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क्यूँ रंगती हूँ © श्रीमती अनूप कटारिया, जयपुर, राजस्थान

Posted on May 31, 2023

मन के सांकल खटखटाती श्रीमती अनूप कटारिया जी की कविता – ” क्यूँ रंगती हूँ”

क्यूँ रंगती हूँ मैँ इन डायरी के पन्नों को

कौन देखेगा इन इन्द्रधनुषी रंगों को

सब रंगहीन हो गए हैं,

क्यूँ खोलती हूँ मैँ मन के कपाटों को

कौन प्रविष्ट कर खोलेगा दो पाटों को

सब रागहीन हो गए हैं,

क्यूँ टटोलती हूँ अंतर्मन की तस्वीरों को

कौन सहेजेगा अतीत की सलवटों को

सब विस्मृति गर्त में डूब गए हैं,

क्यूँ मैँ बाट जोहती हूँ खोल नेहिल पलकों को

कौन बचाने वाला है इन डूबते रिश्तों को

सब आसक्तिहीन हो गए हैं,

क्यूँ खिलखिलाती हूँ देख स्वप्निल लोक को

कौन जीवन्त करेगा मेरे इन अरमानों को

सब दिवास्वप्न में खो गए हैं,

क्यूँ ढूँढती हूँ अमावस में सितारों को

कौन दिखायेगा शीतल ज्योत्स्ना को

सब दिग्भ्रमित हो गए हैं,

क्यूँ गिनती हूँ बीती उम्र के सुखद पलों को

कौन लिखेगा उन कीमती यादों को 

सब गिनती भूल गए हैं,

क्यूँ स्थिर करती हूँ श्रान्त, क्लान्त गात को

कौन सहारा देगा स्खलित कदमों को

सब संवेदनहीन हो गए हैं ।

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