डॉ. दिलीप शर्मा,
प्राक्तन उप प्राचार्य, नगाँव कालेज
नगाँव : असम
अज्ञेय मूलतः एक लेखक हैं, दार्शनिक नहीं, समस्याएं चाहें एक सी हों कवि के चिंतन के औजार, सोचने का ढंग, विचारों को छूने की प्रक्रिया कुछ अलग होती है किन्तु : यह बात भी सही नहीं है कि एक लेखक दार्शनिक नहीं हो सकता किन्तु उसका दर्शन, हमें उसकी दार्शनिक स्थापनाओं में खोजना नहीं चाहिए ।
कारण लेखक का दर्शन “सोच के विषयों में नहीं, बल्कि स्वयं सोच की प्रक्रिया और उसके व्यवहार में निहित होता है।” दुसरे लेखक का सृजन-संघर्ष विचारों से नहीं शब्द और भाषा से जुड़ा रहता है, उदाहरणस्वरुप हम इस वाक्य का सहारा ले सकते हैं कि एक बार चित्रकार “देगा” ने कवि “मलार्मे” से कहा, “अजीब है तुम लेखकों का धंधा । मेरे पास इतने ढेर से विचार हैं, लेकिन मैं लिख नहीं सकता ।” तब मलार्मे ने जवाब दिया, “प्यारे देगा, कविता विचारों से नहीं शब्द से बनती है” ।
हाँ कविता के इस सत्य के प्रति अज्ञेय हमेशा सजग और सचेत रहे, इसलिए उन्होंने कविता की भाषा, अलंकार, रूप- विचार तत्व और प्रतीक चिह्न आदि को परिवर्तन के लिए आह्वान करके कलगी बाजरे की नमक कविता में स्पष्ट लिखा था –
“ नहीं कारण की मेरा ह्रदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है ।
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं ।”
अज्ञेय पश्चिमी भावबोध के प्रति मोहित होते हुए भी अपनी जातीय परम्परा और भाषा के प्रति गहन स्तर पर संवेदनशील रहे । अज्ञेय ने नेहरु युग की भव्य उदारता, घोर आश्चर्यजनक अमौलिकता, एक असंतुष्ट, संदिग्ध किस्म का संतुलन- संवेदनशील, किन्तु सीमित हार्मनी के आदेश से मुग्ध – इसलिए हिन्दुस्तानी अनुभव के उन सब विकारों, विसंगतियों, विडम्बनाओं से विमुख –जो उनके सामंजस्य, सौन्दर्यबोध को भंग करता हो; आत्मलिप्त और बाहरी उदारता के बावजूद भीतर से कहीं बहुत भीरु, संकीर्ण, उदासीन ; अतः अज्ञेय के कर्म और चिन्तन में नेहरु-युग का उदात्त सौन्दर्य और जड़गत सीमाएं दोनों में देखी जा सकती हैं ।
अतः अज्ञेय के इन तीनों ग्रन्थों में (भवंती, अंतरा, शाश्वती) विगत जीवन के चिंतन-संसार से कुछ अंश, विचार खंड, सूक्तियों, यात्राओं के इम्प्रेशंस जमा किये हैं । जिसमें उन्होंने चिंतन यात्रा की अर्बाध, समय, क्रोनोलॉजी का कोई हवाला नहीं दिया । यह भ५ हमें कोई पता नहीं चलता कि कौन सी पुस्तक, उपन्यास या कवितायेँ लिखते हुए या किन राजनैतिक, सामाजिक घटनाओं के संदर्भ में उनके ये विचार या प्रतिक्रियाएं एक “शाश्वत अर्थ” के अलावा एक निजी, तात्कालिक दबाव प्रस्तुत करती है ।
इन पुस्तकों में फैला हुआ चिंतन प्रदेश मिलता है, यात्रा का उतार-चढ़ाव नहीं, मिल के पत्थर नहीं जिन पर कुछ क्षण बैठ कर हम लेखक के पाँव चिह्न आंक सकें, कहाँ वह ठिठका था, कौन सी राह चुनी थी, किस पगडण्डी पर कुछ दूर चलकर वापस मुड गया था, यह भी पता नहीं चलता, तथा किस ठोकर आह और दर्द इन पन्नों पर अंकित है ।
उद्देश्य यही है कि उनके पाठक उस पुरे परिदृश्य, उस सागर पथ का एक बार अवलोकन कर के उसे पहचान लें जिससे कवि स्वयं गुजरता आया है ।
अपने दूसरे संकलन “अंतरा” के निवेदन में अज्ञेय लिखते : “इन दो संचयनी में इस बात का काफी संकेत मिल जायेगा कि पिछले दस-बारह वर्षों में कौन से, कैसे साहित्यिक या साहित्य संपृक्त प्रश्न मुझे उन्मथित करते रहे हैं अथवा चुनौती देते रहे हैं । केवल समकालीन घटना पटल को देखने वाले व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसका अपना जीवन और कर्म उन –प्रश्नों के साथ बंधा है । इसका भी कुछ संकेत पाठक को मिला होगा कि उन प्रश्नों से जूझता हुआ मैं किधर जा रहा हूँ, उस संघर्ष में कौन से प्रमाण मेरे संबल हैं । कौन सी युक्तियाँ मेरे साधन, कौन से लक्ष्य मेरी प्रेरणा ।”
अतः इस व्यक्तव्य से स्पष्ट है कि भवंती, अंतरा और शाश्वती अन्तःप्रक्रियाएं हैं जो हिंदी गद्य में सर्वथा नवीन विधा की रचना है । “ये न तो जीवनी है, न तो आत्मकथा, न यात्रावृत्त, न संस्मरण, न रेखाचित्र, न रिपोर्ताज । यह तो डायरी के निकट है किन्तु सम्पूर्ण रूप से डायरी भी नहीं कहा जा सकता । अतः इसे स्वतंत्र रूप से अन्तःप्रक्रिया ही कहना सर्वथा सार्थक प्रतीत होगा ।
अज्ञेय की दृष्टि में इन पुस्तकों में व्यक्त- विचारों में लीरिक तत्व और वैचारिकता के साथ-साथ रचयिता का व्यक्तित्व्भिव्यन्जना निबन्ध के तत्वों से जुड़ा प्रतीत होता है । इन अन्तःप्रक्रियाओं का सम्बन्ध अज्ञेय की रचना यात्रा से सीधे जुड़ा हुआ है, इस प्रसंग में अज्ञेय लिखते हैं – जिन छोटे-छोटे प्रकरणों को जोड़ कर ये पुस्तक बनी है, वे प्रायः सभी छोटे-छोटे युद्धों के इतिहास हैं, प्रत्येक के पीछे एक यन्त्रणा भरी प्रक्रिया रही है इतना ही है कि समूची पुस्तक में एक ही रचना की प्रक्रिया में पायी हुई यंत्रणा से मिलने वाली संहति नहीं है, वह फुटकर प्रक्रियाओं का फलन है, जिसके पीछे उतनी ही फुटकर, विविध और वैचित्रमयी यंत्रणा रही है । संहति उसमें है तो रचना के माध्यम से नहीं रचयिता के जीवनानुभव के माध्यम से ।”
वस्तुतः अज्ञेय एक चिंतक हैं –अतः वे अपनी रचना यात्रा में जीवन, समाज, साहित्य, भाषा, आदि के बारे में सतत चिन्तन से हिंदी के भंडार की श्रीवृद्धि की है । ईश्वर, काल, धर्म, नैतिकता, यथार्थ, छंद आदि अनेक विषयों के सम्बन्ध में उनका गंभीर चिंतन इन अन्तःप्रक्रियाओं में संकलित है ।
इसके बाद भवंती के निवेदन में अज्ञेय ने उल्लेख किया – “अंतिम कुछ नहीं है, सहयात्री, सिवा इस मांग के कुछ मूल्य हो, जिनकी ओर बढ़ने जाया जा सके और सिवा उधर के यात्रा के आनंद के ।” इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए आप पुनः भवंती की एक प्रक्रिया में लिखते हैं –
“ अगर मेरे लिए मृत्यु नहीं तो फिर जीवन भी मेरे लिए नहीं है । मैं आज जीता हूँ यह उतनी ही संयोगिक बात है जितनी यह कि कल मैं मर जाऊंगा । मुझे दोनों ही चिंता छोड़ के कुछ और से उलझना चाहिए, किसी दूसरी चीज़ को अपना लक्ष्य, साध्य और शोध बनाना चाहिए । वह “और” क्या हो सकता है ? मूल्य ! लेकिन कौन सा मूल्य ? लोग कहते हैं जीवन मूल्य ।
किन्तु इस संदर्भ में अज्ञेय की टिपण्णी यहाँ द्रष्टव्य है –“ भोगने वाला व्यक्ति और मनीषा के अलगाव की पुरानी चर्चा में जब कहा गया था कि दोनों के बीच एक दूरी है और जितना बड़ा कलाकार होगा उतनी अधिक दूरी होगी ।
अज्ञेय हमेशा अपनी लेखन में परम्परा और भारतीय दृष्टि को पहचानने और स्वीकार करने पर जोर देते हैं । सब कुछ देखने और परिवर्तन के बाद यह कहना उचित जान पड़ता है कि इन अन्तःप्रक्रियाओं में साहित्य में साहित्य और जीवन के बुनियादी प्रश्नों पर अज्ञेय का मौलिक चिंतन व्यक्त हुआ है । हिंदी में बिना सोचे-समझे शब्दों का प्रयोग हो रहा है । अज्ञेय ने आज के साहित्य में बार-बार प्रयुक्त होने वाले ऐसे कई शब्दों को अर्थहीन और ऊर्जागुणशून्य मानकर इनके स्थान पर नये शब्दों के चयन को स्वीकारा है ।
इसके बाद “शाश्वती” में यथार्थ के सम्बन्ध में अज्ञेय अपना विचार व्यक्त किया है, जिनमे विचारों में “विशदता और मौलिकता” दोनों को देखा जाता है ।