महात्मा गाँधी का अधिवक्ता जीवन और उसके अनुभव
एड.सत्यप्रकाश सिंह
पूर्व अध्यक्ष, डिस्ट्रिक्ट बार एसो.
मऊ
विश्व राजनीतिक क्षितिज के महान व्यक्तित्व महात्मा गाँधी ने समसामयिक राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक ही नहीं अपितु व्यक्तिगत आस्था एवं विश्वास को भी प्रभावित किया । उनके चमत्कारिक सत्य व अहिंसा के प्रयोग ने साम्राज्यवादी संसार में उपनिवेशों की शासित जनता को एक अभिनव व अदभुत शस्त्र प्रदान किया । महात्मा गाँधी के महान व्यक्तित्व से लोकतान्त्रिक युग की संसद, कार्यपालिका व न्याय-व्यवस्था ही नहीं साहित्य व पत्रकारिता भी प्रभावित हुई । महात्मा गाँधी ने यह नानाविध प्रयोग प्रारम्भिक तौर से एक अधिवक्ता के रूप में इंग्लैंड से 1891 ई. में बैरिस्टर की उपाधि प्राप्त करने के उपरांत भारत व दक्षिण अफ्रीका में विधिक कर्म करते हुए किया ।
ग्रेट ब्रिटेन में रोमन एवं कॉमन विधि का अध्ययन करने के उपरांत महात्मा गाँधी ने परिश्रम व
अध्ययन से तत्कालीन भारतीय कानून का अध्ययन किया । इन्होने अपने विधिक कार्य का आरम्भ बॉम्बे हाईकोर्ट में किया। इन्हें अपना पहला केस ममीबाई का मिला, जीवन में अपने परिश्रम से प्राप्त फीस के रूप में मिले 30 रूपये के आत्मिक सुख का अनुभव मिला । मुक़दमा दिलाने वाले दलाल ने महात्मा गाँधी को कनिष्ठ अधिवक्ता समझ विट्ठलभाई पटेल को इन्हें अपने साथ रखने को ही नही कहा बल्कि प्रदान फीस भी वापस ले ली । यही दशा आज भी वर्तमान न्यायिक व्यवस्था में विधिक कर्म में लगे कनिष्ठ अधिवक्तागणों की है । उनकी प्रतिभा का आकलन मात्र इसलिए नहीं हो पाता है कि उन्होंने कोई नाम नहीं कमाया है ।
परिश्रमी मोहनदास करमचन्द गाँधी ने अपने दुसरे केस का वादपत्र ही नहीं तैयार किया बल्कि अपने वरिष्ठ व कनिष्ठ साथियों से विचार-विमर्श किया तो उन्हें बड़ा प्रोत्साहन मिला और उन्होंने इस मुकदमे में जीत भी हासिल की । बॉम्बे हाईकोर्ट के प्रारम्भिक दिनों में ही विधिक वादपत्र तैयार कर प्रस्तुत करने की महारत से गाँधी जी ने एक अच्छा मुकाम हासिल कर लिया । वे साथ ही साथ राजकोट व गिरगांव के मूल न्यायालय भी जाते रहे जहाँ उन्हें अच्छी आय होती थी। राजकोट में उन्होंने ऑफिस खोला, यहाँ वकालत की अच्छी स्थिति थी, करीब 300 से 500 रुपये की मासिक आय भी होने लगी । अपने भाई के अनुरोध पर उन्होंने राजकोट में नियुक्त एक ब्रिटिश अधिकारी जिनका एक प्रकरण था, उनका अनिच्छापूर्वक पत्र लिखा व उनसे मिले ।उसने गाँधी जी के साथ दुर्व्यवहार किया । उस अधिकारी के विरुद्ध गाँधी जी ने गवर्नर को पत्र लिखा तथा बम्बई हाई कोर्ट के प्रतिष्ठित वकील फिरोजशाह मेहता से इस विषय पर बातचीत की ।
फिरोजशाह मेहता ने गाँधी जी को सलाह दी कि यदि तुम्हे वकालत करनी है तो अधिकारी के विरुद्ध लिखा शिकायत पत्र फाड़ डालो तथा अपमान को पी जाओ । इस घटना को गाँधी जी ने गंभीरता से लिया तथा अपने समस्त अधिवक्ता कर्म में किसी के व्यक्तिगत मामले में पत्र नहीं लिखा । राजकोट में वकालत के दौरान गाँधी के बड़े भाई के मित्र अब्दुल्ला मेमन का पत्र आया कि मेरा कारोबार द.अफ्रीका में है । जहाँ मेरा मुकदमा वहां की अदालत में चल रहा है । हमारे लिए केस अपने वकील को समझा पाना कठिन है । तुम्हारा भाई बैरिस्टर है, वह हमारा केस हमारे वकील को समझा देगा । मेरा भाई अब्दुल करीम इसमें उसकी मदद करेगा । मैं आने-जाने रुकने का वांछित पराश्रमिक दूंगा । सन 1893 ई. में गाँधी जी भारत छोड़ नेटाल रवाना हो गये ।
ब्रिटिश उपनिवेश में हिन्दोस्तान से जबरदस्ती ले जाये जाने वाले या स्वयं जाने वाले आम हिन्दुस्तानी की क्या इज्जत है, इसका अनुभव गाँधी जी को जहाज की यात्रा के दौरान ही हो गया । गाँधी जी ने डरबन के अधिवक्ता एसोसिएशन में बड़ी कठिनाई से पंजीकरण कराया, यहीं पर इन्हें रंगभेद की प्रथा का अनुभव हुआ । गाँधी जी जब अदालत में अब्दुल्ला के वकील के पास बैठे तब मजिस्ट्रेट इन्हें घूरने लगा तथा उसने इनसे पगड़ी उतारने को कहा, गाँधी जी ने अब्दुल्ला को देखा तथा अदालत छोड़ दी । यहीं गाँधी ने अनुभव किया की यहाँ तीन प्रकार के हिन्दुस्तानी हैं, कुछ अपने को अरबी कहते हैं, कुछ स्वयं को गुजराती मेहता या समय पड़ने पर अरबी कहते हैं, तीसरे श्रमिक या उत्तर भारतीय हैं जिन्हें कुली या सामी कह कर अंग्रेज़ पुकारते हैं । गाँधी जी कुली बैरिस्टर कहलाये । ये कुली ही गिरमिटिया मजदूर थे ।
श्री अब्दुल्ला सेठ का केस उनके रिश्तेदार, प्रिटोरिया के प्रतिष्ठित व्यापारी हाजी तैय्यब खान से था । यह 40000 पौंड का विवाद था जिसका कारण व्यापार में आपसी अविश्वास था ।
आम क़ानूनी मसलों से अलग यह केस हिसाब किताब से सम्बन्धित था, अतः इसे बेहतर ढंग से समझने के लिए गाँधी जी ने एकाउंटेंसी का ज्ञान हासिल किया । गाँधी जी ने पगड़ी विवाद पर वहां के अख़बारों में लिखा था जिसके कारण पहले ही द.अफ्रीका में इन्हें पहचान मिल चुकी थी । इस मुकदमे के लिए प्रिटोरिया यात्रा के दौरान मेरिनबर्ग स्टेशन पर अश्वेत होने के कारण एक अंग्रेज़ की शिकायत पर फर्स्ट क्लास का टिकट होने के बावजूद गार्ड व अधिकारीयों ने गाँधी जी को ट्रेन के अंतिम डिब्बे में जाकर बैठने की सलाह दी । गाँधी ने इससे इंकार कर दिया । पुलिस ने इन्हें धक्के देकर रात्रि में प्लेटफार्म पर उतार दिया गया । इस अपमान की स्थिति में गाँधी के मन में अनेक प्रकार के विचार आने लगे । या तो वे केस छोड़कर वापस चले जायें, या अपमान सहकर दूसरी ट्रेन से प्रिटोरिया जायें या इस रंगभेद के खिलाफ अपने अधिकार के लिए लड़ें । गाँधी जी ने सुबह इसकी शिकायत जनरल मैनेजर से की तथा उनके वादकारी को सूचना दी । उसने स्टेशन मास्टर से सम्मान के साथ इन्हें प्रिटोरिया भेजने के लिए कहा। गाँधी जी दुसरे दिन चार्ल्स टाउन ट्रेन से पहुंचे जहाँ से प्रिटोरिया जाना था । चार्ल्स टाउन से जोहान्सबर्ग घोड़ागाड़ी “सिराम” की यात्रा करनी पड़ती थी । उसका चालक कुली जैसे दिखने वाले को अंदर नहीं बैठाना चाहता था । वह मुझे गोरों के साथ नहीं बैठाना चाहता था । उसने मुझे चालक के साथ बैठने को कहा क्योंकि मैं कुली था ।यह मुझे अपमानजनक व अन्यायपूर्ण लगा । करीब 3 बजे गोरे अधिकारी ने गाँधी जी को अपने पैरों के पास बैठने को कहा, यह गाँधी जी को नितांत अपमानजनक लगा । गोरे ने गाँधी जी द्वारा प्रतिकार करने पर इनके ऊपर तमाचों की बरसात कर दी । इन्हें सिराम से नीचे घसीटा, गाली देने लगा । उसमे बैठे अन्य लोगों को दया आयी, उन्होंने कहा कि इसे यहाँ बैठने दो, नाहक न मारो, दूसरी ओर अटेंडेंट था, वह उसे पैरों के पास बैठाकर बैठा।
वह लगातार आँखें तरेर रहा था तथा गाली दे रहा था । गाँधी जी गन्तव्य तक पहुँचने तक प्रभु की प्रार्थना करते रहे । रात को सिराम स्टेंटर्न पहुंचा वहां ईसा सेठ व अन्य व्यापारी आये, इन हिन्दुस्तानियों ने उन्हें अपनी आपबीती बतायी । गाँधी जी ने सिराम कम्पनी के सार्जेंट को पत्र लिखा। उसने गाँधी जी को आश्वस्त किया कि आपको जगह मिलेगी । ये उस रात जोहान्सबर्ग पहुंचे वहां मोहम्मद कमरुद्दीन इन्हें लेने आया था । इन्होने होटल में रहने का निश्चय किया परन्तु होटल के मैनेजर ने कमरा देने से इन्कार कर दिया । वहां अब्दुलमनी सेठ ने बताया कि यहाँ हमें होटल में कौन रहने देता है । उन्होंने वहां का अन्यायी इतिहास बताते हुए कहा हम प्रथम व द्वितीय दर्जे में चलने की सोच भी नहीं सकते ।
गाँधी जी ने उसके बावजूद प्रथम दर्जे में चलने का निश्चय किया । वहां का स्टेशन मास्टर ट्रांसवाल या होलैंड का था उसने इन्हें वस्तुस्थिति बतायी । ट्रेन आयी व गाँधी जी प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बैठे जहाँ एक अन्य गोरे सज्जन बैठे हुए थे । जब गार्ड टिकट देखने आया तो वह गाँधी जी को देखते ही चिढ गया । तथा गाँधी जी को तीसरे दर्जे में जाने का आदेश दिया । गोरे सज्जन ने गार्ड को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि देखते नहीं इनके पास फर्स्ट क्लास का टिकट है, मुझे तो कोई कष्ट नहीं है । उसे हटाते हुए गाँधी जी को आराम से बैठने को कहा प्रिटोरिया स्टेशन पर वकील का कोई व्यक्ति गाँधी जी को लेने नहीं आया, यह सोच कर कि अब होटल वाला तो नही ही ठहराएगा गाँधी जी ने स्टेशन पर रुकने का निश्चय किया । टिकट कलेक्टर से जानकारी लेनी चाही पर उसने भी अपेक्षित मदद नहीं की । वहां उपस्थित अमेरिकी हब्शी सज्जन ने गाँधी जी की मदद की, वे इनको एक अमेरिकन होटल ले गये ।वहां का मैनेजर राजी हुआ पर उसने शर्त यह रखी कि गाँधी जी कमरे के बाहर नहीं आयेंगे । जिससे उसके गोरे ग्राहक छिटकने का नुकसान न होगा ।
उसने अपने ग्राहकों से बातचीत की, उन्होंने कहा कि उन्हें कोई आपत्ति नहीं है जिसके कारण गाँधी जी को भोजनालय में जाने अवसर मिला । सुबह वकील ए. डब्ल्यू वेकर गाँधी जी से मिले । उनका केस लम्बा व उलझा हुआ था । उन्होंने गाँधी जी से कहा कि वे बस उनसे मुकदमे की वास्तविकता समझने का काम लेंगे । उन्होंने गाँधी जी से अपने वादकारी से पत्र व्यवहार कर केस समझने व इन्हें बताने को कहा । मिस्टर वेकर गाँधी जी को भटियारे स्त्री के घर ले गये, उसने इन्हें रखना मंजूर कर लिया । गाँधी जी होटल छोड़कर इस स्त्री के घर आ गये । वेकर ईसाई धर्मावलम्बी थे । उनके साथ गाँधी जी को प्रार्थना सभा में कोट्स आदि लोगों से मिले । गाँधी जी ने हफ्ते भर में तैय्यब जी से परिचय कर लिया जी प्रिटोरिया के प्रतिष्ठित व्यापारी थे । गाँधी जी ने उन्हें अपना मन्तव्य बताया व कहा कि व्यापार में सत्य का अनुसरण करने से हिदुस्तानी जन को प्रतिष्ठा मिलेगी । गाँधी जी ने ट्रांसवाल, प्रिटोरिया व ऑरेंज फ्री स्टेट के हिदुस्तानी जन की दशा का अध्ययन किया । ऑरेंज फ्री स्टेट 1888 में कुली कानून बना जिसमे एक इंसान के रूप में मिले सारे अधिकार छीन लिए गये थे । एक कानून तो ऐसा था जिसमें हिन्दुस्तानी फुटपाथ पर चल भी नहीं सकते थे । रात में परमिट लेकर चलना होता था । कोटस देर रात में दस बजे जाते थे । गाँधी जी को कोई बाधा न हो अतः वह इन्हें सरकारी वकील क्राऊजे के पास ले गये । क्राउजे महोदय को यह अपमानजनक लगा कि एक वकील भी ब्रिटिश प्रजा हो कर परमिट लेकर चले । उन्होंने स्वयम गाँधी जी को परवाने के बदले पत्र जारी कर दिया । गाँधी जी इस पत्र से फ्री स्टेट में कहीं भी जा सकते थे । क्राउजे के भाई जोहन्सबर्ग में पब्लिक प्रोसेक्युटर नियुक्त हुए । इन सम्बन्धों से सार्वजनिक कार्यों में गाँधी जी को काफी मदद मिली ।
यहीं पर एक घटना घटी । घर जाते समय गाँधी जी को प्रेसिडेंट स्ट्रीट से होकर खुले मैदान से जाना होता था जहाँ पर सिपाही पहरा देते थे । गाँधी जी एक दिन जा रहे थे कि सिपाही ने इन्हें धक्का मारा, सौभाग्य से ठीक उसी समय कोटस वहां से जा रहे थे उन्होंने गाँधी जी से कहा कि इस सिपाही पर मुक़दमा करो, गवाही मैं स्वयं दूंगा । गाँधी जी ने तय कर लिया था चाहे जो कष्ट उठाना पड़े वे अन्याय करने वाले पर मुकदमा नहीं करेंगे । उस सिपाही ने गाँधी जी से माफ़ी मांगी । इस केस को देखने के दौरान उन्होंने अफ्रीका में देखा कि कैसे यह हिन्दुस्तानी लोगों के रहने के लायक नहीं है ।
प्रिटोरिया में इस केस को देखते हुए गाँधी जी को सार्वजनिक कार्य कराने की अपनी क्षमता का पता लगा ।तथा इन्होने सच्ची वकालत सीखी । गाँधी जी ने अपने वादकारी के मुकदमे को देखा तो मालूम पड़ा कि उनका केस मजबूत है, दोनों पक्ष के वकील न जाने कब तक लड़ेंगे । गाँधी जी ने तैय्यब जी से आपस में मामला तय करने हेतु समझाया । इनके समझाने से दोनों रिश्तेदार समझौता करने को राजी हुआ, पंच नियुक्त हुए और सारी रकम एक बार में देने के दशा न थी ऐसे में देने हेतु एक लम्बा समय तय हुआ । दोनों का मान सम्मान बढ़ा। वकील का कर्तव्य दरारों को मिटाने का है । इस केस के बाद गाँधी जी ने अपने ऑफिस में बैठकर सैकड़ों मामले निपटवाए ।