डॉ धनञ्जय शर्मा
लेखक व असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग
सर्वोदय पोस्ट ग्रेजुएट महाविद्यालय, घोसी, मऊ
मानव का रचा हुया सूरज
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
पत्थर पर लिखी हुई यह / जली हुई छाया
मानव की साखी है।
हिरोशिमा, अज्ञेय
यदि पृथ्वी पर बने हुये सभी परमाणु अस्त्रों और आयुधक सामग्री का उपयोग एक साथ किया जाय तो क्या होगा ? शायद सभ्यता जहाँ से शुरू हुई थी, हम वहीं पहुँच जायेंगे । मानव सभ्यता के आरम्भ से मानव जब कंदराओं से निकलकर नदी की तलहटी में रहना आरम्भ किया तब उसने जंगली जानवरों से आत्मरक्षा के लिए के लिए पहली बार नदी के किनारे पड़े गोलाश्म को हाथ से उठाकर फेंकना पड़ा और वहीं से आत्मसुरक्षा की भावना में सामूहिक प्रयत्न द्वारा नित नए शोध करता रहा। आज गोलाश्म फेंकने से लेकर थ्री नाट थ्री, इंसास, AK47 जैसे नई तकनीकी की अनेक राइफल्स बना ली गयी। इसके अलावा अनेक प्रक्षेपास्त्र, मिसाइलें, परमाणु बम बना लिए गये, अब दुनिया अणुबम की तैयारी में है।
कहना अतिवादी नही होगा कि यदि इन सारे युद्धक सामग्री का एक साथ प्रयोग किया जाय तो पृथ्वी अपनी कक्षा छोड़कर सूर्य में विलीन हो जायेगी। बहरहाल आज हमने पृथ्वी को बारूद के ढेर पर रख दिया है, आवश्यकता है तो सिर्फ चिनगारी देने की ।
आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास से संसार की सीमाएं सीमित होने लगी हैं। लोग एक दूसरे से तेजी से सम्पर्क में आ रहे हैं। अत: बढ़ता हुआ सम्पर्क मूल्यहीनता की स्थिति का कारक है। बढ़ते हुए संचार साधनों रेल, डाक, तार, मोबाइल, दूरदर्शन आदि के कारण भावनात्मक संशक्ति का क्षेत्र कई सौ प्रतिशत बढ़ा दिया है। परिणाम स्वरूप मानवीय सौहार्द में उत्तरोत्तर कमी होती जा रही है। ऐसी स्थिति में हम शांति और सुकून की तलाश कर रहे है। हम शक्ति-संतुलन द्वारा शांति की खोज में लगे थे। धीरे-धीरे शांति की खोज में बात युद्ध तक पहुँच गयी और प्रथम विश्व युद्ध लड़ा गया पर शांति नही मिली । फिर दूसरा महायुद्ध लड़ा गया, परिणाम स्वरूप दुनिया दो ध्रुवीय खेमे में बंट गयी । द्वितीय विश्वयुद्ध का परिणाम दूरगामी सिद्ध हुआ युद्ध कालीन जीवन की क्षिप्रता और गति शांतिकालीन जीवन की तुलना में कहीं अधिक होती है ।
युद्धकालीन उखड़े हुए मूल्य और परिवार फिर आसानी से नहीं जम सके; क्योंकि महायुद्ध तो समाप्त हो गया पर उसके स्थान पर आसानी से समाप्त न होने वाला शीत युद्ध आरम्भ हो गया। विकसित और विकासशील देश अंदर-अंदर युद्ध की तैयारी की हालत में रहते हैं । इस प्रकार युद्ध की मनोवृत्ति का दबाव कम नहीं हुआ, बढ़ता ही गया । इस प्रकार पूरा विश्व दो ध्रुवीय राष्ट्रों में बंटकर सुलगने लगा और तीसरे महायुद्ध की तैयारी में जुट गया।
बढ़ते संचार के साधनों और सोशल मिडिया के ज़माने में जहाँ विश्व एक गांव बन गया है। विकेन्द्रीकरण दौर में समाज का टूटना, परिवारवाद का संयुक्त परिवार से एकल परिवार और एकल परिवार से एकांकी जिंदगी, मैं और मेरी तन्हाई तक सिमट गयी है। आज विश्व के प्रायः देशों में या तो गृहयुद्ध चल रहा है या पड़ोसी देशों से संघर्ष चल रहा है- जैसे रूस-यूकेन-विवाद, चीन की साम्राज्यवादी नीति, इजरायल-फिलिस्तीन विवाद, पाकिस्तान का गृहयुद्ध आदि। ऐसे राष्ट्रों में लोकतंत्र के नाम पर सैन्यतंत्र एवं उपनिवेशवादी संस्कृति का विकास हो रहा है। तथा पूँजीवाद में बाजारवादी संस्कृति का विकास हो रहा है। बाजारवाद के अनुसार सभी वस्तुएँ उपयोगी हैं और से इसके मूल्य का निर्धारण बाजार द्वारा किया जा रहा है। बढ़ते हुए मूल्य के दौर में मानव मूल्य गिरता जा रहा है।
सभ्यता के आरम्भ से जिस आत्मरक्षा की भावना से तकनीकी विकास होता गया, उसी काल में ऋषि-मुनियों एवं संतो द्वारा मानसिक शांति ज्ञान एवं विवेक को जागृत करने के लिए गहन चिंतन होते रहे। कहा भी जाता है विज्ञान हमें हथियार बनाना सिखाता है तो साहित्य एवं दर्शन इसे चलाना सिखाता है। सम्पूर्ण भारतीय वाङ्गमय सत्य, अहिंसा और विश्व शांति की स्थापना पर निर्भर है। भारतीय संस्कृति में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना, सार्वभौमिक भाईचारे की भावना को रखते हुए इस बात पर प्रकाश डाला गया कि सम्पूर्ण विश्व एक परिवार है, जहाँ हर व्यक्ति इसी परिवार का सदस्य है, चाहे उसकी नस्ल, धर्म, राष्ट्र या जाति कुछ भी हो। इसी क्रम में आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व महात्मा बुद्ध का उदय हुआ। द्वितीय नगरीकरण के दौर में महात्मा बुद्ध का आगमन एक बड़ी घटना के रूप में हुआ। लोहे के आविष्कार के बाद व्यापकरूप में निर्वनीकरण हो रहा था । बड़े- बड़े राज्य बन रहे थे, साम्राज्यवादी शक्तियों का विस्तार हो रहा था। एकतरफ कृषि के लिए पशुओं (गोवंश) की आवश्यकता थी तो दूसरी ओर साम्राज्य के लिए अश्व की आवश्यकता थी । ऐसे वातावरण में होने वाले बड़े-बड़े यज्ञों जैसे- अश्वमेध यज्ञ, नरमेध यज्ञ, पुरुषमेध यज्ञ में बहुतायत संख्या मे अश्वशावक या बछड़े यज्ञ में आहूति दे दिये जाते थे । महात्मा बुद्ध द्वारा राजकीय स्तर पर हो रहे इस हिंसात्मक वृत्ति पर रोक लगायी गयी। इस हेतु तथागत बुद्ध द्वारा पंचशील का सिद्धान्त दिया गया।
महात्मा बुद्ध के पंचशील के सिद्धांत ( हिंसा न करना, चोरी न करना, व्यभिचार न करना, झूठ न बोलना, और नशा न करना) को राजनीतिक रूप देकर पं. नेहरू ने राजनीतिक मंच पर पंचशील के सिद्धांत का आदर्श प्रारूप प्रस्तुत किया । विश्वशांति और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को ध्यान में रखकर प्रत्येक राष्ट्र अंतराष्ट्रीय सम्बंधों का निर्वहन करते समय पंचशील के सिद्धांत – अनाक्रमण, अहस्तक्षेप, एकदूसरे की सम्प्रभुता और अखण्डता का आदर करना, सभी देशों के साथ समानता का व्यवहार करना तथा शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का पालन करें तो विश्व में कोई तनाव और विवाद नहीं रह जायेगा।
ज्ञान, ध्यान और सत्य अहिंसा की यह परम्परा भक्ति आन्दोलन के रूप मे भी मिलती है। 15वीं शताब्दी में हुआ एक धार्मिक आन्दोलन जिसमें सभी वर्ग के लोग उठ खड़े हुए, उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम सभी दिशाएं जाग उठीं। अन्याय, अत्याचार, शोषण के खिलाफ मध्यकालीन संतों-भक्तों का एक धार्मिक सांस्कृतिक जागरण हुआ । इन संतों ने अपनी वाणी के माध्यम से वही कार्य किया जो महात्मा बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के बाद करते थे। मध्यकालीन संत तुलसीदास ने मानव एकता स्थापित करने के लिए लोकमंगल एवं समन्वय का संदेश दिया – “मंगल भवन अमंगल हारी” या “मंगल करनी अमंगल हरनी तुलसी कथा रघुनाथ की”। समन्वय की भावना के कारण ही विद्वानों ने इसे विश्व-काव्य कहा। इस ग्रंथ में जीवन के हर पहलू और मानव स्वभाव की प्रत्येक दशा का सफल निरुपण किया गया है । मानव जीवन में मर्यादा की प्रतिस्थापना एवं समन्वय की व्यापक दृष्टि मानस को विश्व-काव्य के पद पर स्थापित करती है। इन पंक्तियों के माधाम से मानस का संदेश दिया गया है, “जड़ चेतन गुनदोषमय विश्व किन्ह करतार” । इसी प्रकार अनेक संत कबीर,रैदास, नानक, मीरा, रसखान आदि संतों ने संदेश दिया है।
अतः कहा जा सकता है कि आज सम्पूर्ण विश्व को शांति की आवश्यकता है। सभी देश अपने -अपने स्तर पर लगे हैं पर शांति कहीं खोई हुई वस्तु नहीं है जो खोजने पर मिल जाए । शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के तहत हमें बुद्ध बचनों को अपनाना होगा, मानस के संदेश को सुनना होगा, वसुधैव कुटुम्बकम् के भाव को अपना होगा। भारतीय संस्कृति के आदर्शवाक्यों- अप्प दीपो भव:, जियो और जीने दो, अहिंसा परमो धर्मः, परमोधर्मः, सत्यमेव जयते को अपनाना होगा। प्रधानमंत्री जी द्वारा दिए गये संदेश, “पूर्व की ओर देखो” के अंतर्गत इन सभी बातों को वैश्विक मंच पर रखना होगा, अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब तीसरा विश्व युद्ध होगा जिसमें सारे परमाणु हथियार प्रयोग किए जाएंगे ।