डॉ अन्नपूर्णा श्रीवास्तव
पटना बिहार
प्रेम! प्रेम! प्रेम!
आखिर क्या है… प्रेम…?
क्या इसकी व्याख्या हो सकती…?
शायद नहीं…!
यह, देह- सीमा, देश- काल, शब्द – भाव-
सबसे परे है…!
एक अद्वितीय अनुभूति…
शायद “गूँगे का गुड़” – सा
संगीत के सुर- सा…
ईश्वर के निर्गुण रूप की परिणति-
यह प्रेम ही तो है…!
“विनु पद चलहिं सुनहिं बिनु काना
कर बिनु करम करहिं विधि नाना”
सम्पूर्ण सृष्टि के कार्य- व्यापार का आधार –
यह, प्रेम ही तो है…!
युग – युग से सृष्टि – चक्र चलता आ रहा –
एक आकर्षण – बीज –
सर्वत्र प्रस्फुटित होता –
मचलता… संभलता आ रहा…
कैसे…? क्यूँ…?
कहना है मुश्किल…!
पर है, अवश्य…कुछ…
‘वह’ जो है अवर्णनीय…अद्वितीय… अकथनीय…!
समझ पाना है मुश्किल…!
इसे ढूँढना है….
‘खुद में ढूँढो’…!
मिल गया अगर,
तो तुमने पा लिया- दुर्लभ…!
क्योंकि, उसका परावर्तित रूप ही-
सृष्टि के कण- कण में…
असीम अबाध –
आनंद – रूप में है सुलभ!!!