संध्या रस्तोगी, वरिष्ठ रंगकर्मी, भूतपूर्व प्रधानाचार्य, यशोदा इन्टर कॉलेज, लखनऊ
मैं 5-15 आयुवर्ग के बच्चों की ग्रीष्म कक्षाओं में अंग्रेजी भाषा की कार्यशाला ले रही थी । बाल सुलभ प्रकृति के अनुसार कुछ बच्चे बेहद चपल और निरंकुश थे। इन्हीं बच्चों में एक बच्ची ऐसी थी जिसकी आवाज़ अस्पष्ट थी जिसे बोलने में भी बेहद संकोच होता था । एक ऐसा बच्चा था जो अस्वाभाविक रूप से सभ्य, शिष्ट और अनुशासित था जिसे कुछ भी बोलने से पहले अपनी शारीरिक भाव-भंगिमा की सहायता से एक शुरुआत करनी पड़ती थी । बच्चों के इस असामान्य व्यवहार के फलस्वरूप मैंने निश्चय किया कि केवल अंग्रेजी भाषा की कार्यशाला के बजाय इसे एक नया रंग दिया जाए ‘रंगमंच’ का।
मैंने अंग्रेजी में ही एक रोचक नाट्य-कथानक तैयार कर के बच्चों को उनकी सामार्थ्य और सीमा के अनुसार अभिनय के माध्यम से एक नई अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया। परिणाम बेहद सफल और सुखद था। निरंकुश बच्चे अनुशासनबद्ध होकर कार्य करने लगे। जिस बच्ची की आवाज अस्पष्ट थी उसका संवाद संप्रेषण एक अदभुत आत्मविश्वास से भरा समुचित प्रवाह में था। असामान्य रूप से सभ्य और शिष्ट बच्चा अपने खोल से निकलकर सामान्य बच्चों की तरह व्यवहार करने लगा था उसने नाटक में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अतिरिक्त सभी बच्चों की स्मरणशक्ति इतनी सशक्त हो गई कि दो दिन में ही हर बच्चे को पूरा नाटक कंठस्थ था। फलस्वरूप प्रदर्शन के पश्चात स्वयं माता-पिता अपने बच्चों के प्रति एक सुखद विस्मय से भरे थे। बच्चों के व्यक्तित्व विकास तथा सशक्त अभिव्यक्ति के लिये जो नाट्य प्रयोग मैंने कार्यशाला में किया उससे बच्चों के मन में अभूतपूर्व उत्साह के साथ आत्मविश्वास की वृद्धि हुई तथा माता-पिता के मन में क्षीण होती हुई आशा एक नये विश्वास और संभावना में बदल गई।
मंच वह स्थान है जहाँ गीत, संगीत, नृत्य, अभिनय जैसे अनेकों रंग निखरे हैं इसीलिये यह रंगमंच है। संगीत और नृत्य व्यक्तित्व के एक विशेष पक्ष गायन तथा तालबद्ध भावभंगिमाओं द्वारा अभिव्यक्ति को उजागर करते हैं तो अभिनय संपूर्ण व्यक्तित्व विकास का ऐसा सशक्त माध्यम है जिसमें समस्त कलाओं का समावेश भी है और संवाद सम्प्रेषण के माध्यम से भाषा शैली का परिमार्जन भी। बाल्यवास्था से ही यदि बच्चों में रंगमंच के संस्कार डाले जायें और उन्हें पठन-पाठन के साथ ही अभिनय की शिक्षा दी जाये तो वे अपनी हिचक संकोच व अकारण हीनभावना जैसी नकारात्मक परिधि को स्वयं ही तोड़कर उससे बाहर निकल सकते हैं। स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिये शब्दों व भाषाओं को ढूंढने की आवश्यकता उन्हें नहीं पड़ेगी। भाषायी अभिव्यक्ति हेतु अनावश्यक रूप से शरीर के अंगों का सहारा उन्हें नहीं लेना पड़ेगा।
आज के इस कम्प्यूटरीकृत दौर में जब हमारी भाषा और अभिव्यक्ति का निर्धारण भी कम्प्यूटर ही कर रहा है तब बच्चों के संचार कौशल को सशक्त बनाने का सबसे अच्छा साधन है रंगमंच । आज सर्वत्र उच्च तकनीकी शिक्षा संस्थानों में छात्रों के व्यक्तित्व विकास हेतु सामूहिक चर्चाएं होती हैं तथा संचार कौशल का विधिवत् प्रशिक्षण दिया जाता है किन्तु वो छात्र सबसे अधिक सफल होते हैं जिनमें अभिनय क्षमता के साथ ही अभिव्यक्ति का कौशल भी होता है।
अपने कार्यक्षेत्र तथा जीवन में भी एक कलाकार अपनी रोचक कार्य शैली तथा सशक्त अभिव्यक्ति के कारण आम लोगों से अधिक सफल होता है। अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर मैंने यही निष्कर्ष निकाला है कि बच्चों के सरल, सहज व बाधामुक्त विकास के लिये रंगमंच से बेहतर कोई विधा नहीं है। जरूरी है कि बच्चे स्वाभाविक रूप से सीढ़ी दर सीढ़ी बढ़ते जायें। समझदार हों और सफल होने के साथ-साथ एक बेहतर इंसान बने।
मैम, आपके जो भी प्रयास होते हैं सामाजिक परिवर्तन और सरोकार के, वो हम सब के लिए अनुकरणीय हैं।