हर नागरिक के स्वालंबन और स्वाभिमान का दस्तावेज है संविधान
मनोज कुमार सिंह
लेखक/साहित्यकार/उप-सम्पादक
कर्मश्री मासिक पत्रिका
किसी भी देश का संविधान उस के शासकों , प्रशासकों, न्यायविदों, राजनेताओं, जनप्रतिनिधियों, वकीलों, बुद्धिजीवियों और जिम्मेदार नागरिकों के लिए सर्वोत्तम पथ प्रदर्शक दस्तावेज होता है। संविधान के आलोक में ही किसी भी राष्ट्र का राष्ट्रीय जीवन और राष्ट्र में रहने वाले नागरिकों का जन जीवन सजता- संवरता, मर्यादित, विकसित और अनुशासित होता है।
आधुनिक काल में वैसे तो अलिखित संविधान के रूप में सबसे पुराना संविधान ग्रेट ब्रिटेन का संविधान हैं, जो अभिसमयों और संवैधानिक परम्पराओँ पर आधारित है, परन्तु लिखित संविधान की परम्परा का आरम्भ संयुक्त राज्य अमरीका से माना जाता हैं। संयुक्त राज्य अमरीका की तर्ज़ पर आस्ट्रेलिया, स्विट्जरलैंड , फ्रांस, कनाडा,जर्मनी सहित अन्य यूरोपीय देशों का संविधान लिखा गया। इसी परम्परा में सत्ता हस्तांतरण के संक्रमण कालीन दौर में भारतीय संविधान का लेखन कार्य आरंभ हुआ।
हमारे दूरदर्शी महान स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के सुनहरे सपनों को साकार करने के लिए संकल्प पत्र के रूप में भारत का संविधान 26 नवम्बर 1949 को पूर्ण रूप से बनकर तैयार हुआ था और इसी दिन हमारे संविधान सभा के समस्त महान मनीषियों ने इस पर हस्ताक्षर कर इसे भारत की जनता की तरफ से अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया था। लम्बे संघर्ष की यातनापूर्ण अनुभूतियों को हृदय में सहेजे-समेटे हमारे संविधान निर्माताओं ने दो वर्ष, ग्यारह महीने और अट्ठारह दिन यानि लगभग तीन वर्ष तक लम्बे विचार विमर्श, व्यापक बहस और मैराथन के उपरांत भारतीय संविधान को तैयार किया। 26 नवम्बर 1949 को निर्मित हमारे पवित्र संविधान को हमारे विद्वान संविधानविदों ने ठीक दो महीने बाद 26 जनवरी को लागू करने का निश्चय किया। क्योंकि 26 जनवरी 1930 को रावी नदी के तट पर ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन में की गई पूर्ण स्वराज्य की ऐतिहासिक घोषणा की महत्ता को भारतीयो में जीवंत रखा जा सके। इसी ऐतिहासिक घोषणा के अनुसार 1930 से 1947 तक हर साल 26 जनवरी को भारतवासी स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाते आ रहे थे। इस ऐतिहासिक और महान परंपरा को जीवंत रखने के लिए भारतीय संविधान को 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया।
डॉ राजेंद्र प्रसाद, पंडित जवाहरलाल नेहरु, बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर,सरदार बल्लभ भाई पटेल , मौलाना,अबुल कलाम आज़ाद और पंडित अलगू राय शास्त्री जैसे 389 संविधानविदो ने मिलकर जो संविधान बनाया उसमें लगभग दो सौ वर्षों तक ब्रिट्रिश सरकार के दौरान हमारे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों द्वारा भोगी गई यातनापूर्ण संघर्ष की अनुभूतिओ की झलक साफ-साफ दिखाई देती है। विश्व कप के सबसे विशाल , अद्वितीय और अनूठे संविधान में भारतीय समाज में व्याप्त, विविधताओं, विषमताओं और अंतर्विरोधों में सामंजस्य स्थापित करने की अद्भुत क्षमता है। जिस तरह चौदह वर्षीय वनवासी जीवन की अनुभूतियों ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम को जनता की आशाओं, आकांक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप एक आदर्श राज्य जिसे भारतीय वांगमय में रामराज्य कहा जाता है स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। उसी तरह हमारे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों ने अपनी यातनापूर्ण अनुभूतियों से प्रेरित होकर भारतीय संविधान को एक ऐसा दस्तावेज बनाया जिसके प्रकाश में भारत को एक आदर्श , नैतिक और मानवतावादी मूल्यों से लबरेज, लोकतांत्रिक और कल्याणकारी राज्य बनाया जा सके।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना तथा संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों तथा नीति निदेशक तत्वों से एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, कल्याणकारी राज्य निर्मित करने की संकल्पना अभिव्यंजित होती हैं। यह तथ्य भी सर्वविदित है कि-हमारा महान और विशाल संविधान एक झटके में नहीं तैयार हो गया और न ही किसी देवलोक से हुई किसी आकाशवाणी के फलस्वरूप लिपिबद्ध हो गया बल्कि उस समय के
सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वाधिक प्रखर संवैधानिक चेतना से लैस, तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समस्याओं पर गहरी और व्यापक समझ रखने वाले प्रज्ञावान, कुशाग्र, अत्यंत मेधाशक्ति सम्पन्न मनीषियों के मध्य लम्बे और धारदार बहसों के फलस्वरूप संविधान की प्रत्येक इबारत लिखी गई।
हमारे संविधान की प्रस्तावना में ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय स्थापित करते हुए हर नागरिक को गरिमामय जीवन सुनिश्चित करना प्रत्येक सरकार का दायित्व बताया गया है । एम वी पायली सहित अन्य राजनीतिक चिंतको के अनुसार प्रस्तावना, भारतीय संविधान की आत्मा है क्योंकि- प्रस्तावना में सरकार और नागरिकों को मार्गदर्शित करने वाले मूल्य, मान्यताऐ,आदर्श और सिद्धांत अंतर्निहित है। विगत पचहत्तर वर्षों के शासन के दौरान हम प्रस्तावना में वर्णित अभिव्यक्ति, धर्म, उपासना और विश्वास की स्वतंत्रता जैसे मूल्यों को स्थापित करने में कुछ हद तक सफल रहे। परन्तु कभी-कभी होने वाले साम्प्रदायिक दंगे, जातिगत हिंसा और माब लिचिंग की घटनाए अभिव्यक्ति, धर्म , उपासना और विश्वास की स्वतंत्रता पर ग्रहण लगाते हैं। अभी हाल ही में एक वर्ष तक चलें शांतिपूर्ण अहिंसात्मक किसान आन्दोलन के आगे भारत सरकार का जन भावनाओ का सम्मान करते कदम वापस लेना और प्रधानमंत्री द्वारा क्षमा याचना करते हुए तीनों कृषि कानूनों को वापस लेना हमारी मजबूत लोकतंत्रात्मक व्यवस्था की सफलता की पुष्टि करता है।
अपने पड़ोसी देशो के साथ हम तुलनात्मक विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि- भारतीय संविधान की भूल भावना के अनुरूप हम एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने में अपेक्षाकृत सफल रहे हैं।
भारतीय संविधान में पुलिसिया राज्य के विरुद्ध एक कल्याणकारी राज्य बनाने का संकल्प दिग्दर्शित होता है परन्तु पचहत्तर वर्षों के शासन के बाद भी हम एक आदर्श कल्याणकारी राज्य स्थापित करने में असफल रहे है। हमारे देश के नीति निर्माताओं द्वारा नीति निदेशक तत्वों की अवहेलना, शासन सत्ता पर पूंजीवादी प्रभाव और भावनात्मक राजनीति के बढते चलन-कलन के कारण भारत एक आदर्श कल्याणकारी राज्य के रूप में परिवर्तित नहीं हो पाया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 मे स्पष्ट रूप से कहा गया है कि-“प्रत्येक भारतीय नागरिक को जिन्दा रहने का अधिकार है (every Indian citizen has right to alive )”। परन्तु यह सर्वविदित तथ्य है कि जिविकोपार्जन के साधनों के अभाव में जिन्दा रहने का अधिकार महज कागजी है। प्रकारांतर से काम के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाये बिना कोई भी राज्य अपने नागरिकों को जिन्दा रहने का अधिकार देने का वादा नहीं कर सकता है। पचहत्तर वर्षों के शासन के बाद भी हम काम के अधिकार को मौलिक अधिकार नहीं बना पाए। जबकि नीति निदेशक तत्वों से संबंधित अनुच्छेद 41 मे नागरिकों को कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार दिया गया है।
स्वाधीनता उपरांत भारत को कल्याणकारी राज्य बनाने की दिशा में कुछ सार्थक प्रयास किया गया जैसे- भूभि सुधार कानून, जमींदारी उन्मूलन कानून, कारखाना अधिनियम, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम और बैंको का राष्ट्रीयकरण इत्यादि। इन समस्त कानूनों के तहत आर्थिक और सामाजिक समानता लाने का प्रयास किया गया। जन कल्याणकारी राज्य बनाने की दिशा में नीति निदेशक तत्व विधायिका और कार्यपालिका के लिए निर्देश हैं। नीति निदेशक तत्वों में स्पष्ट कहा गया है कि राज्य आर्थिक क्षेत्र में एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को हतोत्साहित करेगा और एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था का निर्माण करेगा जिससे देश की धन-दौलत अधिकतम लोगों तक वितरित हो सके। कल्याणकारी राज्य की दिशा में सर्वाधिक सशक्त भूमिका पंचवर्षीय योजनाओं ने निभाया। समग्र और संतुलित विकास को ध्यान में रखकर संचालित की गई पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने में काफी तक सफलता प्राप्त हुई। परन्तु आज फिर देश में आर्थिक संकेन्द्रण की प्रवृत्तियां बढ रही हैं। यह भारत जैसे कल्याणकारी राज्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। बैंको के राष्ट्रीयकरण ने भी जनकल्याणकारी योजनाएं बनाने में सराहनीय भूमिका का निर्वहन किया। एक स्वस्थ्य और गतिशील लोकतंत्र में सत्ता का विकेन्द्रीकरण एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस दिशा में तिहत्तरवें और चौहत्तरवें संविधान संशोधन द्वारा ग्राम पंचायतों और नगर पंचायतो को संवैधानिक दर्जा देना एक ऐतिहासिक कदम था।
अंततः अभी भी आर्थिक असमानता को कम करने की दिशा निर्णायक नीतियां बनाने की आवश्यकता है। 2010 में शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार की श्रेणी में शामिल कर लिया गया परन्तु व्यवहारिकता के धरातल पर आम आदमी गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा प्राप्त करने में असमर्थ हैं। आवश्यक वस्तुओं के दाम बढने से लोग फिर गरीबी रेखा के नीचे आते जा रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सरकारों द्वारा अत्यधिक संरक्षण देने के कारण भारत के देशज परम्परागत और लघु कुटीर उद्योगो पर खतरा मंडराने लगा है। देशज परम्परागत लघु कुटीर उद्योग आर्थिक विकेन्द्रीकरण के सर्वाधिक सशक्त माध्यम है। इसलिए इनका संरक्षण और संवर्धन आवश्यक है। आज फिर से हमें संविधानविदो के सुनहरे सपनों को स्मरण करते हुए संकल्पित और समर्पित भाव से अपने सामाजिक और नागरिक दायित्वों का पालन करना होगा। हमारा संविधान अपने देश के शासकों, प्रशासकों, न्यायविदों, राजनेताओं, जनप्रतिनिधिओं, विद्वानों, विचारकों और समस्त नागरिकों के लिए आइना की तरह है। संविधान रूपी आइने के आलोक में जैसे-जैसे हम स्वयं को सजाते, संवारते और अनुशासित करते जाते हैं वैसे -वैसे हमारा नागरिक जन जीवन और राष्ट्रीय जीवन सजता-संवरता और अनुशासित होता जाता है।