डॉ धनञ्जय शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर, सर्वोदय पी.जी.कॉलेज
घोसी, मऊ
अज्ञेय द्वारा संपादित सन 1943 में तार सप्तक आधुनिक हिन्दी काव्य के इतिहास में एक मील का पत्थर है। परवर्ती छायावादी कविता और नयी कविता के संक्रमण काल में अज्ञेय द्वारा सप्तक काव्य की श्रृंखला का आयोजन,आज से अस्सी वर्ष पूर्व कवि और कविता के युगीन परिवेश को व्यक्त करती है।यह कहना असंगत न होगा कि समकालीन काव्य के इतिहास में तार सप्तक ने जो स्थान पाया, जिस अर्थ और भाव में उसका प्रभाव परवर्ती काव्य विकास में व्याप्त है,यहां उसके व्यक्त -अव्यक्त इतिहास को प्रस्तुत प्रकाशन रेखांकित करना है।अज्ञेय लिखते हैं-तारसप्तक में सात युवा कवियों की रचनाएं हैं, ये रचनाएं कैसे एक जगह संग्रहित हुईं इसका इतिहास है।”यह इतिहास जान लेना आवश्यक है-तारसप्तक के संपादन से दो वर्ष पूर्व दिल्ली में अखिल भारतीय लेखक सम्मेलन का आयोजन हुआ जहां कुछ साहित्यकारों ने विचार किया कि छोटे-छोटे फुटकर संग्रह छापने के बजाय एक संयुक्त संग्रह छापा जाय,ऐसाज इसलिए किया गया कि छोटे फुटकर संग्रह अस्तित्व विहिन होते हैं, सागर में एक बूंद की भांति को जाते हैं। अतःसंयुक्त प्रयास द्वारा संयुक्तांक निकाला गया जिसका प्रथम मूलाधार आपसी सहयोग एवं चंदा के माध्यम से पेपर और छपाई का खर्च निकाला गया।इसका दूसरा मूल सिद्धांत यह था कि-“संग्रहित सभी कवि ऐसे होंगे जो कविता को प्रयोग का विषय मानते हैं,जो दावा यह नहीं करते कि काव्य का सत्य उन्होंने पा लिया है,केवल अन्वेषी ही अपने को मानते हैं।” इस प्रकार कविता को प्रयोग का विषय और अन्वेषी दृष्टिकोण तार सप्तक का आधार बना।आधुनिक संदर्भ में अपने कथ्य पाठकों तक अक्षुण्य पहुंचाने के लिए शिल्पगत नये प्रयोगों पर जितना बल दिया गया उतना पहले कभी नहीं दिया गया था।संकलित सभी कवियों के एकत्र होने का कारण भी उनके प्रयोग समानधर्मिता बतायी गयी।
तार सप्तक का प्रकाशन सन 1943 में हुआ जिनमे गजानन माधव मुक्तिबोध, नेमिचन्द्र, भारत भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरीजा कुमार माथुर, रामविलास शर्मा और अज्ञेय की रचनाएं शामिल की गयीं। इस संदर्भ में अज्ञेय का कथन है-“तार सप्तक में सात कवि संग्रहित हैं, सातों एक-दूसरे के परीचित हैं।
उनके एकत्र होने का कारण यही है कि वे किसी एक स्कूल के नही है, किसी मंजिल पर पहुंचे हुए नहीं हैं, अभी राही हैं- राही नहीं राहों के अन्वेषी, उनमें मतैक्य नहीं है, सभी महत्वपूर्ण विषयों पर उनकी राय अलग-अलग है। उनमें मतैक्य नहीं है, जीवन के विषय में, समाज धर्म और राजनीति के विषय में, काव्यवस्तु और शैली के, छंद और तुक के, कवि के दायित्वों के प्रत्येक विषय में उनका आपस में मतभेद है।” ऐसा होते हुए भी वे एक साथ संगृहीत है। इसका मुख्य कारण काव्य के प्रति एक अन्वेषी का दृष्टिकोण उन्हें समानता के सूत्र में बाँधता है। परिचित और सहकार योजना ने इसे संभव बनाया।
तार सप्तक के प्रकाशन के बीस वर्ष बाद द्वितीय संस्करण की भूमिका सन 1963 में लिखी गयी, जिसमें अज्ञेय लिखते हैं- “इन बीस वर्षों में सातों कवियों की परस्पर अवस्थिति में विशेष अंतर नहीं आया तब की संभावनाए अबकी उपलब्धियों में परिणत हो गयी, सभी बोधिसत्व अब बुद्ध हो गये हैं। पर इन सात नए ध्यानी बुद्धों के परस्पर संबंधों में विशेष अंतर नहीं आया है अब भी उनके बारे में उतनी ही सच्चाई के साथ कहा जा सकता है कि उनमें मतैक्य नहीं है।” स्वतंत्रता आन्दोलन के बाद उपरान्त जब पाठकों का ध्यान तारसप्तक की ओर आकृष्ट हुआ तो अज्ञेय ने दूसरा सप्तक और तीसरा सप्तक का संपादन किया जिससे प्रयोगवाद आन्दोलन के रूप में प्रतिष्ठित हुआ, तार सप्तक का संपादन जिस भाव भूमि को आधार बनाकर किया गया उसकी निर्मिति छायावाद से ही आरम्भ हो गयी थी, अज्ञेय ने इस प्रवृत्ति को सही समय पर पहचान कर काव्य आन्दोलन का रूप दे दिया। तीसरा सप्तक की भूमिका में इन्होने लिखा है- ‘तार सप्तक एक नयी प्रवृत्ति का पैरवीकार मांगता था इससे अधिक विशेष कुछ नहीं ।” इस नये प्रवृत्ति के विषय में बहुत कुछ बाते तार सप्तक के वक्तव्य में लिख देते है- कविता ही कवि का परम वक्तव्य है।” या “कवि का कथ्य उसकी आत्मा का सत्य है” वह सत्य व्यक्तिबद्ध नहीं है व्यापक है यह सत्य व्यक्ति सत्य और व्यापक सत्य की दो पराकाष्ठाओं के बीच कई स्तरों में व्याप्त है।
तारसप्तक के वक्तव्य में अज्ञेय ने आज के कवि की समस्याओं का प्रकाशन किया जिनमें प्रमुख समस्याएं – काव्य विषय की, सामाजिक उत्तरदायित्व की, संवेदना के पुनः संस्कार की और कवि कर्म की, साधारणीकरण और संप्रेषण की समस्या आदि हैं, ये समस्याए ही कवि को प्रयोगशीलता की ओर प्रेरित करने वाली सबसे बड़ी शक्ति है। इस संदर्भ में अज्ञेय ने लिखा है- “कवि अनुभव करता है कि भाषा का पुराना व्यापकत्व उसमें नहीं है- शब्दों के साधारण अर्थ से बड़ा अर्थ हम उसमें भरना चाहते हैं, पर उस बड़े अर्थ को पाठक के मन में उतार देने के साधन अपर्याप्त हैं।” भाषा के कर्तव्य को पहचानने का हिंदी कविता में पहला प्रयत्न था, भाषा के इस सर्जनात्मक प्रयोग की ओर अज्ञेय ने ध्यान दिया और कविता के माध्यम से लिखा- “ये उपमान मैले हो गये हैं, देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कुच।” तार सप्तक में प्रयोग की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए व्यक्ति सत्य को व्यापक सत्य करने के लिए कवि की संवेदना को पाठक तक अक्षुण्ण पहुंचाने के लिए भाषा में नए अर्थ का संचार आवश्यक समझा, इस हेतु प्रयोग के नए-नए स्वरूपों को स्पष्ट किया। तारसप्तक के व्यक्तव्य में अज्ञेय ने लिखा है- प्रयोग सभी कालों के कवियों ने किये हैं, यद्यपि किसी एक काल में किसी विशेष दिशा में प्रयोग करने की प्रवृत्ति होना रवभाविक ही है, किन्तु कवि अनुभव करता आया है, जिन क्षेत्रों में प्रयोग हुए हैं, उनसे आगे बढ़ कर उन क्षेत्रों का अन्वेषण करना चाहिए जिन्हें अभी नही हुआ गया या जिनको अभेद्य मान लिया गया है।” यहाँ अनछुए क्षेत्र का स्पर्श ही प्रयोग का उद्देश्य बन गया, पूर्व के कवि जिसे कविता का विषय नहीं मानते थे सप्तककाल में उन्हें अन्वेषण का विषय मान लिया गया। अज्ञेय आगे लिखते हैं- भाषा को अपर्याप्त पाकर विराम संकेतों से अंको और सीधी तिरछी लकीरों से छोटे-बड़े टाइप से सीधे या उलटे अक्षरों से, सभी प्रकार के इतर साधनों से कवि उद्योग करने लगा कि अपनी उलझी हुई संवेदना की सृष्टि को पाठकों तक अक्षुण्ण पहुंचा सके ।” आगे लिखते है- “जो व्यक्ति का अनुभूत है उसे समष्टि तक कैसे इसकी संपूर्णता में पहुंचाया जाय जो प्रयोगशीलता को ललकारती है।”
प्रयोगशीलता के पीछे जो दर्शन काम कर रहा था वह था मनोविश्लेषणवाद, क्योंकि कला सर्जन के मूल में कलाकार की दमित वासनाओं एवं कुंठित काम प्रवृतियों का योग रहता है। कलाकार अपनी काम वासना को समाज के भय से या अन्य कारणों से व्यक्त नहीं कर पाता वही वासना यौन विकृतियों के रूप में या मानसिक रोग के रूप में व्याप्त होती है
अपने व्यक्तव्य में अज्ञेय लिखते हैं –आधुनिक युग का साधारण मानव यौन वर्जनाओं का पुंज है …. आज के मानव का मन यौन परिकल्पनाओं से लदा हुआ है और वे कल्पनाएँ सब दमित और कुंठित हैं। उनकी सौन्दर्य चेतना भी इसी से आक्रांत है, उसके उपमान सब यौन प्रतीक्कार्थ रखते हैं। काव्य रचना में प्रयोग कर के अज्ञेय ने जहाँ नयी रचना पद्धति का आविष्कार किया, वही उन्होंने विषय वस्तु के क्षेत्र में भी क्रांति की। इन्होने चेतन मन के स्थान पर अवचेतन स्तर की सामग्री को प्रस्तुत करते हुए कुंठाओं, वासनाओं गुह्य भावनाओं एवं असामाजिक विचारों की अभिव्यक्ति निर्द्धन्द्ध रूप में की, अज्ञेय लिखते हैं- कवि के लिए इस परिस्थिति में और भी कठिनाईयां हैं। एक मार्ग यौन स्वप्न-सृष्टि का दिवास्वप्नों का है, उसे वह नहीं अपनाना चाहता। फिर वह क्या करे?? यथार्थ दर्शन केवल कुण्ठा उत्पन्न करता है। वास्तव की बीभत्सता की कसौटी पर चाँदनी खोटी दिखती है।… और प्रेम? एक थका माँदा पक्षी, जो साँझ घिरती देखकर आशंका से भी भरता है और साहस संचित कर के लड़ता भी जा रहा है।”
तारसप्तक के बाद अज्ञेय ने ‘प्रतीक’ (1947) पत्रिका का संपादन किया, दूसरे सप्तक की भूमिका में वे लिखते हैं प्रयोग का कोई ‘वाद’ नहीं है, हम वादी नहीं रहे हैं। न प्रयोग अपने आप में इष्ट या साध्य है। ठीक इसी प्रकार कविता का कोई वाद नहीं है, कविता भी अपने आप में इष्ट या साध्य नहीं है अतः हमें प्रयोगवादी कहना उतना ही सार्थक या निरर्थक है जितना हमें कवितावादी कहना ।” कहा जा सकता है तारसप्तक ही प्रयोग बाद का प्रस्थान बिंदु है । प्रयोगवाद नाम से अज्ञेय की असहमति थी जिसको दूसरे सप्तक की भूमिका में स्पष्ट कर देते है। असल में अज्ञेय प्रयोगवाद नाम से बचना चाहते थे और पाठक प्रयोगवाद नाम रखना चाहता था तारसप्तक और प्रतीक के प्रकाशन से प्रयोग शब्द बार-बार पाठक के सामने आने लगा। अतः अज्ञेय के न चाहते हुए भी ‘प्रयोगवाद’ काव्यरूढ़ होकर प्रचलित हुआ ।