लेखिका – श्रीमती शैली जी, लखनऊ
मेरे साथ एक लड़की पढ़ती थी, उसका नाम था ओमपती। गाँव से आती थी, बिल्कुल देसी।
सूरत भी थी गाँव की सोंधी मिट्टी के तेल सी। वर्ष 1978-79 की बात है हाई स्कूल के फॉर्म भरने थे। पहचान के लिए पासपोर्ट साइज़ के छायाचित्र लगने थे। उस ज़माने में ऐसे फोटो, स्टूडियो में खिंचते थे। रंगीन नहीं, केवल श्वेत-श्याम ही होते थे ।
कम ही मौकों पर ऐसे चित्र खिंचते थे। इसलिये फोटो खिंचवाना उत्सव नहीं, महोत्सव से लगते थे। फोटो खींचने के लिये बहुत जतन होते थे। गाढ़े रंग पर हल्के रंग के प्रिंटेड कपड़े चुने जाते थे, क्योंकि ये ब्लैक एन व्हाइट में सुन्दर नज़र आते थे। चेहरे को पाउडर से सफ़ेद किया जाता था, आँखों को काजल से फ़िल्मी तारिकाओं के तर्ज़ पर सज्जित किया जाता था। बालों को धो कर रूखा करते थे। रूखे बाल ही चेहरे को सुन्दरता देते थे। तेल लगे बाल तो सिर से चिपक जाते थे। अल्हड़ किशोर चेहरों को सम्हाल नहीं पाते थे।
बड़े जतन से फोटो खिंचाई जाती थी। उसका प्रिंट पाने की बेहद उत्सुकता रहती थी। प्रिंट भी कहाँ तुरंत मिलते थे, चार-पाँच दिन कम से कम, कभी तो हफ्ते भर बाद मिलते थे। प्रतीक्षा के दिन, रिजल्ट आने की सी बेचैनी से कटते थे। कुछ सामान्य चेहरे भी ‘फ़ोटोजेनिक’ होते हैं। कई खूबसूरत चेहरे फोटो में अच्छे नहीं दिखते हैं। यहीं पर असली और फोटो का फर्क़ आ जाता है, प्रायः कैमरा वह नहीं दिखाता, जो उसके सामने आता है।
ऐसा ही हादसा उस दिन भी हुआ था। जब सबने ओमपती का चेहरा फोटो में देखा था। फोटो में वह ग़ज़ब की लग रही थी। सुंदरियां भी उसके आगे फीकी-फीकी सी लग रही थीं। क्लास में उस दिन सन्नाटा सा छाया हुआ था, मेरा उस दिन कैमरे से मोहभंग हुआ था।
बहुत दिनों के बाद भूली बातें याद आयीं थीं, जब कोई पुरानी ब्लैक एन व्हाइट फोटो मेरे हाथ आयी थी. कैमरे भी उन दिनों बहुत कम होते थे। ‘सिंगल माल्ट’ की तरह धनी घरों में मिलते थे। फोटो खींचना खर्चीला था। पहले तो कैमरा महँगा था। क्योंकि अधिकतर कैमरे विदेशों से आते थे। इसलिये क्रेता की जेब पर बोझ डालते थे। फिर रील, उसकी डिवेलपिंग और फिर प्रिंट होना। सभी में पैसे और समय बहुत लगता था, इसलिए फोटो खींचने वाला एक-एक स्नैप का हिसाब-किताब रखता था। कैमरे के फ्रेम में आने को हरेक बेताब रहता था। अगफा क्लिक 3, और आयसोली 2 भारत में बनते थे। लेकिन उसमें भी लेंस विदेशी ही लगते थे। सोनी, याशिका, पैनटेक्स आदि विदेशों से आते थे। यह कैमरे अच्छे होते थे। सेटिंग्स में विविधता होती थी। इनसे खींचे हुए फोटो प्रीमियम से दिखते थे। बाग-बगीचों में, सरसों के खेतों में, छत के ऊपर या क़ीमती कुर्सी पर। बड़े जतन से लोकेशन खोजते थे। दाएँ-बाएँ, बैठते या खड़े होते थे। पोज़ बनाने की मशक्कत होती थी, रौशनी कितनी है, इसकी भी फिक्र होती थी। क्योंकि ‘ब्राइटनेस सेटिंग’ की सुविधा, कैमरे में लगभग नहीं होती थी। रील अलग-अलग स्पीड की आती थी जो कम या ज्यादा रोशनी में फोटो सही खींचती थी।
लेकिन यह जानकारी कम लोगों को होती थी। इसलिए उस तक पहुँच केवल बड़े शहर के प्रोफेशनल्स की होती थी। यानी फोटोग्राफी बहुत मुश्किलों भरी होती थी। फ्लैश की व्यवस्था इनबिल्ट नहीं थी। इसलिये सामान्य लोगों को दिक्कत बहुत होती थी। फ्लैश की व्यवस्था बाहर से होती थी। इसकी भी कीमत ज़्यादा होती थी। एक बार में एक बल्ब जो जलता था। वही उसके जीवन का अन्तिम पल होता था। बल्ब फ्यूज हो जाता था। अगले फ्लैश के लिए नया बल्ब लिया जाता था।
फोटोग्राफी की शुरुआत 1816 में ‘निएपसे’ के द्वारा की गई थी। जो लिथोग्राफ का परिवर्तित रूप था। इसके लिए कई प्रकाश-संवेदनशील रसायनों का एक साथ प्रयोग किया जाता था। लैवेंडर के तेल में घुलने वाले बिटुमेन का उपयोग भी प्रयोगों का हिस्सा था। वैज्ञानिक ने मिश्रण को एक टिन की शीट पर फैलाया और एक छवि को कैप्चर करने के लिए एक कैमरा ‘ओबस्क्युरा’ का उपयोग किया था। उस काल में इस प्रक्रिया को “हेलियोग्राफी सन राइटिंग” कहा गया था। यह फोटोग्राफी की प्राथमिक आधारशिला थी।
1830 में फ्रांस से इसकी शुरुआत होती है। ग्रीक शब्द फोटो (लाइट) और ग्रैफिन (ड्रा करने के लिए) से फोटोग्राफ या फोटोग्राफी शब्द बना था। जो पहली बार 1830 के दशक में इस्तेमाल किया गया था। ब्रिटिश आविष्कारक ‘फॉक्स टैलबोट’ ने 1834 में कैमरे के बिना प्रकाश-संवेदनशील सिल्वर क्लोराइड से ब्रश किए गए कागज पर वस्तुओं को रखकर अपनी पहली सफल फोटोग्राफिक छवियों का निर्माण किया था।
कैमरे से ली गई दुनिया की सबसे पहली तस्वीर 1826 में ‘जोसफ़ निसेफोर निएप्स’ (Joseph Nicéphore Niépce) ने ली थी। जोसफ़ निसेफर ने कैमरे में बनने वाले चित्र के लिए साधारण कागज की बजाए सिल्वर क्लोराइड (AgCl) की लेप चढ़े कागज का इस्तेमाल किया। वह चित्र सिल्वर क्लोराइड लगे कागज पर स्थायी रूप से अंकित हुआ और इस तरह दुनिया में पहली बार फोटो को स्थायी रूप से कागज पर प्राप्त करने की तकनीक का आरम्भ हुआ।
सिल्वर क्लोराइड (AgCl) एक फोटो सेंसिटिव केमिकल है। जिसपर रोशनी की किरण पड़ने से एक खास तरीके से फोटो-केमिकल रिएक्शन होता है। जिसकी मदद से तस्वीर बनती है। इस तरह, निप्स ने फोटो को स्थायी रूप से कागज पर प्राप्त कर व्यावहारिक फोटोग्राफी की नींव डाली। उन्होंने अपनी फोटोग्राफिक प्रॉसेस को हीलियोग्राफी (Heliography) नाम दिया था।
इस तरह के प्रथम फोटोग्राफ को ‘ले ग्रास में खिड़की से बाहर का दृश्य’ (View out of the window in Le Gras) शीर्षक दिया गया।
निसेफोर और डागुएरे ने सम्मिलित रूप से फोटोग्राफ बनाने का प्रयोग आरम्भ किया था। लेकिन 1833 में निसेफोर की मृत्यु हो गयी। डागुएरे ने प्रयोग जारी रखा। चाँदी की परत चढ़ी तांबे की पतली प्लेट को आयोडीन की वाष्प पर रखा गया। जिससे उस प्लेट पर ‘सिल्वर आयोडीन’ की एक हल्की कोटिंग हो गयी। इसे प्रकाश में रखा गया। फोटोग्राफ बनाने के लिए आरम्भ में इसे बहुत समय के लिए प्रकाश के सम्पर्क में रखना पड़ता था। लेकिन डागुएरे ने खोज की, यदि कम समय के लिए इसे प्रकाश के सम्पर्क(एक्सपोज़र) में लाया जाय तो जो धुंधली और अस्पष्ट छवि बनती है, उसे कुछ रासायनिक प्रक्रिया से डेवलप किया जा सकता है। यदि इस प्लेट को मर्करी की 75° सेल्सियस तक गर्म की गयी भाप के सम्पर्क में रखा जाये और जिस हिस्से में तस्वीर ना हो उसे ‘सोडियम थियो सल्फेट’ से धो दिया जाय तो धुँधली तस्वीर स्पष्ट हो जाती है। इस पूरी पद्धति को ‘डागुएरियोटाइप’ का नाम दिया गया था।
इस विधि से 1838 में खींची और डेवलप की गयी तस्वीर का शीर्षक है, ‘पेरिस के बुलेवार्ड डु मंदिर का दृश्य’ (View of the Boulevard du Temple)। इस पूरी प्रक्रिया को डागुएरेरोटाइप कहा जाता था, अतः उसके बनाए हुए फोटोग्राफ को ‘डैगियरटाइप’ छवियाँ कहा गया। इसके बाद ‘कोलोडियन मेथड’ (Collodion Method) का दौर आया। जिसका आविष्कार इंग्लैंड के फ्रेडरिख स्कॉट आर्चर ने किया और बच्चों के लिए साहित्य लिखने वाले ‘लेविस कैरोल’ ने इस विधि से अनेक फोटो तैयार किए। इस विधि में फोटो-सेंसिटिव मैटीरियल को गीले चिपचिपे रूप में इस्तेमाल किया जाता था। इसलिए इसे ‘Collodion Wet Plate Process’ कहा गया। यह फोटो-नेगेटिव का उस जमाने के हिसाब से सुधरा हुआ रूप था।
फोटोग्राफी की विधियां 19वीं शताब्दी (1800s) तक लोकप्रिय नहीं हो पाई थीं। 20वीं शताब्दी (1900s) की शुरुआत तक अपनी जटिल और लंबी प्रक्रियाओं के कारण यह आम लोगों के वश के बाहर थी। फोटोग्राफी सिर्फ अनुसंधानों के लिए होती थी। फोटोग्राफी पहले डिगेरोटाइप कही जाती थी। 1800 से 1850 तक फोटो लेना आसान नहीं था। 1850 में ‘इमल्शन प्लेट’ आने पर छवि को फोटो के रूप में उतारना कुछ आसान हो गया था। 1870 में ड्राई प्लेट्स आयी थीं जिन्होंने फोटोग्राफी की आधुनिक के करीब की तकनीकी दिखाई थी.
1880 में जब ‘कोडक’ (Kodak) कंपनी आयी थी। ‘जॉर्ज ईस्टमैन’ ने यह कंपनी बनाई थी। इससे पहले फोटोग्राफी बस धनिक प्रोफेशनल्स का शगल था। यह कैमरा एक बॉक्स कमरा था जो रील के साथ फैक्ट्री में जाता था। वहाँ पर फ़िल्म धुल कर आती थी पर कैमरा शहीद हो जाता था। लेकिन 20वीं शताब्दी फोटोग्राफी में क्रांति का दौर लेकर आई। जब अमेरिका के जॉर्ज ईस्टमैन ने Eastman Kodak कंपनी बनायी। यहाँ पर छोटे और हल्के फोटोग्राफी रील वाले Kodak कैमरे बनाने शुरू हुए। सन 1900 में Kodak के Brownie Box Camera ने फोटोग्राफी की दुनिया में उस जमाने के हिसाब से क्रांति कर दी।
हम अपने पुराने फिल्म-रील वाले कैमरों में जो रील (Reel) लगाया करते थे उसका आविष्कार इसी Eastman Kodak ने किया था। उस ज़माने की जनता को याद होगा कि जब पिक्चर देखने जाते थे तो उस पर ‘ईस्टमैन कलर’ प्रमुखता से लिखा होता था। फिर बाजार में ‘लीका’ (Leica) और ‘आर्गस’ जैसी कैमरा बनाने वाली दूसरी कंपनियां भी आ गईं। यह था श्वेत-श्याम यानी ‘ब्लैक & व्हाइट’ फोटो का जमाना। लेकिन फिर जल्द ही 1935 में कोडक (Kodak) ने अपनी कोडाक्रोम (Kodachrome) कलर फिल्म पेश की। इसी के साथ रंगीन यानी ‘कलर फोटो’ युग की शुरुआत हुई।
पहले दो लेंस के कैमरे आते थे। जिन्हें ‘एम एण्ड शूट (Aim and Shoot)’ कहते थे। कैमरे के ऊपरी हिस्से में एक लेंस से फोटोग्राफर दृश्य को उस अनुपात में देख सकता था लगभग जैसा फोटोग्राफ़ आने वाला होता था। फोटो कैमरे के सामने लगे कैमरे से आती थी। यानी कैमरे की रील पर प्रकाश की किरणें कैमरे के सामने लगे हुए लेंस से आती थीं। इस कारण जैसा हम ऊपरी लेंस में देख कर फोटो का अनुमान लगाते थे। असली फोटो उससे भिन्न आती थी। इस समस्या का समाधान सिंगल लेन्स कैमरों ने किया। इन कैमरों को एस.एल.आर {Single-Lens Reflex (SLR)} कहते थे। इसमें जो दृश्य दिखता था वही फोटोग्राफ में आता था। अब एक बार तकनीक विकसित होने लगी तो लेंसों में लगातार सुधार होते गए। सुविधाएं और फीचर्स जुड़ते गए।
धीरे-धीरे यह तरीका बदला। कम्यूटर के विकास के साथ, डिजिटल तकनीक विकसित होने लगी। 1980 के दशक में फोटो-रील की जगह ‘डिजिटल इमेज सेंसर’ वाले डिजिटल कैमरों ने लेली । यह सही मायने में फोटोग्राफी की दुनिया में एक जन-क्रांति थी। क्योंकि इसके बाद फोटोग्राफी हर आम आदमी के हाथों तक पहुंच गई।
अब कैमरे में रील, लोड करने और फिर डार्क-रूम में नेगेटिव से फोटो तैयार करने की बाध्यता खत्म हो गई। डिजिटल कैमरों के साथ-साथ डेस्कटॉप/लैपटॉप कंप्यूटरों के सुलभ हो जाने से हर किसी के लिए फोटोग्राफर बन जाना संभव हो गया। इसके बाद स्मार्ट फोन आये। अब तो फोटोग्राफी इतनी सुलभ हो गयी कि जितनी इच्छा हो फोटो खींचिये, मिटाइए, ना तो खर्च बढ़ता है ना बोझ बढ़ता है। पहले मजबूरी थी फोटो किसी दूसरे की खींचनी पड़ती थी। अपनी फोटो खिंचवाने के लिए कैमरा दूसरे के हाथ में देना पड़ता था। इसलिये अपनी फोटो की खूबसूरती से मन नहीं भरता था। लोगों के आत्म-प्रेम को वैज्ञानिकों ने भाँप लिया। आत्मप्रेमी जनहिताय सेल्फ़ी लेन्स का आविष्कार किया। इससे आप ख़ुद की ही फोटो खींच सकते हैं। फ़ेसबुक, ह्वाट्सऐप और इंस्टा पर भेज सकते हैं।
फोटो एडिटिंग भी विकसित हुई है। जनता की बांछे खिल-खिल गयी हैं। काले को गोरा, गोरे को काला कर सकते हैं। होठों को लाल और आँखों को सुरमई कर सकते हैं। दाग और धब्बों को ख़त्म कर सकते हैं, चेहरे की झुर्रियाँ ग़ायब कर सकते हैं। जैसा आप दिखना चाहें वैसे खूबसूरत दिख सकते हैं।
यानी कि आज भी बात ये सच्ची है, फ़ोटो में इन्सान की असली सूरत नहीं दिखती है।