डॉ शिवमूरत यादव, Post Doctoral Research Fellow
University of Oklahoma, Health Sciences Center, USA
नवजात शिशु से शुरूआत करें तो हम सभी एक ही हैं, जैसे-जैसे व्यक्ति बड़ा होता जाता है हर पल उसका अनुभव बढ़ता जाता है । हर व्यक्ति का अनुभव अलग होता है जो स्मृति के रूप में मनुष्य के मस्तिष्क में संग्रहित होता रहता है । आदमी हर पल कुछ न कुछ अनुभव करता रहता है । अतः हमारी स्मृति में अनगिनत सूचनायें रहती हैं जो उम्र के साथ बढती रहती हैं । इन्हीं संग्रहित सूचनाओं के आधार पर ही हम अच्छे या बूरे परिस्थिति में निर्णय या प्रतिक्रिया देते हैं । इसी निर्णय या प्रतिक्रिया के आधार को सामान्यतया “स्वभाव” कहा जाता है । इस स्वभाव को हम एक संज्ञा देकर उसे “नाम” में बदल देते हैं और यहीं से शुरूआत होती है किसी व्यक्ति के पहचान की ।
नाम किसी व्यक्ति विशेष का नहीं होता वह उसकी तथा उससे संबंधित सूचनाओं का होता है । उदाहरण के लिये अगर किसी व्यक्ति की सूचना को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाये तो आमतौर पर हम उसे पागल कहते हैं। क्योंकि वह व्यक्ति अपनी मूल पहचान को खो देता है । मैं यहां पर सबसे आवश्यक बात यह बताना चाहूंगा कि किसी भी व्यक्ति का अनुभव प्रतिपल बदल रहा होता है और साथ-साथ उसका शारिरीक व मानसिक परिवर्तन भी होता रहता है, अतः एक ही व्यक्ति में अनेकों व्यक्तित्व हो सकते हैं ।
मनुष्य की बाहरी पहचान के अतिरिक्त उसकी एक अपने अंदर की पहचान भी होती है । अपनी कला-सृजन आदि माध्यमों से वह उसे प्रकट करता रहता है । मनुष्य की बहुत सी इच्छाएं व विचार सामाजिक प्रतिबंधों के कारण अभिव्यक्त नहीं हो पाते और उनका दमन किये जाने पर वे व्यक्ति के अर्द्धचेतन मस्तिष्क में और वहां से अचेतन मस्तिष्क में सोये पड़े रहते हैं और उचित अवसर आने पर सक्रिय होने का प्रयास करते रहते हैं । वह अपने अनुभवों के आधार पर समय देख अपने व्यक्तित्व के इस रूप को भी प्रकट करता रहता है ।
हम समझ के बिंदू पर आते हैं। वास्तव में हमारा शरीर सुख-दुःख, अमीर-गरीब का आभास अपने अनुभवों के आधार पर करता है । कहते हैं किसी बच्चे को डराओ मत नहीं तो डर उसके अंदर बैठ जायेगा । समझ यह है कि किसी भाव पर हम जितना अधिक विचार करते हैं वह हमें उतना अधिक प्रभावित करता है । अगर हम दुःख में भी सुख का अनुभव करें, अनादर किये जाने पर भी उसे आदर के रूप में लें और अपना कार्य जारी रखें तो यह हमारे मस्तिष्क की क्षमता है जिसे हम समझ कहते हैं ।
हम मानव अपने मस्तिष्क में संग्रहित सूचनाओं के आधार पर ही अपनी भाषा, अपनी पहचान, अपनी समझ, अपने व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं । आने वाली पीढ़ियों में यादृच्छिक रूप से यह सूचना स्थानांतरित होती चली जाती है । इन सूचनाओं को “जैसा है वैसा ही ले लिया’ के रूप में संग्रहित कर हम तब तक इनमे कोई परिवर्तन नहीं करते जब तक अन्तश्चेतना में उससे बड़ी और प्रभावकारी कोई सूचना नहीं आती ।
यह इतनी प्रभावशाली होती है कि अपने आस-पास के मिथकीय कथाओं के पात्रों में भी हम एकदम से कोई परिवर्तन स्वीकार नहीं करते । मनुष्य की सूचनाएं ही उसके सम्पूर्ण परिचय का आधार हैं ।