मनोज कुमार सिंह ” प्रवक्ता “
लेखक/ साहित्यकार/ उप सम्पादक कर्मश्री मासिक पत्रिका
अत्यंत प्राचीन काल से अंग्रेजों के आगमन तक अपनी सादगी, साफगोई, भोलापन और अपनी भलमनसाहत के लिए साहित्यिक कृतियों में बहुचर्चित और सुविख्यात हमारे गाँव हमारे देश की हर शासन व्यवस्था की मौलिक, प्राथमिक तथा आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर इकाई रहे हैं। इसका अपवाद पश्चिमोत्तर भारत में सिंधु और रावी नदी के तट पर सुविकसित अबसे साढे चार हजार साल पुरानी कांस्ययुगीन सिंधु घाटी सभ्यता रही हैं जो पूर्णतः नगरीय सभ्यता थी। हालांकि इसकी उत्तरवर्ती वैदिक सभ्यता पूरी तरह से ग्रामींण सभ्यता थी। यह ध्यान में रहे कि पूर्णतः ग्रामींण सभ्यता और संस्कृति के रूप विख्यात वैदिक काल में ही भारतीय ज्ञान विज्ञान और आध्यात्म के महान ग्रंथों वेदो, अरण्यकों और भारतीय आध्यात्मिकता, तार्किकता, दार्शनिकता और बौद्धिकता की पराकाष्ठा को स्पर्श करने वाले उपनिषदो की रचना की गई।
वैदिक काल से लेकर मुगलों के शासनकाल तक लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारतीय शासकों के समय लगभग समस्त भारतीय गाँव शासन व्यवस्था की प्राथमिक, मौलिक और अक्षुण्ण ईकाई रहे हैं। उत्तर भारत की तरह सुदूर दक्षिण भारत में चोल, चालुक्य और चेर राजाओं ने अपनी शासन व्यवस्था में आम लोगों को बेहतर सुविधाएं सुनिश्चित करने एवं ग्रामीण जन-जीवन में उन्नति और समृद्धि लाने के लिए उत्तम ग्रामींण शासन व्यवस्था का प्रबंधन किया था। वर्तमान दौर के मंत्रिपरिषदों की तर्ज पर ग्रामींण स्तर पर विभिन्न कार्यों को सुव्यवस्थित और सुचारू रूप से सम्पन्न और संचालित करने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया गया था। समितियों के माध्यम से दक्षिण भारतीय शासकों ने सर्वश्रेष्ठ ग्रामींण शासन व्यवस्था सुनिश्चित करने का प्रयास किया था। इतिहासकार मेगास्थनीज की प्रसिद्ध पुस्तक इण्डिका में उत्तर भारत के विशेष रूप से मगध साम्राज्य के गाँवों में पाई जाने वाली उत्तम ग्रामीण शासन व्यवस्था के साथ-साथ उत्तम उन्नत और समृद्ध ग्रामींण जन-जीवन का उल्लेख मिलता है। इण्डिका में मगध साम्राज्य की उन्नति और समृद्धि के साथ-साथ उत्कृष्ट साहित्यिक और सांस्कृतिक हलचलों का भी पता चलता है। इस प्रकार ऐतिहासिक अवलोकन से पता चलता है कि सम्पूर्ण भारत में हर प्रकार की शासन प्रणालियों में उत्तम ग्रामींण शासन व्यवस्था पाई जाती रही हैं।
हमारी शासन व्यवस्था की मौलिक, स्वाभाविक और प्राथमिक ईकाई रहे गाँव बढते आधुनिकीकरण, तकनीकीकरण, शहरीकरण और पाश्चात्यीकरण के कारण अपनी मौलिक, स्वाभाविक, प्राकृतिक और स्वतंत्र पहचान खोते जा रहे हैं । आपसी सहयोग, सहकार, समन्वय, साहचर्य, सामंजस्य और सदियों से हमारे चलन-कलन का हिस्सा रही संयुक्त परिवार प्रणाली के माध्यम जीवन-जीने के आदती ग्रामींण लोकजीवन में अब एकाकी परिवार प्रणाली और एकाकी जीवन शैली तेजी से आगे बढने लगीं हैं।
मंहगाई, तकनीकी प्रगति के साथ लम्बी होती आवश्यकताओं की सूची, टेलीविजन के प्रति उफनता प्रेम और एक हजार चैनलों द्वारा लगातार परोसे जाने वाले कार्यक्रमों तथा सूचना संचार के अत्याधुनिक संसाधनों और सोशल मीडिया के औजारों ने घर की चहारदीवारी के अन्दर रहने वाले सदस्यों को भी कठोरता से अलगाव का शिकार बना दिया है और ये एक ही छत के नीचे गुजर बसर करने वाले एकाकी जीवन शैली की तरफ तेजी से आगे बढ रहे हैं। गावों में सदियों से प्रचलित समूहगत और सामूहिक जीवन पद्धति विलुप्त होती जा रही है। आधुनिकीकरण, तकनीकीकरण, शहरीकरण और सूचना प्रौद्योगिकी के साधनों के दुरूपयोग ने गाँवों की आपसदारी को न केवल तहस-नहस किया हैं बल्कि आधुनिकता की इस अंधी दौड़-भाग ने गाँवों को आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक रूप से प्रदूषित और कुपोषित किया है। तोता, मैना, कोयल, बुलबुल, गौरेय्या और कौवे की बोलियाँ सुनने के लिए आज हम तरस जाते हैं इसके साथ ही साथ गाँवों के पर्यावरण और आबो-हवा में स्पष्ट बदलाव देखने को मिल सकता हैं ।
सूचना प्रौद्योगिकी के साधनों का बुलेट ट्रेन की रफ्तार से बढता प्रयोग और हाइटेक होते जन जीवन ने गाँवो में मोबाइल कम्पनियों के टावरों की संख्या बढा दी है। इन टावरों की तरंगों ने तमाम चहचहाती पक्षियों की जान ले ली। अंग्रेजो के आगमन के पूर्व भारतीय गाँव अपनी सहज, सरल आवश्यकताओं के लिए पूरी तरह आत्मनिर्भर थे। अग्रेंजो ने भारतीय ग्रामींण अर्थत्ंत्र और अर्थव्यवस्था के आधार स्तम्भ रहे भारतीय लोगों की बहुविवीध हुनरमंद दस्तकारी, परम्परागत कुशल, शिल्पकारी और हुनर और हाथों की जादूगरी से लबरेज़ हस्तकला को छिन्न-भिन्न कर दिया । अंग्रेजों ने अपनी कुत्सित, घृणित, निर्लज्ज और निर्मम साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में भारतीय गाँवों के साथ-साथ सम्पूर्ण भारतीय अर्थव्यवस्था को ब्रिटिश साम्राज्य की पूरक, अनुषंगी और पराश्रित अर्थव्यवस्था के रूप में स्थाई रूप से बदल दिया। स्वाधीनता उपरांत भारतीय गाँवों को फिर से आत्मनिर्भर बनाने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर अनगिनत प्रयास किए गए परन्तु तमाम प्रयासों और प्रयत्नों के बावजूद आज भी हमारे गाँव राजधानियों और चमचमाते शहरों की अनुषंगी पूरक और पराश्रित अर्थव्यवस्था के रूप में जीने के लिए अभिशप्त है।
चमचमाती, बहुरंगी रोशनी से जगमगाते शहरों के लिए आवश्यक अनाज, फल, दूध-सब्जी और अपने हाथों में हर तरह की कारीगरी का कौशल लिए मेहनतकश मजदूरों की फौज गाँव ही मुहैया कराते हैं। शहरों और राजधानियों को चमकाने के लिए सारा संसाधन उपलब्ध कराने वाले गाँव आज बदहाली और बदत्तरी के शिकार हैं। आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक रूप से कुपोषण के शिकार गाँवों में जब तक खुशहाली नहीं आयेगी तब तक भारत में खुशहाली नहीं आयेगी। पढाई, कमाई और दवाई के लिए ग्रामीण लोगों का शहरों की तरफ पलायन गाँवो की बदहाली और बदत्तरी का जीवंत दस्तावेज है। इसलिए गाँवों के प्रति सुहृदयता दिखाते हुए गाँवों के स्वाभाविक विकास के लिए सरकारों को ठोस कदम उठाने होंगे। गावों में गुजर-बसर करने वाले लोगों की आजीविका का साधन आज भी खेती-किसानी और खेती-किसानी पर आधारित लघु कुटीर उद्योग हैं। इसलिए खेती-किसानी को लाभकारी स्थिति में पहुँचाने के लिए व्यवसायिक स्वरूप प्रदान किया जाय, लघु कुटीर उद्योगो को विकसित किया जाये तो आज फिर से गांव आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सकते
गौरेय्या, बुलबुल, मैना, तोता और कोयल के सुमधुर कर्णप्रिय और संगीतमयी शोर से अनुगूँजित गाँवों को फिर से सुसज्जित करने के लिए गांवों की प्राकृतिक और स्वाभाविक बुनावट और सजावट की तरफ लौटना होगा। गावों में फिर से साक्षात सहकारी और जिन्दा संवाद कायम कर गाँवों की मौलिक पहचान फिर से वापस लायी जा सकती हैं। बाजारवादी चकाचौंध और लगातार विज्ञापनो के शोर ने गवंई शरबत, गंवई मिठाईयों और गंवई व्यंजनों की सुगंध और स्वाद को न केवल क्रूरता से कुचल दिया है बल्कि हमारे खान पान की पौष्टिक और प्रचलित परम्परा से हमको बहुत दूर कर दिया हैं। गुड़-भेली से तरह तरह की बनी मिठाईयों, खाद्य पदार्थों और पेय पदार्थो का स्थान पेप्सी कोका-कोला जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पेय पदार्थों और खाद्य पदार्थों ने ले लिया है। इसलिए भारतीय गाँवों की मौलिक पहचान पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है। जनमानस में गंगा को बचाने के लिए जो तड़प और बेचैनी पाई जाती है उसी तरह की तड़प और बेचैनी गाँवों को बचाने के लिए जनमानस के हृदय में पैदा करने की आवश्यकता है।