विमलेश कुमार मिश्र
आचार्य,हिन्दी विभाग
दी.द.उ. गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर
अज्ञेय तो अनेक हैं, मैं किस अज्ञेय की बात करूँ। क्या हिन्दी की कोई ऐसी परम्परा है, जिससे अज्ञेय जुड़ते हैं। हिन्दी में दो ऐसे कवि हैं जिनसे अज्ञेय अपने को प्रभावित मानते हैं, वे कवि हैं- मैथिलीशरण गुप्त और अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ । अज्ञेय मनसा जुड़े थे- मैथिलीशरण गुप्त से। अज्ञेय के भीतर कितने अज्ञेय छिपे हैं, उस पर हमें विचार करना चाहिए।
अज्ञेय बहुत बड़े अनुवादक थे। उन्होंने कविता और गद्य दोनों क्षेत्रों में अनूठा अनुवाद किया है। ‘ब्रेख्त’ और ‘रेलके का अनुवाद अज्ञेय ने किया है, जो विचारधारा के स्तर पर उनसे भिन्न थे। ब्रेख्त का अनुवाद करते हुए अज्ञेय ने भाषा को गढ़ा। अपने दुर्दम रचनाशीलता के कारण अज्ञेय आकर्षण के केन्द्र में रहे। अज्ञेय गहरे स्तर पर भावुक थे। इस इक्कीसवीं सदी में अज्ञेय के जीवन के विविध आयामों की चर्चा की जानी चाहिए और उन्हें नये सिरे से पहचानने का अब समय आ गया है।
हमने अपने समय में जितनी अवज्ञा अज्ञेय की, की है उतना अन्य भारतीय भाषाओं के किसी भी कवि की नहीं हुई है। अज्ञेय पर समय-समय पर तमाम आलोचकों द्वारा विविध प्रकार के आरोप-प्रत्यारोप लगाये गये लेकिन अज्ञेय द्वारा लिखित साहित्य को गहराई से अध्ययन करने के उपरान्त हमें लगा कि उनके साहित्य का सही मूल्यांकन नहीं किया गया।
वस्तुतः अज्ञेय एक प्रयोगधर्मी रचनाकार हैं, अज्ञेय के प्रयोगधर्मी रूप को देखकर उनको हिन्दी का रवीन्द्रनाथ टैगोर कहा जा सकता है, कविता को कवित्व से जोड़ने का प्रयास अज्ञेय ने किया साथ ही हिन्दी उपन्यास को पहली बार वैचारिकी से जोड़ा, वैज्ञानिक चेतना और अपनी परम्परा से लैस होकर अज्ञेय साहित्य-सृजन में रत रहे। स्वाधीनता, मूल्यबोध और मानव विवेक अज्ञेय के साहित्य चिन्तन के मूलाधार हैं। अज्ञेय में भारतेन्दु की तरह स्वाधीनता की तड़प, जयशंकर प्रसाद की बहुमुखी प्रतिभा और निराला की विद्रोही चेतना एक साथ दिखायी देती है। मनुष्य और बुद्धि की बात अज्ञेय बार-बार अपने साहित्य में करते हैं इसका अनूठा उदाहरण ‘शेखर’ में परिलक्षित होता है।
अज्ञेय का सारा चिन्तन हिन्दी साहित्य के निर्माण में सहायक सिद्ध होता है। हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में सबसे अधिक शब्द देने वाले दो लेखक हैं- हजारी प्रसाद द्विवेदी और अज्ञेय। अज्ञेय जैसे पुल देने वाले रचनाकार का सही मूल्यांकन करने का प्रयास हमें इस शतवार्षिकी में करना चाहिए। अज्ञेय 1924 से 1986 तक लगातार साहित्य सृजन करते रहे। अज्ञेय को विविध आयामी रचनाकर्म और विविध आयामी जीवन मिला था। अज्ञेय पर सी०आई०ए० के एजेन्ट से लेकर विहारी के अवतार तक का आरोप लगा लेकिन अब निविर्वाद रूप से अज्ञेय को लोग स्वीकार करने लगे हैं। अज्ञेय एक दुनिया इस तरह का बनाने का प्रयास कर रहे थे जिस पर किसी का दबाव काम नहीं करता इसीलिए प्रेम, विवाह और काम इन तीनों को केद्रित रखा गया है- ‘नदी के द्वीप’ में। ‘नदी के द्वीप’ में एक ऐसे समाज की परिकल्पना की गयी है जहाँ कोई सामाजिक बंधन काम नहीं करता है। ‘शेखर’ और ‘भुवन’ एक ऐसे स्त्री से विवाह करना चाहते हैं जो विवाहित है ऐसा ये लोग इसलिए करना चाहते हैं कि दोनों पात्र विवाह का निषेध करते हैं। पुरूष – निर्मित नारियाँ होने के कारण ही ‘रेखा’ और ‘गौरा’ भुवन के पीछे-पीछे अपना जीवन बर्बाद कर देती हैं। ‘नदी के द्वीप’ में अज्ञेय एक पात्र को इकहरे अंदाज में प्रस्तुत करते हैं।
अज्ञेय का तीसरा उपन्यास मृत्यु से साक्षात्कार को उद्घाटित करता है। उन्होंने अपने तीसरे उपन्यास में भारतीय और पाश्चात्य संस्कृतियों का संगमन किया है। ‘सेलमा’ द्वारा निश्चित मृत्यु को देखते हुए क्रिसमस मनाना इस बात का द्योतक है। अज्ञेय में पूर्वी और पश्चिमी प्रवृत्तियाँ सहजात हैं। अज्ञेय का सम्पूर्ण दर्शन अस्तित्ववादी है।
अज्ञेय कहीं भी साधारण नहीं हैं। कोई भी रचयिता तभी सार्थक होता है जब वह साधारण नहीं रह जाता। अज्ञेय साधारण पाठक के लिए न कवि हैं न साहित्यकार । अज्ञेय को जानने के लिए एक विशेष किस्म की योग्यता अनिवार्यतः होनी चाहिए। अज्ञेय का व्यक्तित्व बहु आयामी है। अज्ञेय 84 चीजों को बताते हुए कहते हैं कि मैं इनमें से किसी एक को आधार बनाकर अपनी आजीविका चला सकता था लेकिन साहित्य को प्रथम दृष्टया साधन बनाया। हाथ के श्रम पर अज्ञेय का सबसे बड़ा विश्वास था। ‘गीत गोविन्द’ और ‘कामशास्त्र’ की किताब पढ़कर अज्ञेय को ‘प्रेम’, ‘विवाह’ और ‘काम’ के प्रति भाव पैदा होता है। शेखर एक परम विद्रोही पात्र है, शेखर के कुछ चिन्तन भगत सिंह की याद दिलाते हैं। ‘शेखर : एक जीवनी’ का शेखर हमेशा अतृप्त ही रहता है। अतृप्त शेखर, भुवन के रूप में ‘नदी के द्वीप’ में पूर्ण होता है।
अज्ञेय के समर्थकों ने स्वयं अज्ञेय के समक्ष समस्या उत्पन्न किया। अधिमूल्यन व अवमूल्यन के कारण अज्ञेय का सही चेहरा सामने नहीं आ पाया। अज्ञेय, प्रसाद की परम्परा की अगली कड़ी हैं। कामायनी का मनु, और ‘शेखर एक जीवनी’ का ‘शेखर’ एक भाव भूमि पर दिखते हैं। नयी कविता के दौर में अज्ञेय ऐसे हैं जो शब्दों के कवि हैं और मुक्तिबोध वाक्यों के कवि। शब्द के प्रति सचेतनता और नये शब्दों के तलाशने की प्रवृत्ति से अज्ञेय पंत के नजदीक होते हैं। अज्ञेय Political Poet नहीं थे। उन्होंने अकेलेपन को पार करने के लिए सत्य का रास्ता अपनाया। प्रेम का इतना बड़ा विद्रोही कवि 20वीं सदी में पैदा ही नहीं हुआ है। प्रेम के विद्रोह की कविता ‘हरी घास पर क्षण भर’ है। विद्रोह के परत के धरातल पर अज्ञेय की कविताओं का मूल्यांकन करना चाहिए। अज्ञेय की कविताओं पर विचार करते हुए प्रो० रेवती रमण ने कहा है कि अज्ञेय का कृत्तित्व असाध्य वीणा की तरह पड़ा हुआ है लेकिन मैं प्रियंवद नहीं हूँ। अज्ञेय उस दौर के कवि हैं जो यथार्थ को महसूस करते हैं। अज्ञेय का साहित्य परम्परा के अर्न्तर्द्वन्द्वों के तलाश का साहित्य है और उनकी अनुभूतियाँ नये मनुष्य की अनुभूतियाँ हैं। अज्ञेय तोड़-फोड़ के साथ अंतःसलीला की भाँति विश्व संयोजन करने वाले कवि हैं। अज्ञेय के काव्य-संसार में सत्य का शोधन, विकल्प की तलाश और विश्व कविता में हिन्दी की प्रथम नागरिकता स्थापित की गयी है।
बीसवीं सदी के चौथे दशक में अपने लिए राह का अन्वेषण करती है-अज्ञेय की कविता। अज्ञेय अपने पुराने पीढ़ी से टकराते हुए चलते हैं। महान् प्रतिभा अपने लिए खुद सीढ़ी बनाती है और अपने साथ उसको (सीढ़ी) समाप्त कर देती है-अज्ञेय स्वीकृत मार्ग का विरोध करते हैं और नयी अभिव्यंजना के प्रवर्तक के रूप में आते हैं। कविता में प्रकृति के लय का सौन्दर्य-व्यंजन के माध्यम से अज्ञेय की कविता में स्वर का सौन्दर्य है। अज्ञेय नयी संवेदनशीलता और आधुनिकता के प्रवर्तक हैं। अज्ञेय की कविता में आधुनिकता लय में परिवर्तन के साथ आती है। वस्तुजगत, भावजगत, लय और छन्द की मर्यादा परिवर्तित होने के कारण अज्ञेय की ‘नाँच’ जैसी कविता नयी भावभूमि पर लिखी गयी है। अनुभूमि की बुनावट ही अज्ञेय को नये कवि के रूप में प्रतिष्ठित करती है। कविता सम्प्रेषण की चीज होती है।
अज्ञेय साहित्य के मूल्यबोधी, मूल्यजीवनी और मूल्य निर्माण-चेतना का सृजन करने वाले साहित्यकार हैं। अज्ञेय शब्द की मदारीगिरी में विश्वास नहीं करते बल्कि वे शब्द और भाषा का प्रयोग बड़ी सतर्कता के साथ करते हैं। अज्ञेय का निबन्ध-साहित्य विचार-प्रधान है उनके निबंधों में गहरा विमर्श है। इस तरह सही अर्थों में अज्ञेय शब्द-साधक थे, वे साधना और सृजन की प्रतिभा का मूल्यांकन करते हुए स्वयं निष्कर्ष निकालने वाले रचनाकार थे, उनका स्रष्टा रूप बराबर सक्रिय रहा। दुनिया का बहुविध ज्ञान अज्ञेय को था उनके निबंध प्रसंग-गर्भत्व से भरे पड़े हैं, लोककथा, लोकभाषा से लेकर दुनिया का विविध ज्ञान और अनुभव का संसार उनमें था। अज्ञेय में स्वीकार और अस्वीकार का जबर्दस्त साहस था। दरअसल अज्ञेय सम्पूर्ण स्वतन्त्रता की बात करने वाले साहित्यकार हैं। बिना स्वाधीन चेतना के कोई व्यक्ति स्वतंत्र नहीं हो सकता। अज्ञेय व्यक्ति, समाज व राष्ट्र को स्वाधीन-चेतना सम्पन्न बनाने के पक्षधर हें इसी कारण वे व्यक्ति, समाज, व्यवस्था, भाषा और शिक्षा पर अपने विचार प्रमुखता के साथ व्यक्त करते हैं। व्यक्ति की गरिमा और उसकी स्वायत्तता को उजागर करने के लिए अज्ञेय निरन्तर व्यग्र दिखते हैं।
अज्ञेय में वैविध्यता क्यों है? इस बात पर हमें विचार करना होगा। दरअसल अज्ञेय का लेखन स्वाधीन देश में एक नयी चेतना विकसित करने के लिए स्वाधीनता, विवेक, इतिहास की चेतना, परम्परा और रूढ़ि, संवेदना आदि की बात करता है। अज्ञेय भाषाई सतर्कता के साथ मनोलोक की चिन्ता करने वाले रचनाकार हैं। भाषाई चौकन्नापन जैसे अज्ञेय में है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। अज्ञेय की मान्यता है-उन्माद से बचने के लिए सृजन अनिवार्य है। सृजन करने वाले को सर्जन, भाषा और मनुष्य की चिन्ता निश्चित ही होती है, मनुष्य के भीतर चेतना पैदा करने वाली भाषा का प्रयोग अज्ञेय अपने निबंधों में करते हैं। लेखक अविच्छिन्न परम्परा का वाहक होता है इसलिए उसके सम्पूर्ण विवेक को एक साथ पढ़कर उसका मूल्यांकन करना चाहिए। अनुभूमि के साथ अद्वैत का भाव पैदा करने वाली चेतना अज्ञेय की थी। वे हमेशा दूसरे की चिन्ता करने वाला मनुष्य बनाना चाहते थे। वे अज्ञेय की दृष्टि में स्वाधीनता का गहरा सम्बंध भाषा से बनता है। भाषा और संस्कृति के रिश्ते पर भी अज्ञेय पैनी नजर रखते हैं। अज्ञेय भाषा के अवमूल्यन का इन्कार करते हैं उनका मानना है कि भाषा में अवमूल्यन नहीं होता बल्कि दूसरी जगहों पर किये गये अवमूल्यन ही उसके कारण हैं। अज्ञेय बहुत सारी चीजों को एक साथ समेट लेने वाले साहित्यकार थे, व्यक्तित्व के खोज के कवि तो हैं ही व्यक्तित्व के विलयन के कवि भी हैं। विडम्बना यह है कि अज्ञेय का कोई घर नहीं था अंततः उन्होंने पेड़ पर अपना घर बनाया। यह विपर्यय उनका एक गुण था। अज्ञेय परम्परा में रहते हुए भी परम्परा के बाहर के रचनाकार हैं।
यद्यपि के अज्ञेय के साहित्य को लेकर चर्चा-कुचर्चा होती रही है। उन पर तरह-तरह के आरोप लगते रहे हैं। समय-समय पर लगाये जा रहे आरोपों की चर्चा करना यहाँ अभीष्ट नहीं है। पूर्वग्रह मुक्त होकर अज्ञेय को जितना कुछ पढ़ने का अवसर मिला उस आधार पर मेरा मन्तव्य है कि अज्ञेय बीसवीं शताब्दी के ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने साहित्य जगत को नयी दिशा प्रदान की। अज्ञेय की सम्पादन कृति, भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है इस पूरे कार्य की अवहेलना केवल मार्क्सवादियों ने ही नहीं की है बल्कि उनके अपने लोगों ने भी की है। अज्ञेय के सामने स्वतन्त्रता काल की पत्रकारिता प्रतिमान के रूप में थी। ‘सरस्वती’ में एक भी राजनीतिक लेख नहीं छपा था। लेकिन अज्ञेय ने राजनीतिक लेख भी सैनिक’ में छापे थे। अज्ञेय ने विज्ञापन छपने के कारण इस्तीफा भी दे दिया था। वे साहित्य के बाद पत्रकारिता को दूसरी वरीयता देते थे। अज्ञेय के सम्पादन कृति पर उनके निकटस्थ लोगों ने कोई ध्यान नहीं दिया। अज्ञेय के साक्षात्कार कई पत्रिकाओं में छपे हैं लेकिन उनकी पत्रकारिता व कोई जिक्र किसी पत्रिका व पुस्तक में नहीं है। अज्ञेय में अजीब किस्म की निर्भीकता थी स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद यदि सम्पादकों की सूची बनायी जाएगी तो उसमें अज्ञेय पहले नम्बर पर आएगें।
कविता के क्षेत्र में अज्ञेय गुप्त जी को अपना गुरू मानते हैं लेकिन पत्रकारिता के क्षेत्र में उनका गुरू कौन था? यह बात स्पष्ट नहीं होती। सच बात यह है कि पत्रकारिता में अज्ञेय का गुरु कोई नहीं था। सीखने की प्रवृत्ति से ही व्यक्ति बहुत कुछ जान जाता है। अज्ञेय स्वीकार करते हैं- ‘विशाल भारत से मैंने बहुत कुछ सीखा। अज्ञेय क्यों पत्रकार बनना चाहते थे? पत्रकारिता में ऐसा क्या है जो अज्ञेय को प्रभावित करती है? इन्हीं सब बिन्दुओं को जानने और समझने के लिए पत्रकार के रूप में अज्ञेय को समझने का प्रयास किया गया है। कोई रचनाकार कैसे पत्रकार हो गया यह आज के समय में आजूबा लग सकता है, आश्चर्यचकित कर सकता है लेकिन वास्तविकता यह है कि स्वाधीनता आन्दोलन और उसके बहुत बाद तक अधिकांश साहित्यकार पत्रकारिता के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले थे। इसीलिए कहा गया है किं- प्रत्येक साहित्यकार अनिवार्यतः पत्रकार होता है और प्रत्येक पत्रकार अशंतः साहित्यकार। साहित्य और पत्रकारिता के उत्स के मूल में बेचैनी और करुणा होती है। अज्ञेय का स्पष्ट कथन है- “मैं ऊपर से आपको शांत दिखता हूँ भीतर से मैं बहुत बेचैन हूँ यह बेचैनी घटिया स्तर की भी हो सकती है लेकिन मेरी बेचैनी घटिया नहीं है। ऊर्जा को विविध क्षेत्रों में प्रयुक्त करने पर मुझे राहत मिलती है। पत्रकारिता के माध्यम से अज्ञेय स्वाधीन भारत में स्वाधीन चेतना को विकसित करना चाहते थे। अज्ञेय रचना को रचना के स्तर पर कसकर उसके तमाम विरोधों के बावजूद छापने के पक्षधर थे। यह सम्पादक की रचनाकार के लोकतन्त्र के साथ न्याय कला है।
अज्ञेय पश्चिम के प्रति न तो आसक्त थे न ही अनासक्त। अज्ञेय पश्चिम और पूरब दोनों के बीच की बात करते हैं। पूरब और पश्चिम के मध्य कुछ साझी समताएं और विषमताएं अज्ञेय अपने यात्रावृत्त में ढूंढते हैं। अज्ञेय का मानना है कि पेरिसवासियों के बावजूद पेरिस असंवेदनशील शहर है। पेरिस हृदयहीन शहर है। इसके पीछे पेरिस की यांत्रिकता है। यूरोप दौड़ रहा है और इस दौड़ में वह अनुभव कर रहा है कि थोड़ा और दौड़े तो कुछ और पा जाएंगे। यह सारी स्थिति आज भारत के बारे में भी कहा जा सकता है। आज हम अंधी दौड़ में शामिल हो रहे हैं। यांत्रिकता में फंसते हुए मनुष्य को अज्ञेय बचाना चाहते थे। अज्ञेय फासिज्म का विरोध करने वाले रचनाकार हैं। फासिज्म और तानाशाही का विरोध करते हुए अज्ञेय लाउरो की चर्चा करते हैं। मुक्तिदूत लाउरो पर अज्ञेय अपने को केन्द्रित करते हैं। अज्ञेय सेना में इसलिए गये कि वे इस माध्यम से फासिज्म और तानाशाही का विरोध करना चाह रहे थे। पश्चिम की इतिहास दृष्टि को लेकर अज्ञेय थोड़े चिन्तित थे उनका मानना है कि जिस चिन्तन को पश्चिम अपनी उपलब्धि मानता है वह भारतीय काल चिन्तक के सामने टीकता ही नहीं है। उनका मानना है कि भारतीय चिन्तन में वे सारे मूल्य, मानदण्ड, प्रतिमान और सरोकार पहले से ही विद्यमान हैं जो पश्चिम-चिन्तन में बाद में आये।