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कहानी- ’’ जोड़-घटाव ’’

Posted on November 14, 2023

वरिष्ठ साहित्यकार : नीरजा हेमेन्द्र जी

नीरजा हेमेन्द्र जी ख्यातिप्राप्त वरिष्ठ साहित्यकार हैं, आपके तीन उपन्यास “ललई भाई”, “अपने-अपने इन्द्रधनुष” और “उन्ही रास्तों से गुज़रते हुए” तथा सात कहानी संग्रह और चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं ।

आपको उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का विजयदेव नारायण साही पुरस्कार, शिंगलू स्मृति सम्मान, फणीश्वरनाथ रेणु स्मृति सम्मान, कमलेश्वर कथा सम्मान, लोकमत पुरस्कार, सेवक साहित्यश्री सम्मान, हाशिये की आवाज़ कथा सम्मान आदि प्राप्त हो चूका है ।

“जोड़-घटाव” कहानी रामचंद्र के जीवन पर आधारित शानदार कहानी है, इसका पहला भाग आपके समक्ष प्रस्तुत है :

आज पहली तारीख है। रामचन्द्र काम पर जाने की तैयारी कर रहा है। प्रतिदिन की अपेक्षा वह आज कुछ अधिक खुश है। इसका कारण वही कि आज पहली तारीख है। पहली तारीख आते-आते उसके वेतन के पैसे खर्च हो जाते हैं। आज मालिक वेतन देते हैं। बस, यही कारण है रामचन्द्र की खुशी का।

सुबह के आठ बजे हैं। वह नहा-धोकर काम पर जाने वाला कुर्ता-पायजामा पहन कर तैयार है। उसकी पत्नी शकुन्तला रसोई में भोजन बनाने में व्यस्त है। उसे समय पर रामचन्द्र के लिए भोजन तैयार करना है। साथ ही दोपहर के लिए टिफिन भी रखना है। 

      बालों में तेल लगाकर, कंधी कर अब रामचन्द्र बिलकुल तैयार हो चुका है। काम पर जाने का समय भी होने लगा है। भोजन कर वह सीधे कम पर चला जाएगा। हाथ धोकर वह रसोई में चला गया।

    ’’ भोजन तैयार है क्या बंटू की माँ? ’’ रसाई में जा कर उसने शकुन्तला से पूछा।

     ’’ हाँ….हाँ..। बस थाली में परोसना शेष है। सब तैयार है। ’’ कह कर रामचन्द्र की पत्नी शकुन्तला ने थाली में रोटी-दाल और लौकी की सब्जी परोस कर बरामदे में बिछे तख्त पर रख दिया। साथ में एक लोटा पानी भी रख दिया।

     रामचन्द्र ने भोजन कर पानी पिया और दीवार में लगी घड़ी की ओर दृष्टि डाली। नौ बज रहे थे। दस बजे तक उसे दुकान खोलनी रहती है। समय हो गया है। अब उसे चल देना चाहिए। उसने घर के बारामदे में खड़ी अपनी साईकिल उठायी और दुकान की ओर बढ़ चला।

      घनी आबादी वाले बाजार में एक कपड़े की दुकान पर रामचन्द्र काम करता है। लगभग सत्रह वर्ष हो गये उसे उस दुकान पर काम करते हुए। इतने वर्षों से काम करने और उसका व्यवहार देखकर मालिक उस पर सबसे अधिक विश्वास करते हैं। यही कारण है कि दुकान खोलने का उत्तरदायित्व उसे सौंप दिये हैं।

     दुकान खुलने का समय यद्यपि दस बजे है। किन्तु रामचन्द्र की कोशिश रहती है कि दस बजे से पूर्व ही दुकान खुल जाये। वह ऐसा करता भी है। दस बजे से कुछ पूर्व ही दुकान खोल देता है। कपड़े की दुकान बड़ी है, इस कारण दो और कर्मचारी काम पर रखे गये हैं। दुकान खुली मिलती है तो वे आकर अपने काम पर लग जाते हैं।

     रामचन्द्र साईकिल से दुकान की ओर बढ़ता चला जा रहा था। साईकिल चलाते-चलाते वह सोचता जा रहा था कि आज पहली तारीख है। आज उसे इस माह का वेतन मिल जाएगा। मालिक ने कहा है कि इस माह से उसकी तनख्वाह कुछ बढ़ा देंगे। ठीक ही सोचा है मालिक ने। इस महंगाई में उसे जितनी तनख्वाह मिलती है उससे घर चलाने में बहुत कठिनाई होती है।

     भीड़-भाड़ वाले बाजार से सम्हल-सम्हल कर साईकिल चलाते हुए रामचन्द्र यही सब सोचता चला जा रहा था। दुकान से कुछ पहले पड़ने वाली सब्जी मण्डी आ गयी। सुबह के दस भी नही बजे हैं, सब्जी मण्डी में अच्छी खासी भीड़ है। कुछ स्थाई सब्जियों की दुकानें ही खुली हैं। वह जानता है कि आसपास के गाँव वाले कृषक दोपहर से कुछ पूर्व तक अपनी ताज़ी सब्जियों का सौदा लगा पाते हैं। किन्तु ताजी सब्जी लेने के लिए भीड़ इसी समय से होने लगी है। एकाध घंटे में कृषक आने शुरू हो जाएंगे।

कुछ मिनटो में रामचन्द्र दुकान पहुँच गया। दुकान का शटर उठाकर प्रवेश द्वार के भीतर की ओर दीवार पर लगे स्विचबोर्ड से दुकान की बत्ती जला दिया साथ ही पंखा भी चला दिया। काउंटर पर पहुँच कर उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई कि कपडों के थान इत्यादि सब व्यवस्थित रूप से अपने स्थान पर लगे है कि नही? एकाध कपड़े के थान थोड़े अव्यवस्थित रूप से रखा देख वह उन्हें ठीक करने में लग गया।

    इतनी देर में साथ वाले दोनों कर्मचारी भी आ गये। ग्यारह बज गये। अभी तक एक भी ग्राहक नही आया था। दुकान के मालिक जिन्हें सब रस्तोगी बाबू कहते हैं, वे भी ग्यारह बजे तक आ जाते हैं। कभी-कभी आने में कुछ विलम्ब भी हो जाता है। समय पर दुकान खोलने और उनके आने तक दुकान की देखभाल करने का उत्तरदायित्व उन्होंने रामचन्द्र पर डाल रखा है। मालिक रामचन्द्र पर विश्वास करते ही हैं, उससे कुछ अधिक स्नेह भी रखते हैं।

   कुछ ही देर में मालिक आ कर अपनी गद्दी पर बैठ गये। इस समय साढ़े ग्यारह बज रहे थे।

   ’’ कितनी बिक्री हुई? ’’ आते ही मालिक ने पूछा।

   ’’ अभी तक तो नही मालिक। ’’ रामचन्द्र ने कहा।

      ’’ कोरोना को आये हुए दो वर्ष हो गये। कोरोना का प्रभाव भी अब कम हो गया है। किन्तु बाजार की स्थिति अभी तक नही सम्हली है। ’’ मालिक ने चिन्तित होते हुए कहा।

    ’’ हाँ मालिक, सो तो है। किन्तु कपड़े की खरीदारी के लिए महिलाएँ घर के कार्यों को करने के पश्चात् ही इत्मीनान से बाजार के लिए निकलती हैं।….दोपहर के पश्चात् ही ग्राहक आएंगे।’’ रामचन्द्र ने मालिक को ढाढ़स बँधाते हुए कहा। मालिक ने सहमति में सिर हिला दिया।

     दोपहर तक नही बल्कि तीसरे पहर कुछ लड़कियाँ व महिलाएँ दुकान पर आयीं। उन्हें देखते ही रामचन्द्र इस प्रकार खुश हो गया जैसे भक्त को भगवान के दर्शन हो गये हों। उनमें से कुछ को सलवार सूट के लिए कपड़े चाहिए थे, तो कुछ को साड़ी। साड़ी लेने वाली महिलाएँ साड़ी वाले काउण्टर पर और सूट लेने वाली सूट के काउण्टर पर खड़ी हो गयीं।

    दोनों लड़के कपड़े दिखाने में व्यस्त हो गये। यदि किसी को मैंचिंग ब्लाउज पीस, मैंचिंग दुपट्टे जैसे वस्त्रों की आवश्यकता होती तो उसके लिए रामचन्द्र था। क्यों कि ये सब वस्तुएँ रामचन्द्र के काउण्टर पर रहती हैं। किन्तु इसकी आवश्यकता नही पड़ी। महिलाओं की संख्या छः-सात थी। बिका मात्र एक सलवार सूट। रामचन्द्र सोचने लगा कि मालिक सही कह रहे हैं कि कोरोना आया और चला भी गया किन्तु बाजार अभी तक नही सम्हल पाया है।

       शाम होने लगी। कुछ ग्राहक और आये। कुछ ने कपड़े खरीदे, कुछ ने सिर्फ देखे और चले गये। रात्रि के नौ बजने लगे। दुकान में ग्राहकों का आना कम होते-होते और कम होने लगा। जब कि बाजार में लोग बाग अभी अच्छी खासी संख्या में थे। परचून, बर्तन आदि की दुकानों से लोग खरीदारी भी कर रहे थे। 

    दस बजे दुकान बन्द होने से पूर्व मालिक ने तीनों कर्मचारियों को वेतन दे दिया। रामचन्द्र कभी मालिक के दिये पैसे नही गिनता। घर जाकर ही देखता है। उसे मालिक पर पूरा विश्वास है। वह यह भी जानता है कि मालिक ने कहा है कि इस माह कुछ पैसे बढ़ा देंगे, तो अवश्य बढ़ा दिये होंगे। वह घर जाकर देखेगा कि कितना बढ़ाया? क्या बढ़ाया?…..इन्हीं सब बातों को सोचता हुआ रामचन्द्र घर पहुँच गया।

    बिटिया अपने कमरे में पढ़ रही थी। रामचन्द्र ने पगार निकाल कर आलमारी में रख दिया। हाथ-मुँह धोकर एक कप चाय पी कर वह अपने कमरे में आ गया। आलमारी से निकाल कर अपनी पगार गिनने लगा।

   ….ये क्या पगार तो उतनी ही है, जितनी हमेशा मिलती है। तो मालिक ने इस माह भी कुछ नही बढ़ाया?….रामचन्द्र मन ही मन बुदबुदा उठा।

……ओह! महंगाई इतनी अधिक बढ़ गयी है। चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। इतने पैसों में घर चलाना कठिन होता जा रहा है। दो समय का भोजन और बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था करते-करते उसकी कमर टूट जाती है। पैसे तो महीना खत्म होने से पूर्व ही खत्म हो जाते हैं।….महीने के अन्तिम सप्ताह में तो घर में सब्जियाँ आनी बन्द हो जाती हैं। रोटी-दाल, रोटी-भरता यही सब भोजन में बनने लगता है।…..

     ……..इसी चिन्ता में रामचन्द्र बिस्तर पर निढ़ाल लेट गया। कमरे की छत की ओर देखते हुए सोचने लगा कि क्या जुगत करे कि इतने पैसों में घर की आवश्यकताएँ पूरी हो जायें?

   ’’ क्या हुआ? दुकान से आकर आज लेट गये? चाय भी नही पी। लेटे-लेटे क्या सोच रहे हो? ’’ चाय लेकर पत्नी कमरे में आ गयी और तिपाई पर रखते हुए बोली।

    ’’ क्या बताएँ? मालिक ने कहा था कि वे इस माह कुछ पैसे बढ़ा कर देंगे। किन्तु बढ़ाया नही। हम यही सोच रहे हैं कि इतने पैसे में घर कैसे चलेगा? ’’ रामचन्द्र तकिए का टेक लगा कर बैठ गये और चाय का कप ओठों से लगाते हुए कहा।

     ’’ पिछले माह भी तो मालिक ने कहा था कि पैसे बढ़ाकर देंगे। उस महीने न सही, इस महीने ही बढ़ा देते। ’’ रामचन्द्र की  चिन्ता में सम्मिलित होते हुए पत्नी ने कहा।

      ’’ क्या करें? न जाने क्या बात है? महंगाई बढ़ती जा रही है। किन्तु मालिक ने कई बरस से कुछ भी बढ़ोत्तरी नही की। ’’ रामचन्द्र ने कहा। रामचन्द्र की बात सुनकर पत्नी कुछ नही बोली। मायूस होकर रसाई में चली गयी। उसे अभी भोजन बनाना था।

    चाय पीने के पश्चात् रामचन्द्र घर के भीतर गया। उसने देखा बिटिया पढ़ रही है। बेटा इस समय ट्यूशन पढ़ने गया होगा। समय हो रहा है….घर आने वाला होगा। रामचन्द्र पुनः बाहरी कमरे में आकर लेट गया। घर-गृहस्थी को लेकर विचारों में उथल-पुथल पूर्ववत् थी।

    ’’ पापा…पापा…! ये देखो कितना सुन्दर और सस्ता सलवार सूट है। ’’ कुछ ही देर में बिटिया अपना मोबाईल फोन लेकर आयी और रामचन्द्र को दिखाती हुई बोली।

      ’’ कहाँ बिटिया….कहाँ..?  मोबाईल में कैसा सूट बिक रहा है?  ’’ रामचन्द्र ने अचम्भे से कहा।

   ’’ देखिए पापा, ये सभी चीजें ऑनलाईन मिलती हैं। बाजार से सस्ती हैं। होम डिलीवरी करते हैं। होम डिलीवरी का मतलब कि सामान आपके घर पर पहुँच जाता है, कभी बहुत कम पैसों में तो कभी फ्री में। ’’ बिटिया कहती जा रही थी और रामचन्द्र उसकी बातें सुनते जा रहे थे। किन्तु वे बिटिया की बात पूरी तरह समझ नही पा रहे थे जब कि फोन उनके हाथ में था।

     फोन के स्क्रीन पर बहुत से घरेलू प्रयोग में आने वाली वस्तुओं के चित्र बने थे। वस्तुओं के मूल्य भी उनके नीचे लिखे थे। रामचन्द्र ध्यान से वस्तुओं और उनके मूल्य को देखने लगा।    

     ’’ पापा, इस प्रकार की कई कम्पनी बाजार में हैं। जो कपड़े से लेकर घरेलू आवश्यकता की चीजें ऑनलाईन बेचती हैं और घर तक पहुँचाती हैं। ’’ रामचन्द्र मोबाईल देखते-देखते बेटी की बात सुन रहा था।

    ’’ ये देखिए पापा, दीपावली आने वाली है। इसलिए कम दामों पर ये सभी चीजें फेस्टिव ऑफर के अंतर्गत मिल रही हैं। ’’ रामचन्द्र के हाथो से मोबाईल लेकर बिटिया ने कुछ घरेलू प्रयोग में आने वाली चीजों के चित्र दिखाते हुए कहा।

    ’’ ये देखिए पापा, ये हम दीपावली के लिए लेना चाह रहे ह। ये हमारे नाप का है। दाम भी बहुत कम है। आप कहिए तो आर्डर कर दें। ’’ एक सलवार सूट का चित्र दिखाते हुए बिटिया ने मचलते हुये कहा।

   रामचन्द्र मोबाईल हाथ में लेकर देखने लगे। सूट बहुत अच्छा दिख रहा था और रेट भी सही था।

   ’’ बोलिए न पापा! आर्डर कर दें? ’’ बिटिया ने आशा भरी दृष्टि से पापा की ओर देखते हुए पूछा।

     ’’ बताइए न पापा! मैं दीपावली के लिए यही सूट लेना चाह रही हूँ। ’’ पापा को असमंजस की स्थिति में देख कर बिटिया ने पुनः कहा।

     ’’ ठीक है ले लो बेटा। ’’ रामचन्द्र ने कहा और मोबाइल बिटिया को वापस कर दिया।

शेष अगले भाग में .

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