला हमके हमार गउंवा
बाटे गीता रमायन का सार गउंवा ।।
ले जहवाँ लगवलें ना दगवा
दमरी के सेनुरा आ रखिया के धगवा।
भइया बहिनी कऽ पसरल पिआर गउवाँ ।।
मेलजोल जहवाँ कऽ धरमे ईमान बा
गुनई सोबराती कऽ गीता कुरान बा ।
सीमा सलमा कऽ सारी सलवार गउवाँ ।।
(संग्रह: नाहीं लउके डहरिया के छोर)
सावन के दो बंद इस प्रकार हैं –
रिमझिम बरसेला सवनवाँ में सँवरिया बदरा ।
रस के गगरी चुआवेले बदरिया बदरा ।
डर लागे अन्हियरिया में चमके चहुँओर बिजुरिया,
ओरियानी के पानी छींटा मारे सोझ दुवरिया।
खटिया मचिया भींजे तकिया मुड़वरिया बदरा,
अँगना लागे काई सम्हरि न पाई फिसले पउवाँ।
झुलुआ झूले कजरी गावें, मिलि के सगरी गउवाँ।
उफनलि पोखरी में उछलेंली मछरिया बदरा
रिमझिम बरसेला सवनवाँ में सँवरिया बदरा ।।
(काव्य संग्रह : माटी क महक)