वरिष्ठ कवि श्री परमहंस तिवारी ‘परम’, वाराणसी
बदल रहा हरेक समीकरण है
गाँव का हो रहा शहरीकरण है।
कुएँ का मुँह हुआ अब तंग है
रहट की बाल्टी पर जंग है
छेद पुरवट में हो गए अनगिन
न खूंटे को बयल का संग है
रह गया केवल संस्मरण है
गाँव का हो रहा शहरीकरण है।
घूर पर घर बनाये जा रहे हैं
स्मृतियों को मिटाये जा रहे हैं
बगीचे कट रहे हैं तेजी से
नये साधन जुटाये जा रहे हैं
रीतियों का रिवाजों का क्षरण है
गाँव का हो रहा शहरीकरण है।
गिर रही ईंट ईंट है हवेली
सजी थी जो कभी दुल्हन नवेली
अकेले नाद औधे मुँह पड़ी है
नहीं कोई रह गयी उसकी सहेली
न इनकी भाषा ना ही व्याकरण है
गाँव का हो रहा शहरीकरण है।
नहीं स्वजनों को मिलती गुड़ की भेली
कपों में चाय करती अठखेली
नहीं कुरई में अब लाई गट्टा
न लौकी छान पर न ही करेली
हृदय संकीर्ण गलियों का चौड़ीकरण है
गाँव का हो रहा शहरीकरण है।
कहीं कोने में चूल्हा रो रहा है
घरों में अब सिलिंडर आ गया है
यूँ तो मिलते हैं एक दूजे से लोग
कहाँ अब दिल किसी से मिल रहा है
हरेक चेहरे पे दिखता आवरण है
गाँव का हो रहा शहरीकरण है।
न ही खपरैल ना ही गौरैया
न द्वारे नीम ना कजरी गैया
बड़े के साथ रहते हैं पिताजी
हिस्से में छोटे के आयी मैया
अजब रिश्तों का ये वर्गीकरण है
गाँव का हो रहा शहरीकरण है।
कुएँ की जगह ले रही टंकी
न कोई वैद्य देता अब फंकी
दीवाने हो रहे अंग्रेजी के
गधे को कहने लगे हैं डंकी
अजीब सा यहाँ वातावरण है
गाँव का हो रहा शहरीकरण है।
छल से सब कुछ जुटाना चाहते हैं
दाव बस आजमाना चाहते हैं
कपट में मात खा जाये शकुनी भी
सिंहासन हथियाना चाहते हैं
ज्येष्ठ कुरु के कुचक्र में करण है गाँव का हो रहा शहरीकरण है।