भाग-2
कहानीकार – नीरजा हेमेन्द्र
नीरजा हेमेन्द्र जी ख्यातिप्राप्त वरिष्ठ साहित्यकार हैं, आपके तीन उपन्यास “ललई भाई”, “अपने-अपने इन्द्रधनुष” और “उन्ही रास्तों से गुज़रते हुए” तथा सात कहानी संग्रह और चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं ।
आपको उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का विजयदेव नारायण साही पुरस्कार, शिंगलू स्मृति सम्मान, फणीश्वरनाथ रेणु स्मृति सम्मान, कमलेश्वर कथा सम्मान, लोकमत पुरस्कार, सेवक साहित्यश्री सम्मान, हाशिये की आवाज़ कथा सम्मान आदि प्राप्त हो चूका है ।
“जोड़-घटाव” कहानी रामचंद्र के जीवन पर आधारित शानदार कहानी है, इसका पहला भाग आपके समक्ष प्रस्तुत है :
प्रसन्न होती हुयी बिटिया चली गयी। रामचन्द्र बैठा सोचने लगा कि ऑनलाईन व्यवसाय भी खूब रहा। कई कम्पनी बाजार में भाँति-भाँति के ऑफर लेकर जनता में अपनी पैठ बना चुकी हैं। बिटिया बता रही थी कि हर नाप के सिले-सिलाए डिजायनर सूट, ब्लाउज, साड़ियाँ, बच्चों के कपड़े आदि बाजार में हैं। घरेलू उपयोग की अनेक चीजें जैसे टी0 वी0, फ्रीज, मिक्सी, घड़ियाँ आदि सब कुछ बाजार में हैं। त्योहार के अवसर पर सभी चीजों पर आकर्षक छूट भी है।
बिटिया यह भी बता रही थी कि उसके साथ की अधिकांश लड़कियाँ मोबाइल से ऑनलाईन कपड़े-लत्ते और फैशन की अन्य सभी चीजें खरीदती हैं। वे बाजार से बहुत कम खरीदारी करती है।…..रामचन्द्र सोच में पड़ गया कि क्या यही कारण है बाजार में बिक्री की गिरावट की?
त्योहार, पर्व मात्र ऑनलाईन शॉपिंग वालों के लिए ही तो नहीं है। बाजार में बैठकर दुकानदारी करने वालों के लिए भी तो है। तो ग्राहक उतनी संख्या में दुकान पर क्यों नही आ रहे हैं जितनी पहले आते थे? जब कि दीपावली समीप है। रामचन्द्र को इन प्रश्नों का उत्तर नही मिल रहा था। भोजन का समय हो गया थां। पत्नी ने आवाज़ दी।
रामचन्द्र उठ कर भोजन के लिए चल दिया।
“पापा, मैंने सलवार-सूट के लिए आर्डर कर दिया है। दो-तीन दिनों में कम्पनी का आदमी दरवाजे पर आ कर मेरा आर्डर दे जाएगा। सूट लेने के बाद मैं उसे पैसे दूँगी।” बेटी के चेहरे की प्रसन्नता रामचन्द्र से छिपी न थी।
“पापा, आप पैसे दे दीजिएगा सूट के लिए। मान लीजिए जिस समय वो व्यक्ति सामान ले कर आये और उस समय घर में न रहूँ तो मम्मी पैसे दे कर सामान ले लेंगी।” बिटिया ने रामचन्द्र से कुछ पैसे मांगते हुए कहा।
“ठीक है, और प्लाजो के लिए कितने पैसे दे दें?” रामचन्द्र ने पूछा। वह जानता है कि बिटिया ने कुर्ता के साथ प्लाजो भी आर्डर किया है।
“पापा, दोनों उतने पैसों में ही आ जाएंगे।” बिटिया ने कहा।
“अच्छा ?” कहते हुए रामचन्द्र ने जेब में हाथ डाला और बिटिया के हाथ पर उसके कपड़ों के पैसे रख दिये। खुश होती हुई बिटिया माँ के पास चली गयी।
“माँ, ये पैसे रखो। कम्पनी का आदमी आएगा तो उसे ये पैसे दे कर मेरा सूट ले लेना।” बिटिया माँ से कह रही थी।
“बिटिया, तुमने सूट ले लिया और तुम्हें कपड़ा, सिलाई या नाप पसन्द न आया तो भी तुम्हें वो कपड़ा पहनना ही पड़ेगा। दुकान तो है नहीं कि तुम अपनी पसन्द का कपड़ा ले सकती हो?” रामचन्द्र के मन में प्रश्न उठा और बिटिया से पूछ लिया। इस प्रश्न के पीछे कदाचित् रामचन्द्र के मन में दबी हुई यह इच्छा ही थी कि बिटिया और उसकी सभी सहेलियाँ दुकान से ही वस्त्र खरीदें।
“पापा, पसन्द न आने पर उसमें लौटाने का भी ऑप्शन है। कम्पनी का आदमी घर आकर कपड़े वापस ले भी जाएगा। पैसे मेरे एकाउण्ट में शीघ्र आ जाएंगे।” बिटिया ने एक और जानकारी से रामचन्द्र को अवगत् करा दिया।
अगले दिन रामचन्द्र अपने समय से दुकान पर गया। प्रतिदिन की भाँति दिन भर दो-चार ग्राहक आये गये। कुछ ने कपड़े खरीदे तो कुछ ने देखा और बिना खरीदे वापस चले गये। ग्राहकों की कम संख्या देखकर रामचन्द्र सोच रहा था कि दुकान पर पहले जैसी रौनक नही। मालिक अपने नियत समय पर दुकान पर आकर बैठ गये थे।
“मालिक, कुछ पैसे बढे नही हैं इस माह? ” दोपहर के भोजन के समय जब दुकान में ग्राहक नही थे, तब अवसर देख कर रामचन्द्र ने कहा।
“हाँ, नही हो पा रहा है। क्या करें? ” मालिक ने कहा।
“मालिक, महंगाई बहुत बढ़ गयी है। घर चलाना कठिन हो रहा है। कुछ बढ़ जाता तो?” सिर झुकाये रामचन्द्र ने कहा।
“तुम्हारी बात तो ठीक है रामचन्द्र। किन्तु ये बताओ कि कोरोना समय में कितने माह बन्द थी दुकान?” रामचन्द्र सिर झुकाये मालिक की बात सुन रहा था।
“कई महीनों बाद किसी प्रकार दुकान खुली भी तो कितने ग्राहक आते थे? बहुत दिनों तक तो दुकान खुलती थी और बोहनी हुए बिना बन्द हो जाती थी। और रामचन्द्र तुमने तो देखा था कि दुकान में नीचे की तह में रखे कपड़े खराब हो गये थे जिन्हें नष्ट करना पड़ा।
उस समय का टूटा बाजार, अब दो वर्ष होने को आ रहे हैं, अभी तक सम्हल नही पाया है।” मालिक की बात रामचन्द्र ध्यान से सुन रहा था। उसने मन ही मन विचार किया कि मालिक की बातों में सच्चाई है। वह कुछ बोल न सका।
“मेरी भी इच्छा होती है रामचन्द्र कि तुम लोगों की पगार में कुछ न कुछ बढ़ा दूँ। त्योहार के नाम पर ही सही कुछ पैसे बढ़ा दूँ। किन्तु नहीं हो पा रहा है। क्या मैं नही चाहता? कई दिनों से जोड़-घटाव कर रहा हूँ। किन्तु लाभ से अधिक दुकान के खर्चे निकल जा रहे हैं। मैं कैसे-क्या करूँ कुछ समझ में नही आ रहा है? ” मालिक कहते जा रहे थे। मालिक के चेहरे पर पसरी विवशता रामचन्द्र से छुपी न रह सकी।
“कोई बात नही मालिक। आपकी कृपा से दाल-रोटी चल रही है। यही बहुत है।”कह कर रामचन्द्र ने दोनों हाथ जोड़ लिए।
रामचन्द्र कपड़े के काउण्टर पर आ कर खड़ा हो गया। जो उसकी नीयत जगह थी। बीच-बीच में आने वाले इक्का-दुक्का ग्राहकों को वस्त्र दिखता जा रहा था। कुछ पसन्द कर खरीद रहे थे, कुछ मात्र देख कर बिना कुछ लिए चले जा रहे थे।
रात्रि हुई। नौ बजे दुकान बन्द हुई। दुकान पर काम करने वाले दोनों लड़के दुकान समेटवा कर अपने अपने घर चले गये। मालिक भी सामने खड़ी अपनी चार पहिये गाड़ी की ओर बढ़ चले। रामचन्द्र ने अपनी साईकिल पर बैठ कर पैडल मारा और घर की ओर चल दिया।
……साईकिल चलाते-चलाते रामचन्द्र विचारों के प्रवाह में बहता जा रहा था।……बाजार की कमर तोड़ने में कोरोना की मुख्य भूमिका तो है ही, ये ऑनलाईन शॉपिंग भी कम उत्तरदायी नहीं है।
क्या इनसे बाजार प्रभावित नही है?…..विचारों के प्रवाह में सोचता-विचारता रामचन्द्र साईकिल चलाता चला जा रहा था कि इन समस्याओं का उत्तरदायी कौन है? बाजार आख़िर इतना मन्दा क्यों हैं?