डॉ नमिता राकेश, राजपत्रित अधिकारी व साहित्यकार
अचानक वृन्दावन जाने का प्रोग्राम बन गया और हम चार लोग मन में भगवान के दर्शन की आस लिए चल दिए वृन्दावन की ओर। इनमें एक सुप्रीमकोर्ट की जज, एक डॉक्टर, एक इंडस्ट्रियल हेड और एक मैं यानी नमिता राकेश । पतिदेव व्यस्तता के चलते नहीं जा सके। बच्चे अपने काम में व्यस्त थे। सुबह 8 बजे के निकले हमने छाता में एक आयुर्वेदिक अस्पताल में डॉ साहब के सौजन्य से पूरी सब्ज़ी और छाछ का स्वादिष्ट भोजन किया और ततपश्चात गरमागरम चाय पीकर वृन्दावन की ओर प्रस्थान किया।
वहां पहुँच कर एक गौशाला का सर्वेक्षण किया। क़रीब 80-90 गाय थीं जिनके लिए भरपूर चारे का इंतज़ाम था। ये वो गाएं थीं जो दूध नहीं देतीं और सड़कों पर बिना चारे के घूमती फिरती हैं । ऐसी मानवता के आगे नतमस्तक हो गई मैं। फिर एक धर्मशाला का अवलोकन किया। इसमें साफ-सुथरे कमरों में लोगों के ठहरने की समुचित व्यवस्था थी। ततपश्चात स्वामी हरिदास जी जो प्रसिद्ध बैजू बावरा के गुरु थे, उनके मन्दिर में दर्शन किये। बहुत ही सात्विक वातावरण था। श्लोक उच्चारण के साथ भभूत लपेटे बहुत से साधू-संत वहां पूजा पाठ कर रहे थे। कुछ साधू उन्हें हाथ से बड़े-बड़े पंखे झल रहे थे। वहीं एक सिद्ध पुरुष एक छोटे से टीले पर भभूत लपेटे बैठे थे । लोग आ कर उन्हें साष्टांग प्रणाम कर रहे थे। मैंने भी उनके समक्ष अपना अभिवादन किया। उन्होंने मुस्कुरा कर आशीर्वाद दिया। वहां पर बन्दरों ने हमारा ज़ोरदार स्वागत किया। वहां से बचते-बचाते हम श्री हरि मन्दिर पँहुचे। द्वार बंद थे। हमारी रिकवेस्ट पर द्वार खोले गए और पण्डित जी प्रकट हुए। श्री हरि जी के विराट दर्शन कर के मन मे एक आध्यात्मिक भावना से ओतप्रोत हमने पूजा अर्चना की। विधिवत पूजा में भाग लेकर मन मे एक शांति का अनुभव हुआ। अपने-अपने प्रसाद लेकर और पण्डित जी को प्रणाम कर हम आगे बढ़े। तभी हमारे स्थानीय मित्र ने बताया कि यहीं से 5 मिनट की दूरी पर प्रसिद्ध देवरिया बाबा की मचान है। यह वही बाबा हैं जो पैर से आशीर्वाद देने के लिए प्रसिद्ध हैं और हमारे कई राजनेता उनसे आशीर्वाद प्राप्त कर चुके हैं। बस मेरा मन हो गया कि इतनी पास आ कर भी ना देखा तो क्या देखा ! बस, घुमा ली गाड़ी देवरिया बाबा की मचान की तरफ़। वहां जा कर मन्द-मन्द बहती यमुना का शीतल जल और ऊपर काले कजरारे बादलों का झुंड जैसे हमारे स्वागत को ही तत्पर थे। नदी के उस पार बाबा की मचान साफ दिखाई दे रही थी। हमने प्रणाम किया। फोटो खींचना तो हमारा बनता था सो फोटो सेशन हुआ। मैंने अपने मित्रों को वहीं से लाइव सम्बोधित किया ताकि वे भी इस नज़ारे का आनंद ले सकें। बस, फिर हमारी गाड़ी बिहारी जी के मंदिर की ओर उन्मुख हुई। सम्भावित भीड़ के चलते मन में दर्शन की संभावना कम ही लग रही थी क्योंकि घर वापसी उसी दिन थी। ख़ैर, जब आए हैं तो दर्शन कर के ही जाएंगे-यह सोच कर और वहां के एक स्थानीय मित्र के कहने पर हमने अपनी अपनी पादुकाएं, मोबाइल, चश्मा और अन्य सामान गाड़ी में ही छोड़ कर हम कुछ रुपए अपने साथ पॉकेट में रख कर, खुद को संभालते पदयात्रा पर निकल पड़े। मुझसे कोई पूछे तो मुझे तो पैदल चलना किसी तपस्या से कम नहीं लगता। आदत ही नहीं है बिल्कुल और सड़क के कंकड़ पत्थरों का दंश मैं बिल्कुल भी नहीं झेल सकती पर दर्शन करने थे तो जाना ही था। तो मित्रों, वृन्दावन की कुंजी गलियों में भीड़ के स्वादिष्ट धक्कों का आनंद लेते हम बढ़ चले दर्शन की आस लिए बिहारी जी के मंदिर की ओर। राह में बिछे शूलों और फूलों को स्वीकारते हुए, अरे अरे, यह तो मेरी एक कविता की पंक्तियां हैं जो मुझे अनायास ही याद आ गईं, मुझे ये अपनी ये पंक्तियां भी याद आ रही थीं कि–“चलने से पहले रास्ते लगते थे पुरखतर, जब चल पड़े तो पैरों के कांटे कुबूल थे।” सचमुच, मेरी लिखी पंक्तियां सजीव हो रहीं थीं, चलते-चलते कुछ समाजसेवक भी मिले जो कुछ रुपयों के बदले जल्दी और वी आई पी दर्शनों के वादे कर रहे थे। हमने उन समाजसेवकों की सेवाएं लेने से इंकार कर दिया और अपने ईश्वर की इच्छा पर छोड़ दिया। एक ही पल में उन समाजसेवकों के चेहरे का रंग बदल गया और वे हमें तिरस्कार की नज़रों से देखते हुए अन्य श्रृद्धालुओं की ओर अपनी समाजसेवा का टोकरा ले कर आगे बढ़ गए। हम भी लोगों से टकराते, अपने-अपने हाथ-पैर और बटुए सम्भालते भीगी हुई कीचड़ युक्त सड़क पर बिहारी जी के दर्शनों की आस में आगे बढ़ गए। थोड़ी ही देर में मन्दिर दिखा तो एक तसल्ली मिश्रित खुशी हुई। पर साहब, अभी कहाँ, अभी तो अंदर की भीड़ से भी तो झूझना था। बस, यहां हमें अलग से कोई प्रयास नहीं करने पड़ा। भीड़ ने हमें खुद ही हमें अंदर धकेल दिया। कब हम शुरू की तीन चार सीढियां चढ़े और कब उतर गए पता ही नहीं चला। अब हमारे सामने लोगों का झुंड था और मानव खोपड़ियों के झुंड के उस पार बिहारी जी कभी-कभार दिख जाते थे। जब कभी पण्डित जी बिहारी जी के दर्शन हेतु मन्दिर के पट खोलते तभी लोगों का हजूम दोनों हाथ उठा कर ज़ोरदार आवाज़ में जयकारा लगाता। बिहारी जी की एक झलक के लिए लालायित हमारी आंखें इस हाथ उठाती भीड़ में दर्शन को तरस गईं। मैं सोचने लगी कि काश मैं अमिताभ होती तो लाइन वहीं से शुरू होती जहां मैं खड़ी होती तो भीड़ में सबसे आगे होने से मैं जी भर कर देर तक अपने श्री बिहारी जी को देख पाती। ख़ैर, ना ही मैं अमिताभ बच्चन थी और ना ही भीड़ मुझसे शुरू थी तो जनाब हम लोगों के उस हजूम में जितने भी दर्शन कर सके उतने ही अपनी तकदीर समझ कर किसी तरह धक्के खाते उस मंदिर परिसर से बाहर आए और उसी प्रकार पदयात्रा करते हुए अपनी गाड़ी में जब बैठे तो “व्हाट ए रिलीफ़” वाली फीलिंग आई।
बस फिर अगला मुक़ाम था पेड़े की दुकान। पर रास्ता पूछने पर भी हमें पेडों की वो प्रसिद्ध दुकान नहीं मिली और भीड़ के कारण पुलिस विभाग द्वारा लगाए बेरिकेट्स की वजह से हम लगभग वृन्दावन से बाहर ही निकल आए । पेड़े ना ले पाने का दर्द मेरे सहयात्रियों ने महसूस कर लिया औऱ गाड़ी मोड़ कर के एक जगह रोकी तो सामने पेड़ों की कई दुकानें नज़र आईं। मीठे की शौकीन मैंने फटाफट ड्राइवर को पेड़े लाने भेज दिया और फिर और क्या बचा था ? चल दिये घर की ओर । इस छोटी सी आध्यात्मिक यात्रा ने हमारे जीवन का एक दिन सार्थक कर दिया।