प्रो. विवेक कुमार मिश्र
प्रोफेसर – हिंदी विभाग
राजकीय कला महाविद्यालय कोटा
आओ बैठें
इसी ढाल की हरी घास पर।
माली-चौकीदारों का यह समय नहीं है,
और घास तो अधुनातन मानव-मन की भावना की तरह
सदा बिछी है-हरी, न्यौती, कोई आ कर रौंदे।
आओ, बैठो
तनिक और सट कर, कि हमारे बीच स्नेह-भर का व्यवधान रहे, बस,
नहीं दरारें सभ्य शिष्ट जीवन की।
चाहे बोलो, चाहे धीरे-धीरे बोलो, स्वगत गुनगुनाओ,
चाहे चुप रह जाओ-
हो प्रकृतस्थ : तनो मत कटी-छँटी उस बाड़ सरीखी,
नमो, खुल खिलो, सहज मिलो
अन्त:स्मित, अन्त:संयत हरी घास-सी।
क्षण-भर भुला सकें हम
नगरी की बेचैन बुदकती गड्ड-मड्ड अकुलाहट-
और न मानें उसे पलायन;
क्षण-भर देख सकें आकाश, धरा, दूर्वा, मेघाली,
पौधे, लता दोलती, फूल, झरे पत्ते, तितली-भुनगे,
फुनगी पर पूँछ उठा कर इतराती छोटी-सी चिड़िया-
और न सहसा चोर कह उठे मन में-
प्रकृतिवाद है स्खलन
क्योंकि युग जनवादी है।
क्षण-भर हम न रहें रह कर भी :
सुनें गूँज भीतर के सूने सन्नाटे में किसी दूर सागर की लोल लहर की
जिस की छाती की हम दोनों छोटी-सी सिहरन हैं-
जैसे सीपी सदा सुना करती है।
क्षण-भर लय हों-मैं भी, तुम भी,
और न सिमटें सोच कि हम ने
अपने से भी बड़ा किसी भी अपर को क्यों माना!
क्षण-भर अनायास हम याद करें :
तिरती नाव नदी में,
धूल-भरे पथ पर असाढ़ की भभक, झील में साथ तैरना,
हँसी अकारण खड़े महा वट की छाया में,
वदन घाम से लाल, स्वेद से जमी अलक-लट,
चीड़ों का वन, साथ-साथ दुलकी चलते दो घोड़े,
गीली हवा नदी की, फूले नथुने, भर्रायी सीटी स्टीमर की,
खँडहर, ग्रथित अँगुलियाँ, बाँसे का मधु,
डाकिये के पैरों की चाप,
अधजानी बबूल की धूल मिली-सी गन्ध,
झरा रेशम शिरीष का, कविता के पद,
मसजिद के गुम्बद के पीछे सूर्य डूबता धीरे-धीरे,
झरने के चमकीले पत्थर, मोर-मोरनी, घुँघरू,
सन्थाली झूमुर का लम्बा कसक-भरा आलाप,
रेल का आह की तरह धीरे-धीरे खिंचना, लहरें
आँधी-पानी,
नदी किनारे की रेती पर बित्ते-भर की छाँह झाड़ की
अंगुल-अंगुल नाप-नाप कर तोड़े तिनकों का समूह,
लू,
मौन।
याद कर सकें अनायास : और न मानें
हम अतीत के शरणार्थी हैं;
स्मरण हमारा-जीवन के अनुभव का प्रत्यवलोकन-
हमें न हीन बनावे प्रत्यभिमुख होने के पाप-बोध से।
आओ बैठो : क्षण-भर :
यह क्षण हमें मिला है नहीं नगर-सेठों की फैया जी से।
हमें मिला है यह अपने जीवन की निधि से ब्याज सरीखा।
आओ बैठो : क्षण-भर तुम्हें निहारूँ
अपनी जानी एक-एक रेखा पहचानूँ
चेहरे की, आँखों की-अन्तर्मन की
और-हमारी साझे की अनगिन स्मृतियों की :
तुम्हें निहारूँ,
झिझक न हो कि निरखना दबी वासना की विकृति है!
धीरे-धीरे
धुँधले में चेहरे की रेखाएँ मिट जाएँ-
केवल नेत्र जगें : उतनी ही धीरे
हरी घास की पत्ती-पत्ती भी मिट जावे लिपट झाड़ियों के पैरों में
और झाड़ियाँ भी घुल जावें क्षिति-रेखा के मसृण ध्वान्त में;
केवल बना रहे विस्तार-हमारा बोध
मुक्ति का,
सीमाहीन खुलेपन का ही।
चलो, उठें अब,
अब तक हम थे बन्धु सैर को आये-
(देखे हैं क्या कभी घास पर लोट-पोट होते सतभैये शोर मचाते?)
और रहे बैठे तो लोग कहेंगे
धुँधले में दुबके प्रेमी बैठे हैं।
-वह हम हों भी तो यह हरी घास ही जाने :
(जिस के खुले निमन्त्रण के बल जग ने सदा उसे रौंदा है
और वह नहीं बोली),
नहीं सुनें हम वह नगरी के नागरिकों से
जिन की भाषा में अतिशय चिकनाई है साबुन की
किन्तु नहीं है करुणा।
उठो, चलें, प्रिय!
– अज्ञेय
‘हरी घास पर क्षण भर‘ – अज्ञेय की कविता , आधुनिकता, एकांत और जीवन की उम्मीद का एक टुकड़ा रच देती ۔۔۔मन पर एक उम्मीद का हरापन, प्रकृति के साथ होने की अनुभूति, और इन सबके साथ यह मानवीयपन भी कि हम अकेले नहीं हैं, हमारे साथ हमारी प्रकृति है ….उसे पता है कि हां हम हैं । यह अस्तित्व की घोषणा ही जीवन है …अभिव्यक्ति है और मानवीयपन है । हमारे होने में सब होते …इस तरह प्रकृति होती कि उसके होने मात्र से पृथ्वी पर किसी की चिंता नहीं रहती । वहीं हमारा पोषण, जीवन और रक्षण भी करती । कविता के साथ जीवन की सहज और सजग अनुभूति का क्रम बना रहे यह प्रकृति के लिए और जीवन के लिए काम्य होता है । अपने आस – पास के परिसर में जीवन का यह हरा टुकड़ा एक तरह से जीने की चाह को निर्मित करता है, समय के बदले रंग में जीवन का अहसास बराबर बना रहे इस बात की अनुभूति ही अपनी साधारणता में हरी घास करा जाती …धरती पर बिछी घास एक तरह से देखा जायें तो जीवन का प्रतीक है । यहां जो कुछ है वह जीवन का सहज संकेत है …इसमें हरापन भी है और जीवन की उमंग का लाल ललछौंह रंग जो पहली पत्ती के क्रम में खिलता है । यहां नयापन है और ललछौंह लाल रंग का संसार ही रचता है जीवन और संस्कृति । यहां बैठकर फुर्सत से जीवन संसार पर विचार मग्न लोगबाग मिल जायेंगे । संसार को जानने के लिए संस्कृति से संवाद ही एक तरीका है जहां आप संवेदना के तंतु से एक दूसरे से जुड़ जाते हैं । अज्ञेय की कविता, देखा जाय तो आधुनिकता का अहसास, जीवन को जानने के क्रम में मानवीयपन की साझेदारी और प्रकृति का साथ ….इन सबके साथ संवाद की भूमि ही कविता के क्रम में जीवन और संसार रचती है …जिस पर हमें गौर करने की जरुरत है । एक अजनबीपन से भरे शहर के पार्क में ‘हरी घास पर क्षण भर’ बैठे होने में जो ठहराव, जो राग संसार और एक दूसरे को जानने की जो उत्कंठा है उसमें केवल प्रेमी जोड़े ही नहीं हैं, इनके साथ वह प्रकृति का हिस्सा हरी घास और उस हरी घास के भीतर यह एहसास बना रहना कि हां ये मेरे साथ ही हैं और ये बात हरी घास अपने भीतर दबा कर रखती है । घास में जो मुलायमियत है जो स्वीकार करने का भाव है वहीं अभाव के बीच भी जीवन के लिए बड़ा भाव रचता है । यहां वह कालखंड भी महत्वपूर्ण हो जाता है जिसमें यह सब हो रहा है । कैसे एक क्षण पूरे जीवन को परिभाषित करता है यह कहीं और नहीं अज्ञेय की रचना प्रक्रिया के प्रकाश में जाना जा सकता है । अज्ञेय के यहां, संकेत, क्षण, मानवीय गरिमा और मूल्य संरचना को एक व्यक्तित्व के रूप में देखा गया है । यहां जो कुछ संसार रचनागत रूप में संभव होता है वह यूं ही नहीं हो जाता है उसे मानवीय जीवन की आंच में तपाकर जीवन की भट्ठी से जैसे निकाला गया हों एक तरह से यह भी कह सकते हैं कि उनके यहां भाषा में व्यक्तित्व को उपलब्धि के रूप में कमाया गया है । यह किसी एक कविता या एक कहानी के आधार पर बनी राय नहीं है बल्कि अज्ञेय को पढ़ने के क्रम में बराबर से यह महसूस होता रहा है कि उनके यहां यदि कुछ छूट रहा है तो वह यही है कि साधारण पाठक उनकी भाषिक सृजनशीलता को न समझ पाने का कारण बन सामने आता रहता है । यह भी कहना उचित लगता है कि अज्ञेय को समझने के लिए एक अतिरिक्त सजगता की जरूरत होती है वहीं आधुनिकता के प्रकाश में मानवीय व्यक्तित्व व व्यवहार को रचने की उनकी कोशिश ही जीवन को व्यापक संदर्भ से जोड़ते हुए मनुष्य की सर्जनात्मक सत्ता को प्रकाशित करती है । आज जैसे जैसे मूल प्रकृति हमसे दूर होती गई या यों ही हम सबने मूल प्रकृति से अपने को दूर कर लिया तो प्रेम की सहज सर्जनात्मकता भी दूर होती गई । शहरीपन के रास्ते प्रकृति के भीतर होने की क्षणिक अनुभूति के साथ हरी घास अपने होने का अहसास खोजती है । आज पार्क और सार्वजनिक जगहें जो शहर और प्रकृति के हृदय स्थल कहे जा सकते कम होते जा रहे हैं , ऐसे में ‘हरी घास पर क्षण‘ भर का अहसास भी कम होता जा रहा है पर यह हरी घास जीवन के लिए , सुकून के लिए जरूरी है । शहरीकरण के बीच हरितिमा की इबारत का होना भी हवा , पानी , धरती और आकाश की तरह जरूरी है । आज वह हरापन भी कितना बना और बचा है इसे कंक्रीट के उगते जंगल आँखों के आगे उपस्थित कर ही रहे हैं । जहाँ भी हरापन थोड़ा सा बचा है , बना है उसे बचाने के लिए प्रार्थना की जरूरत है । हरापन जो आँखों को सुकून पहुँचाता है वह घर के आस – पास बना रहे तो जीने के प्रति चाह का मार्ग भी प्रशस्त होता है । यह हरितिमा और मिट्टी जीने की संभावना ही हमारे बीच उगाती है , घर की छोटी सी बगिया जहाँ चम्पा , गुलाब , कनेर ,लिली , गुलदाउदी , चाँदनी , गुड़हल , और लताए जहाँ हर क्षण अपने होने और नयेपन का अहसास कराती हैं , वहीं जीवन और प्रकृति को समझने का अवसर भी प्रदान करती हैं ।
छोटे – छोटे पौधों की झुरमुट में गौरय्या , नीले पंख वाली छोटी सी चिड़िया , बुलबुल , भौरे , तितली सब आते हैं और सबके लिए यहां कुछ न कुछ होता …ताजगी से भरे और खिले फूलों के बीच तितली का होना …एक जीवन अभिव्यक्ति है जीवन की रंग की और पंख की । ‘हरी घास पर क्षण भर’ जीवन को , रचनात्मकता को और मानवीय भाव को लेकर हमारे बीच आता है। हरी घास पर क्षण भर’होते हुए हम सब जीवन की इबारत को ही लिखते हैं। हमारे होने के जो अस्तित्व है , जो जीवन संदर्भ है , जो बात है वह सब यहां और इस क्षण में अपने होने की उपस्थिति को अनुभव करना ही संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है ।
इनके बीच होते हुए लगातार एक नयापन का , रंग के बदलते जाने का अहसास होता है । एक पत्ती जो शुरु में ललछौंह रंग लिए होती वही धीरे – धीरे धानीपन से हरापन लिए आ जाती है । समय के बीतते जाने का अहसास कराती है । वहीं अपने होने और धीरे – धीरे अपनी जगह छोड़ कर नयेपन के लिए नये के लिए अपनी जगहे भी छोड़ जाती हैं । इस तरह पेड़ पौधों के साथ आप जीवन संसार के क्रम को ही समझने का उद्योग करते है । यह प्रकृति हमारे लिए हवा पानी का जहां स्रोत है वहीं प्राणवायु के साथ शुद्धता और मागंल्य का परिवेश भी बनाने का काम करती है । इनके बीच होना ही जीवन का सबसे बड़ा संकेत है । शहर में होते हुए भी मिट्टी का , कहे माटी का अहसास आदमी लिए रहे , अपने साथ अपने पुरुखे की छवि लिए रहे तो जीवन की संभावना में आधुनिकता , तकनीक और मशीन सबके साथ सुंदर संयोजन करते हुए भी चला जा सकता है । फूल पत्तियां और हरापन अस्तित्व की चमक लिए सामने आते हैं । यह अस्तित्व ही जीवन के मूल में है , इसी के साथ अपने होने की अभिव्यक्ति इनके बीच बने रहने में होती है । जीवन की अभिव्यक्ति हो तो सही मायने में हम सब जिन्दगी को जीते हैं और उसे अपने भीतर महसूस करते हैं । प्रकृति के बीच होने से उपस्थिति का अहसास बना रहता ? इस बात की चिंता भी वहीं करेंगे जो पंचतत्व को जीवन का श्रेय और प्रेय समझते हैं । जिन्हें मिट्टी की सुगंध का अहसास ही नहीं उनके बारे में तो क्या कहा जाये । ये आलसी लोग कुछ इस तरह के होते कि दीवार पर रंग रोगन कराने की जगह पत्थर टाइल्स लगा लें । हरेपन की जगह ये हरी घास की चटाई लगा कर अपने आधुनिक होने और हर तरह से झंझट मुक्त होकर जीवन बस जी रहे हैं । कहते हुए लोग मिल जाते की हमें तो किसी तरह का झंझट नहीं पालना …कौन देखभाल करें …एक अनावश्यक बोझ है इसलिए सब पक्का करा लिया …घर के आस – पास मिट्टी नहीं तो कहां से माटी का अहसास होगा , कहां से फूटेगी संवेदना की कोपल ? फिर जब पृथ्वी तपती है गर्मी के दिनों में तो यहीं सबसे ज्यादा पेड़ पौधों को लगाये जाने की बात करते मिल जायेंगे ….पर बात करने भर से कुछ नहीं होता …जब तक आप आगे बढ़कर अपने हिस्से की हरित पट्टी नहीं लगाते या हरितिमा के लिए जगह नहीं छोड़ते तब तक कुछ भी नहीं हो सकता । इस बात का उदाहरण इससे भी मिलता है कि पेड़ पौधे की चाह में प्लास्टिक के गमले में प्लास्टिक के फूल पत्ती सजावटी तौर पर रख लेते हैं , यह केवल देखने दिखाने तक ही होता पर इसमें जीवन का वह स्पंदन कहां जो हरी घास फूल पत्ती और हरितिमा में हैं । शहरीकरण, अजनबी पन के बीच राग का संसार हरी घास पर क्षण भर कविता में बहुत गहराई के साथ पढ़ा जा सकता है । यहां घांस को मानवीय भाव के साथ, राग और प्रेम के संसार में व्यक्तित्व की खोज ही अज्ञेय की रचनाधर्मिता के मूल में है । अज्ञेय को पढ़ने का अर्थ है सर्जनात्मकता के बीच मनुष्य को समझने का अर्थ पाना है । शहरीकरण के बीच थोड़ा मिट्टीपन , थोड़ा कच्चापन और थोड़ा सा हरापन बना रहे तो जीवन को सुकून मिल जाता ।आखिर हमारे सारे कर्म उद्योग जीवन को अच्छे से जीने के लिए ही है । कर्म की मिट्टी ही हमारा निर्माण करती है । इस समय हरीतिमा की चिंता करना उसके बीच होना और इस उपस्थिति के अहसास को बनाये रखना ही जीवन का पर्याय है । जीवन स्रोत के नाभिक को हरी घास पर क्षण भर कविता में जीया गया है और मानवीय व्यवहार व व्यक्तित्व को रचने की एक बड़ी चुनौती के रूप में इस कविता को पढ़ा जाना चाहिए।