बृजेश गिरि
प्रवक्ता, जैश किसान इन्टर कॉलेज
घोसी, मऊ
सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन’अज्ञेय’ प्रयोगवाद के प्रवर्तक माने जाते हैं। वैसे नयी कविता को भी साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने श्रेय अज्ञेय को ही जाता है। साहित्य अकादमी व ज्ञानपीठ पुरस्कार से पुरस्कृत अज्ञेय एक महत्त्वपूर्ण साहित्यकार के साथ-साथ व्याख्याता,सत्यान्वेषी पर्यटक, चितंक, विचारक व एक अच्छे चित्रकार भी थे। अज्ञेय को कवि के अतिरिक्त कथाकार,ललित निबंधकार व सम्पादक के रूप मे जाना जाता है। लेकिन मुख्य रूप से अज्ञेय कवि ही हैं और हिन्दी साहित्य जगत में इनको कवि के रूप में ही सर्वाधिक ख्याति और प्रतिष्ठा मिली।एक बार विष्णुकांत शास्त्री ने अज्ञेय से यह पूछा था कि वह अपने-आप को क्या मानते हैं ?उपन्यासकार या कवि। शास्त्री जी के बहुत अनुरोध करने पर उन्होंने शास्त्री जी को बताया था कि”पहले मैं अपने को मूलतः कवि मानता था।फिर लगने लगा कि मैं मूलतः उपन्यासकार हूँ। अब फिर मुझे लगता है कि नहीं, मैं कवि ही हूँ। उपन्यास, कहानी, नाटक भी मैं कवि के रूप में ही लिखता हूँ।”
उनकी रचनाएं कालजयी हैं। अज्ञेय की पहली कविता 16 वर्ष की अवस्था में सन् 1927 में प्रकाशित हुई थी। भग्नदूत(1933), चिंता(1942), इत्यलम् (1946), प्रिजन एण्ड अदर पोएम्स(1946,अंग्रेजी में), हरी घास पर क्षण भर(1949), बावरा अहेरी(1954), इन्द्रधनुष रौंदे हुए ये(1957), अरी ओ करुणा प्रभामय(1959), आँगन के पार द्वार(1959), पूर्वा(1965) , सुनहले शैवाल(1965), कितनी नावों में कितनी बार(1967), क्योंकि मैं उसे जानता हूँ(1969), सागर-मुद्रा(1970), पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ(1973), महावृक्ष के नीचे(1977), नदी की बांक पर छाया(1982), ऐसा कोई घर आपने देखा है(1986) और मरुथल(1995) अज्ञेय के उल्लेखनीय काव्य-संग्रह हैं। यदि ध्यान से देखा जाए तो अज्ञेय की काव्य-यात्रा चार चरणों से होकर गुजरती है । डॉ.विद्यानिवास मिश्र के अनुसार”पहला है विद्रोह और हताशा का, दूसरा है अपने भीतर और शक्ति-संचय का, तीसरा है बिना किसी आशा के आत्मदान में सार्थकता पाने का और चौथा है मानवीय दायित्व-बोध के साथ-साथ भारतीय अस्मिता की पहचान का। पहले चरण की रचनाएं हैं चिंता और इत्यलम्, दूसरे चरण में आती हैं हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी और इन्द्रधनुष रौंदे हुए ये की कविताएं, तीसरे में अरी करुणा प्रभामय, आँगन के पार द्वार तथा कितनी नावों में कितनी बार की कविताएं और चौथे में क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, सागर-मुद्रा और पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ की कविताएं।”
अज्ञेय की ‘भग्नदूत’ का आधार प्रणय संबंध है। इसमें एक तरफ प्रेमी की प्रणय याचना है तो दूसरी तरफ भावुकता से संपृक्त स्नेह का चित्रण भी । बच्चन सिंह लिखते हैं कि” ‘भग्नदूत’ में मुख्यतः गदहपचीसी का प्रयण निवेदन है।मधु की मोहक छलना में उलझा हुआ कवि कहीं दया की भीख माँगता है तो कहीं करुणा की।”अगले काव्य-संग्रह ‘चिन्ता’ में प्रणय का दार्शनिक पक्ष दिखाई देता है। यह दो खण्डों में है-विश्वप्रिया और एकायन। विश्वप्रिया में पुरुष के उद्गार हैं और एकायन में नारी के। इसमें पुरुष के प्रति नारी पूर्ण रूप से समर्पित है। इस पर फ्रायड के अभिव्यक्ति सिद्धांत का प्रभाव परिलक्षित होता है। ‘इत्यलम्’ चार खण्डों में है। पहले खण्ड ‘बन्दी के स्वप्न’ की कविताएं सामान्य रूप से राष्ट्रीय भावनाओं से संपृक्त हैं। दूसरे खण्ड ‘हिय हारिल’ की अधिकांश कविताएं रोमांटिक ढंग की हैं वहीं तीसरे खण्ड ‘वंचना के दुर्ग’ में कवि खुद से ही मुक्त होने के लिए ऐंटी-रोमांटिक होने की कोशिश करता है। पहले चरण की उक्त रचनाओं में कवि आत्मपीड़ा की अवस्था में हताशा का शिकार होता है और उसके अन्दर विद्रोह की भावना पैदा होती है। हालांकि शुरू की इन रचनाओं को लेकर अज्ञेय की स्थिति कवि के रूप में उपेक्षित सी रही है।
बच्चन सिंह ने अज्ञेय की अन्तःयात्रा का वास्तविक आरम्भ ‘हरी घास पर क्षणभर’ से माना है।अज्ञेय को कवि के रूप में स्थापित करने में इस काव्य-संग्रह का महत्वपूर्ण योगदान है।’नदी के द्वीप’ कविता इसी संग्रह में संकलित है। इसमें अज्ञेय ने अपने जीवन दर्शन का चित्रण किया है।’हरी घास पर क्षणभर’ में अज्ञेय ने प्रणय निवेदन,प्रकृति चित्रण और जीवन दर्शन की नई भूमि तैयार की है।अज्ञेय की जीवन-यात्रा जैसे-जैसे आगे बढ़ती वैसे-वैसे उनके आत्म-चिंतन का दायरा बढ़ता जाता है और फिर वो ‘बावरा अहेरी’ जैसे काव्य-संकलन की रचना करते हैं।’बावरा अहेरी’ को सूर्य का प्रतीक माना गया है।इस संकलन में कवि अपनी लघुता को विराटता में समाहित कर देता है।समर्पण की यह भावना ‘दीप अकेला’ कविता में देखने को मिलती है।
‘हरी घास पर क्षण भर’ और ‘बावरा अहेरी’ काव्य संग्रह अज्ञेय की अग्रसर जीवन-यात्रा या यूँ कहें कि काव्य-यात्रा के मध्यबिंदु हैं।इन काव्य संग्रहों में वस्तु और भाषा, दोनों दृष्टि से एक परिपक्व अज्ञेय दिखाई देते हैं।आरम्भ की रचनाओं में अभिव्यक्त प्रेम के प्रति तीव्र आसक्ति,आस्था और समर्पण में परिवर्तित हो जाती है और आत्मचिंतन को विस्तार मिलता ।भाषा को ऊबड़-खाबड़पन व अतिशय अलंकरण से मुक्ति मिलती है।लोक से ग्रहित नए बिम्ब और प्रतीक भाषा की सहजता के कारण अपेक्षित अर्थ ग्रहण करते हैं।बाद के काव्य-संग्रह ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ और ‘आँगन के पार द्वार’ बौद्ध और जैन दर्शन से प्रभावित हैं।’आँगन के पार द्वार’ तीन खण्डों में है-अन्तः सलिला, चन्द्रकांतशिला और आसाध्य वीणा।।’आसाध्य वीणा’ अज्ञेय की लम्बी कविता है और इसका आधार एक जापानी लोक कथा है।इसमें अहं का विसर्जन है,समर्पण के द्वारा ही ‘असाध्य वीणा का’ कलावंत वीणा को साधता है।कला और भाषा की दृष्टि से यह एक श्रेष्ठ रचना है इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है।
‘कितनी नावों में कितनी बार’,’क्योंकि मैं उसे जानता हूँ’,सागर मुद्रा, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ,महावृक्ष के नीचे आदि रचनाओं में अज्ञेय की काव्य दृष्टि का उत्तरोत्तर विकास दिखाई देता है और इन रचनाओं में वो अपनी मूल संवेदना को विस्तार देते दिखाई देते हैं।
अज्ञेय ने अपनी कविताओं में ग्रामीण लोक विश्वासों, पौराणिकमान्यताओं, प्राकृतिक, वैज्ञानिक और युगीन जटिलताओं के विविध प्रतीकों का प्रयोग किया है। उनके बिम्ब उनकी कविता को सहज और अर्थग्राहिणी बनाते हैं।हालांकि अज्ञेय की रचनाओं पर आलोचकों व अध्यापकों द्वारा दुरूहता के आरोप लगे हैं। एक बार ओम निश्चल ने बात-चीत में उनसे इस सम्बन्ध में सवाल किया था।जबाव देते हुए अज्ञेय ने कहा था कि”यह तो सच कि बहुत से अध्यापक लोग ऐसा पढ़ा रहे हैं कि अज्ञेय की रचनाएं दुरूह हैं। मैंने उनकी पुस्तकों में भी प्रायः यह देखा है।लेकिन मैं जानता हूँ कि बहुत पाठक ऐसे हैं जिनको यह नहीं लगता और इसीलिए कभी-कभी मैं अध्यापकों से कहता हूँ कि जो मैं लिखता हूँ अध्यापक के लिए नहीं लिखता, मैं पाठक के लिए लिखता हूँ।पढ़ाया जाना मेरे लिए कोई गौरव की बात नहीं है, पढ़ा जाना मेरे लिए महत्त्व की बात है।”
अज्ञेय के विषय में विष्णुकांत शास्त्री द्वारा लिखी इन पंक्तियों से अपनी बात समाप्त करता हूँ -“अज्ञेय को जानना अरण्य को जानने के समान ही सहज भी था और दुष्कर भी।वे मिलते सभी से सहज भाव से थे,पर खुलते किससे कितना थे ,यह कहना कठिन है।उनके अन्तरंगतम वृत्त के लोग भी उन्हें क्या जान सके थे?उन्हें जान लेने का गुमान करनेवालों से भी क्या उनके बारे में बड़ी-बड़ी गल्तियाँ नहीं हुईं? मैं तो खैर ,उस वृत्ति की परिधि को कभी नहीं छू पाया था।कितनी सटीक ,सन्तुलित उक्ति है अज्ञेय की अपने बारे में:
मैं सभी ओर से खुला हूँ
वन-सा,वन-सा अपने आप में बंद हूँ
शब्द में मेरी समाई नहीं होगी
मैं सन्नाटे का छन्द हूँ।