डॉ धनञ्जय शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर, सर्वोदय पी.जी.कॉलेज, घोसी, मऊ
उत्तर प्रदेश
आज विश्व पृथ्वी दिवस मनाया जा रहा है, चलो दुनिया की नजर दुनिया को आश्रय देने वाली पृथ्वी की तरफ ले चलते हैं पृथ्वी की उत्पत्ति साढ़े चार अरब वर्ष पूर्व हुई थी । शुरू में यह आग का तप्त गोला थी लेकिन, कुछ सौ वर्षो के बाद यह धीरे धीरे ठंडी होने लगी और तमाम परिवर्तनों के बाद यहां जीवन संभव हुआ। अपनी प्रकृति के कारण पृथ्वी, सौर मंडल का अनोखा ग्रह है इसे ग्रीन प्लैनेट भी कहा जाता है। अपने आरंभिक दौर से ही माता के समान सभी जैविक, अजैविक घटकों को संरक्षण प्रदान करती रही है। सभी इसमें उत्तपन्न होते हैं और इसी में विनष्ट हो जाते हैं। चाहे एक कोशकीय जीव हों या बहुकोशकीय जीव सभी को धरती से भोजन, पानी, हवा, दावा, सब कुछ मिलता है।
प्रकृति का न्याय बराबरी का है समता समानता और स्वंत्रता प्रकृति मूल है इन शब्दों की उत्पत्ति प्रकृति के साथ हुआ है। इसी सिद्धांत का पालन करते हुए पृथ्वी पर नाना प्रकार के जीव-जंतु हैं जो अपना जीवन बिता कर चले जाते हैं। बहुतेरे ऐसे हैं जो प्रकृति के अनुरूप जीवन जीते हैं। पर कुछ ऐसे भी हैं जो प्रकृति की दिशा बदलने में पूरा जीवन लगा देते हैं। ऐसे जीवों में मनुष्य अग्रणीय प्राणी है। मानव अपने विकास की पूर्णता को प्राप्त करने के बाद मनुष्य प्रकृति का दास ना होकर मनुष्य प्रकृति का भगवान बन गया। प्रकृति को दिशा देने लगा, प्रकृति को चलाने लगा, प्रकृति मनुष्य के सामने कुछ लाचार सी नजर आने लगी ।
जब चाहा तापमान कम करके ठंड उत्पन्न कर लिया, जब चाहा तापमान बढ़कर गर्मी सा माहौल बना लिया, जब चाहा नदी की धारा को मोड़ दिया, पर्वतों को तोड़ कर मैदान बना लिया। प्रकृति हर कदम पर हारती रही। मनुष्य का लालची स्वभाव ही प्रकृति के लिए सबसे बड़े खतरे का कारण है। कितना कुछ पा लेना, कितना कुछ संग्रह कर लेना, प्रकृति के लिए सबसे खतरे की बात है।
आज मनुष्य अपनी आवश्यकताओं से अधिक अपनी महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत हो गया है। मूलभूत आवश्यकताओं से कई गुना पा लेना चाहता है, संग्रहण कर लेना चाहता है और इसके पीछे इसका लालच और लाभ कमाना ही मुख्य उद्देश्य है।
उत्तर आधुनिकता के दौर में तकनीकी और बाजारवाद ने प्रकृति एवं पर्यावरण को सबसे ज्यादा हानि पहुंचाई है । आज का तकनीकी मानव तकनीकी के आधार पर पूरे प्रकृति पर अपना नियंत्रित कर लिया है पृथ्वी के साथ-साथ वह सूर्य, चंद्र, मंगल, शुक्र, बृहस्पति एवं शनि आदि तमाम ऐसे ग्रहों पर अपनी पहुंच बनाए रखा हुआ है। इसके साथ-साथ ब्रह्मांड में बहुत सारी ऐसी खोज कर रहा है वह कहां तक पहुंच सके क्या कुछ कर सके।तकनीकी प्रकृति के दोहन के लिए नए-नए साधन उत्पन्न कर रही है तो बाजार उसकी पहुंच आसान कर रही है और कोई भी वस्तु अपने लोकल मार्केट से निकाल करके विश्व बाजार में पहुंच जा रही है जिससे उसकी खपत आसान हो जा रही है दोहन के श्रृंखला में मनुष्य भूल जा रहा है कि प्रकृति के संसाधन सीमित है जैसे जल, कोयला, खनिज अयस्क यहां तक की ऑक्सीजन की भी एक सीमा है। विकासवाद के दौर में जंगलों की अंधा धुंध कटाई इसके लिए अभिशाप बनता जा रही है। पर्यावरण एवं विकास पर विश्व आयोग की रिपोर्ट के अनुसार धारणीय अथवा अस्थाई विकास का सिद्धांत दिया गया है, जिसके अंतर्गत भावी पीढ़ियों के लिए आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमताओं से समझौता किए बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति किया जाए अर्थात भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्राकृतिक संसाधनों का वर्तमान समय में इस प्रकार उपयोग करना जिससे आर्थिक विकास एवं पर्यावरण सुरक्षा के बीच एक मानसिक संतुलन बना रहे। अतः मनुष्य द्वारा किए गए कार्य धारणीयता के सिद्धांत को ध्यान में रखकर किया जाए इसी क्रम में नवीकरणीय संसाधन एक ऐसा सिद्धांत है जिसमें वे संसाधन जिनके भंडारण में प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा पुनर्स्थापना होता रहता है, पर मानव द्वारा ऐसे संसाधनों का दोहन उसके पुनर्स्थापना की दर से अधिक तेजी से होने से इन संसाधनों का छय होने लगता है जैसे खनिज, वन, जल, ऑक्सीजन आदि।
आज के समय में नवीकरणीय एवं धारणीयता के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए विकास को इस क्रम में किया जाए कि हम प्रकृति का दोहन तो करें लेकिन भाभी पीढ़ी को ध्यान में रखते हुए जल का दोहन इस प्रकार करें कि आने वाली पीढ़ियों तक भी इसे उपलब्ध करा सके।
बचपन में देखते थे नदी, नाले, ताल तलैया, पोखरे सभी वर्ष भर जल से भरे रहते थे और ख़ास बात ये है कि इसी जल को हम पीते थे। पर आज ये सभी स्रोत वर्ष भर सूखे नजर आते हैं, वो जल राशि जो हमें प्रकृति से उपहार में मिला था उसे हमने खो दिया और उस जल राशि को हमने बोतलों में पैक कर दिया। जरा सोचिए अगली पीढी को हम क्या देंगे? इसके लिए हम सब जिम्मेदार हैं अतः इसके सुरक्षा की जिम्मेदारी भी हमारी है।
कृतिका सिंह की कार्टून कृति
कहा जाता है जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि आज भारत के साहित्यकारों को इस कार्य में आगे आना होगा। क्योंकि साहित्य सदैव से हाशिए की वकालत करते आई है आज हमारा प्रकृति और पर्यावरण भी हाशिए की तरफ बढ़ रहा है इसे हाशिए से मुख्य धारा में लाना होगा जीवन जीने के लिए रोटी कपड़ा और मकान की आवश्यकता है हम अपना मकान तो बना लेते हैं लेकिन प्रकृति की अन्य जीव जंतुओं का मकान नष्ट कर देते हैं अपना मकान बनाने के लिए पशु पक्षियों जीव जंतु एवं तमाम ऐसे जीवधारी है जिनके आवास नष्ट होते जा रहे हैं हम अपने दैनिक जीवन में जाने अंजाने ऐसा कार्य हर सेकंड करते हैं जिसका विपरीत प्रभाव प्रकृति के ऊपर पड़ता है आज दुनिया के साहित्यकारों को एकजुट होकर प्रकृति संरक्षण के लिए आवाज उठानी चहिए एक आंदोलन करना चाहिए जिससे जन जन तक यह बात पहुंच जाय पर्यावरण खतरे में है तो मानव खतरे में है।
हमे अपना अस्तित्व बचाने के लिए प्राकृति का अस्तित्व बचाना होगा। जिससे हम भी सुरक्षित रहें और हमारी प्रकृति भी सुरक्षित रहे। अन्यथा एक समय आएगा जब मानव मानव से नहीं अपना अस्तित्व बचाने के लिए प्रकृति से लड़ेगा। खेत में बोया गया बीज कीटनाशक के बिना सुरक्षित नहीं है और फसल कटने से लेकर भंडार गृह में सुरक्षित रखने तक कीटनाशक का सहारा लेना पड़ रहा है। हम मंगल पर जीवन के तलाश करने के चक्कर में अपने जीवन का मंगल ही नष्ट करते जा रहे हैं।
अतः आजप्रकृति के लिए नए विमर्श की जरूरत है जैसे स्त्री विमर्श, दलित विमर्श , आदिवासी विमर्श उसी प्रकार पर्यावरण विमर्श या पृथ्वी विमर्श की जरूरत है। हर युग का साहित्य प्रकृति के सानिध्य में लिखा गया है। अब जब हर मंच से प्रकृति संरक्षण की बातें हों, हर टेक्नोलॉजी के पीछे प्रकृति संरक्षण हो। हमारे शास्त्रों में वर्णित “वसुधैव कुटुंबकम्”, “सर्वे भवन्तु सुखिनः” जैसे आदर्श वाक्य प्राचीन काल में प्रकृति संरक्षण की व्यापकता को प्रदर्शित करते हैं है साहित्य में भावों के साथ साथ प्रकृति अपना रंग बदलती रही है। महा कवि सूर दास जी ने प्रकृति के विषय में लिखा है “तब ये लता लगनि अति शीतल अब भइ विषम ज्वाल कै पुंजै”के जितने भी जीव जंतु हो यह हमारे जीवन के अंग है यह जीव जंतु सुरक्षित रहेंगे तभी मानव जीवन सुरक्षित रहेगा अन्यथा फिर एक समय आएगा जब पानी की बोतलों के साथ-साथ ऑक्सीजन का सिलेंडर भी लेकर चलना पड़ेगा । आज विश्व एक गांव बन गया है करलो दुनिया मुट्ठी में के नारे दिए जा रहे हैं दुनियां मुट्ठी में हो गई तो हम कहां रहेगें।